महाभारतम्-01-आदिपर्व-240
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द्वारकाया उपवने वसतः यतिरूपस्यार्जुतस्य रैवतकपर्वतात्प्रतिनिवृत्तैर्यादवैर्दर्शनम्।। 1 ।।
यतिनिवासविषये यादवै पृष्टे सुभद्रागृहे वसत्विति रामोक्तिः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-240-1x |
चैराः संचारिते तस्मिन्ननुज्ञाते युधिष्ठिरे। वासुदेवाभ्यनुज्ञातः कथयित्वेतिकृत्यताम्।। | 1-240-1a 1-240-1b |
कृष्णस्य मतमास्थाय प्रययौ भरतर्षभः। द्वारकाया उपवने तस्थौ वै कार्यसाधनः।। | 1-240-2a 1-240-2b |
निवृत्ते ह्युत्सवे तस्मिन्गिरौ रैवतके तदा। वृष्णयोऽप्यगमन्सर्वे पुरीं द्वारवतीमनु।। | 1-240-3a 1-240-3b |
चिन्तयानस्ततो भद्रामुपविष्टः शिलातले। रमणीये वनोद्देशे बहुपादपसंवृते।। | 1-240-4a 1-240-4b |
सालतालाश्वकर्णैश्च बकुलैरर्जुनैस्तथा। चम्पकाशोकपुन्नागैः केतकैः पाटलैस्तथा।। | 1-240-5a 1-240-5b |
कर्णिकारैरशोकैश्च अङ्कोलैरतिमुक्तकैः। एवमादिभिरन्यैश्च संवृते स शिलातले।। | 1-240-6a 1-240-6b |
पुनःपुनश्चिन्तयानः सुभद्रां भद्रभाषिणीम्। यदृच्छया चोपपन्नान्वृष्णिवीरान्ददर्श सः।। | 1-240-7a 1-240-7b |
बलदेवं च हार्दिक्यं साम्बं सारणमेव च। प्रद्युम्नं च गदं चैव चारुदेष्णं विदूरथम्।। | 1-240-8a 1-240-8b |
भानुं च हरितं चैव विपृथुं पृथुमेव च। तथान्यांश्च बहून्पश्यन्हृदि शोकमधारयत्।। | 1-240-9a 1-240-9b |
ततस्ते सहिताः सर्वे यतिं दृष्ट्वा समुत्सुकाः। वृष्णयो विनयोपेताः परिवार्योपतस्थिरे।। | 1-240-10a 1-240-10b |
ततोऽर्जुनः प्रीतमनाः स्वागतं व्याजहार सः। आस्यतामास्यतां सर्वै रमणीये शिलातले।। | 1-240-11a 1-240-11b |
इत्येवमुक्ता यतिना प्रीतास्ते यादवर्षभाः। उपोपविविशुः सर्वे ते स्वागतमिति ब्रुवन्।। | 1-240-12a 1-240-12b |
परितः सन्निविष्टेषु वृष्णिवीरेषु पाण्डवः। आकारं गूहमानस्तु कुशलप्रश्नमब्रवीत्।। | 1-240-13a 1-240-13b |
सर्वत्र कुशलं चोक्त्वा बलदेवोऽब्रवीदिदम्। प्रसादं कुरु मे विप्र कुतस्त्वं चागतो ह्यसि।। | 1-240-14a 1-240-14b |
त्वया दृष्टानि पुण्यानि वद त्वं वदतांवर। पर्वतांश्चैव तीर्थानि वनान्यायतनानि च।। | 1-240-15a 1-240-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-240-16x |
तीर्थानां दर्शनं चैव पर्वतानां च भारत। आपगानां वनानां च कथयामास ताः कथाः।। | 1-240-16a 1-240-16b |
श्रुत्वा धर्मकथाः पुण्या वृष्णिवीरा मुदान्विताः। अपूजयंस्तदा भिक्षुं कथान्ते जनमेजय।। | 1-240-17a 1-240-17b |
ततस्तु यादवाः सर्वे मन्त्रयन्ति स्म भारत। अयं देशातिथिः श्रीमान्यतिलिङ्गधरो द्विजः।। | 1-240-18a 1-240-18b |
आवासं कमुपाश्रित्य वसेत निरुपद्रवः। इत्येवं प्रब्रुवन्तस्तु रौहिणेयं च यादवाः।। | 1-240-19a 1-240-19b |
ददृशुः कृष्णमायान्तं सर्वे यादवनन्दनम्। एहि केशव तातेति रौहिणेयो वचोऽब्रवीत्।। | 1-240-20a 1-240-20b |
यतिलिङ्गधरो विद्वान्देशातिथिरयं द्विजः। वर्षमासनिवासार्थमागतो नः पुरं प्रति। स्थाने यस्मिन्निवसतु तन्मे ब्रूहि जनार्दन।। | 1-240-21a 1-240-21b 1-240-21c |
श्रीकृष्ण उवाच। | 1-240-22x |
त्वयि स्थिते महाभाग परवानस्मि धर्मतः। स्वयं तु रुचिरे स्थाने वासयेर्यदुनन्दन।। | 1-240-22a 1-240-22b |
प्रीतः स तेन वाक्येन परिष्वज्य जनार्दनम्। बलदेवोऽब्रवीद्वाक्यं चिन्तयित्वा महाबलः।। | 1-240-23a 1-240-23b |
आरामे तु वसेद्धीमांश्चतुरो वर्षमासकान्। कन्यागृहे सुभद्राया भुक्त्वा भोजनमिच्छया।। | 1-240-24a 1-240-24b |
लतागृहेषु वसतामिति मे धीयते मतिः। लब्धानुज्ञास्त्वया तात मन्यन्ते सर्वयादवाः।। | 1-240-25a 1-240-25b |
श्रीकृष्ण उवाच। | 1-240-26x |
बलवान्दर्शनीयश्च वाग्मी श्रीमान्बहुश्रुतः। कन्यापुरसमीपे तु न युक्तमिति मे मतिः।। | 1-240-26a 1-240-26b |
गुरुः शास्ता च नेता च शास्त्रज्ञो धर्मवित्तमः। त्वयोक्तं न विरुध्येहं करिष्यामि वचस्तव।। | 1-240-27a 1-240-27b |
शुभाशुभस्य विज्ञाता नान्योऽस्मि भुवि कश्चन।। | 1-240-28a |
बलदेव उवाच। | 1-240-29x |
अयं देशातिथिः श्रीमान्सर्वधर्मभृतां वरः। धृतिमान्विनयोपेतः सत्यबादी जितेन्द्रियः।। | 1-240-29a 1-240-29b |
यतिलिङ्गधरो ह्येष को विजानाति मानसम्। त्वमिमं पुण्डरीकाक्ष नीत्वा कन्यापुरं शुभम्।। | 1-240-30a 1-240-30b |
निवेदय सुभद्रायै मद्वाक्यपरिचोदितः। भक्ष्यैर्भोज्यैश्च पानैश्च अन्नैरिष्टैश्च पूजय।। | 1-240-31a 1-240-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि सुभद्राहरणपर्वणि चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 240 ।। |
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