महाभारतम्-01-आदिपर्व-145
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अर्जुनस्य परीक्षा।। 1 ।।
कर्णस्य रङ्गप्रवेशः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-145-1x |
कुरुराजे हि रङ्गस्थे भीमे च बलिनां वरे। पक्षपातकृतस्नेहः स द्विधेवाभवज्जनः।। | 1-145-1a 1-145-1b |
जय हे कुरुराजेति जय हे भीम इत्युत। पुरुषाणां सुविपुलाः प्रणादाः सहसोत्थिताः।। | 1-145-2a 1-145-2b |
ततः क्षुब्धार्णवनिभं रङ्गमालोक्य बुद्धिमान्। भारद्वाजः प्रियं पुत्रमश्वत्थामानमब्रवीत्।। | 1-145-3a 1-145-3b |
वारयैतौ महावीर्यौ कृतयोग्यावुभावपि। मा भूद्रङ्गप्रकोपोऽयं भीमदुर्योधनोद्भवः।। | 1-145-4a 1-145-4b |
वैशंपायन उवाच। | 1-145-5x |
`तत उत्थाय वेगेन अश्वत्थामा न्यवारयत्। गुरोराज्ञा भीम इति गान्धारे गुरुशासनम्। अलं शिक्षाकृतं वेगमलं साहसमित्युत।।' | 1-145-5a 1-145-5b 1-145-5c |
ततस्तावुद्यतगतौ गुरुपुत्रेण वारितौ। युगान्तानिलसंक्षुब्धौ महावेलाविवार्णवौ।। | 1-145-6a 1-145-6b |
ततो रङ्गाङ्गणगतो द्रोणो वचनमब्रवीत्। निवार्य वादित्रगणं महामेघनिभस्वनम्।। | 1-145-7a 1-145-7b |
यो मे पुत्रात्प्रियतरः सर्वशस्त्रविशारदः। ऐन्द्रिरिन्द्रानुजसमः स पार्थो दृश्यतामिति।। | 1-145-8a 1-145-8b |
आचार्यवचनेनाथ कृतस्वस्त्ययनो युवा। बद्धगोधाङ्गुलित्राणः पूर्णतूणः सकार्मुकः।। | 1-145-9a 1-145-9b |
काञ्चनं कवचं बिभ्रत्प्रत्यदृश्य फाल्गुनः। सार्कः सेन्द्रायुधतडित्ससन्ध्य इव तोयदः।। | 1-145-10a 1-145-10b |
ततः सर्वस्य रङ्गस्य समुत्पिञ्जलकोऽभवत्। प्रावाद्यन्त च वाद्यानि सशङ्खानि समन्ततः।। | 1-145-11a 1-145-11b |
प्रेक्षका ऊचुः। | 1-145-12x |
एष कुन्तीसुतः श्रीमानेष मध्यमपाण्डवः। एष पुत्रो महेन्द्रस्य कुरूणामेष रक्षिता।। | 1-145-12a 1-145-12b |
एषोऽस्त्रविदुषां श्रेष्ठ एष धर्मभृतां वरः। एष शीलवतां चापि शीलज्ञाननिधिः परः।। | 1-145-13a 1-145-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-145-14x |
इत्येवं तुमुला वाचः शुश्रुवुः प्रेक्षकेरिताः। कुन्त्याः प्रस्रवसंयुक्तैरस्रैः क्लिन्नमुरोऽभवत्।। | 1-145-14a 1-145-14b |
तेन शब्देन महता पूर्णश्रुतिरथाब्रवीत्। धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठो विदुरं हृष्टमानसः।। | 1-145-15a 1-145-15b |
क्षत्तः क्षुब्धार्णवनिभः किमेष सुमहास्वनः। सहसैवोत्थितो रङ्गे भिन्दन्निव नभस्तलम्।। | 1-145-16a 1-145-16b |
विदुर उवाच। | 1-145-17x |
एष पार्थो महाराज फाल्गुनः पाण्डुनन्दनः। अवतीर्णः सकवचस्तत्रैव सुमिहास्वनः।। | 1-145-17a 1-145-17b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-145-18x |
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि रक्षितोऽस्मि महामते। पृथारणिसमुद्भूतैस्त्रिभिः पाण्डववह्निभिः।। | 1-145-18a 1-145-18b |
वैशंपायन उवाच। | 1-145-19x |
तस्मिन्प्रमुदिते रङ्गे कथंचित्प्रत्युपस्थिते। दर्शयामास बीभत्सुराचार्यायास्त्रलाघवम्।। | 1-145-19a 1-145-19b |
आग्नेयेनासृजद्वह्निं वारुणेनासृजत्पयः। वायव्येनासृजद्वह्निं पार्जन्येनासृजद्धनान्।। | 1-145-20a 1-145-20b |
भौमेन प्रासृजद्भूमिं पार्वतेनासृजद्गिरीन्। अन्तर्धानेन चास्त्रेण पुनरन्तर्हितोऽभवत्।। | 1-145-21a 1-145-21b |
क्षणात्प्रांशुः क्षणाद्ध्रस्वः क्षणाच्च रथधूर्गतः। क्षणेन रथमध्यस्थः क्षणेनावतरन्महीम्।। | 1-145-22a 1-145-22b |
सुकुमारं च सूक्ष्मं च गुरु चापि गुरुप्रियः। सौष्ठवेनाभिसंयुक्तः सोऽविध्यद्विविधैः शरैः।। | 1-145-23a 1-145-23b |
भ्रमतश्च वराहस्य लोहस्य प्रमुखे समम्। पञ्चबाणानसंक्तान्संमुमोचैकबाणवत्।। | 1-145-24a 1-145-24b |
गव्ये विषाणकोशे च चले रज्ज्ववलम्बिनि। निचखान महावीर्यः सायकानेकविंशतिम्।। | 1-145-25a 1-145-25b |
इत्येवमादि सुमहत्खड्गे धनुषि चानघ। गदायां शस्त्रकुशलो मण्डलानि ह्यदर्शयत्।। | 1-145-26a 1-145-26b |
ततः समाप्तभूयिष्ठे तस्मिन्कर्मणि भारत। मन्दीभूते समाजे च वादित्रस्य च निःस्वने।। | 1-145-27a 1-145-27b |
द्वारदेशात्समुद्भूतो माहात्म्यबलसूचकः। वज्रनिष्पेषसदृशः शुश्रुवे भुजनिःस्वनः।। | 1-145-28a 1-145-28b |
दीर्यन्ते किं नु गिरयः किंस्विद्भूमिर्विदीर्यते। किंस्विदापूर्यते व्योम जलधाराघनैर्घनैः।। | 1-145-29a 1-145-29b |
रङ्गस्यैवं मतिरभूत्क्षणेन वसुधाधिप। द्वारं चाभिमुखाः सर्वे बभूवुः प्रेक्षकास्तदा।। | 1-145-30a 1-145-30b |
पञ्चभिर्भ्रातृभिः पार्थैर्द्रोणः परिवृतो वभौ। पञ्चतारेण संयुक्तः सावित्रेणेव चन्द्रमाः।। | 1-145-31a 1-145-31b |
अश्वत्थाम्ना च सहितं भ्रातॄणां शतमूर्जितम्। दुर्योधनममित्रघ्नमुत्थितं पर्यवारयत्।। | 1-145-32a 1-145-32b |
स तैस्तदा भ्रातृभिरुद्यतायुधै- र्गदाग्रपाणिः समवस्थितैर्वृतः। बभौ यथा दानवसंक्षये पुरा पुनन्दरो देवगणैः समावृतः।। | 1-145-33a 1-145-33b 1-145-33c 1-145-33d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 145 ।। |
1-145-4 कृतयोग्यौ सुशिक्षितौ।। 1-145-10 तूणकार्मुककवचानां तत्प्रभाजालस्यार्जुनस्य च क्रमादर्केन्द्रायुधतडित्संध्यातोयदैरुपमा।। 1-145-11 समुत्पिञ्जलक उत्फुल्लता।। 1-145-14 अस्रैः प्रेमाश्रुभिः।। 1-145-23 सुकुमारं पूर्णघटकुक्कुटाण्डादीनि लक्ष्याण्यविचाल्याविध्यत्। सूक्ष्मं गुञ्जादि लक्ष्यं, गुरु घनावयवं च सोऽविध्यत्।। 1-145-25 भूताश्वेभवराहाणां सिंहर्क्षकपिसंमुखान्। बाणान्सप्तासमायुक्तान्स मुमोचैकबाणवत्। इति घपाठः। गव्ये गोसंबन्धिनि।। 1-145-31 सावित्रेण हस्तनक्षत्रेण।। 1-145-33 गदा अग्रं आलम्बनं यस्य तादृशः पाणिर्यस्य स गादाग्रपाणिः।। पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 145 ।।
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