महाभारतम्-01-आदिपर्व-247
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कृष्णानुमत्याऽर्जुनः सुभद्रां जहारेति पौराणामूहः।। 1 ।।
अर्जुने इन्द्रप्रस्थं प्राप्तं ज्ञात्वा यादवैः सह श्रीकृष्णस्य इन्द्रप्रस्थं प्रत्यागमनम्।। 2 ।।
आगताञ्श्रीकृष्णादीञ्श्रुत्वा युधिष्ठिरस्य प्रत्युद्गमनं तेषां सत्कारश्च।। 3 ।।
वैवाहिकमहोत्सवकरणम्।। 4 ।।
पारिबर्हदानम्।। 5 ।।
कंमचित्कालं तत्रोषितानां कुरुभिः पूजितानां बलरामादीनां द्वारकांप्रति गमनम्।। 6 ।।
अभिमन्यूत्पत्तिः।। 7 ।।
द्रौपद्याः युधिष्ठिरादिश्यः पञ्चपुत्रोत्पत्तिः तेषां विद्याश्यासश्च।। 8 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-247-1x |
अथ शुश्राव निर्वृत्ते वृष्णीनां परमोत्सवे। अर्जुनेन हृतां भद्रां शङ्खचक्रगदाधरः।। | 1-247-1a 1-247-1b |
पुरस्तादेव पौराणां संशयः समजायत। जानता वासुदेवेन वासितो भरतर्षभः।। | 1-247-2a 1-247-2b |
लोकस्य विदितं ह्यद्य पूर्वं विपृथुना यथा। सान्त्वयित्वाभ्यनुज्ञातो भद्रया सह सङ्गतः।। | 1-247-3a 1-247-3b |
दित्सता सोदरां तस्मै पतत्त्रिवरकेतुना। अर्हते पार्थिवेन्द्राय पार्थायायतलोचनाम्।। | 1-247-4a 1-247-4b |
सत्कृत्य पाण्डवश्रेष्ठं प्रेषयामास चार्जुनम्। भद्रया सह बीभत्सुः प्रापितो वृजिनं पुरम्।। | 1-247-5a 1-247-5b |
इति पौरजनाः सर्वे वदन्ति च समन्ततः।' श्रुत्वा तु पुण्डरीकाक्षः संप्राप्तं स्वपुरोत्तमम्।। | 1-247-6a 1-247-6b |
अर्जुनं पाण्डवश्रेष्ठमिन्द्रप्रस्थगतं तथा। `यियासुः खाण्डवप्रस्थममन्त्रयत केशवः।। | 1-247-7a 1-247-7b |
पूर्वं सत्कृत्य राजानमाहुकं मधुसूदनः। तथा विपृथुमक्रूरं संकर्षणविडूरथौ।। | 1-247-8a 1-247-8b |
मन्त्रयामास तैः सार्धं पुरस्तादभिमानितैः। संकर्षणेन संमन्त्र्य ह्यनुज्ञातो महामनाः।। | 1-247-9a 1-247-9b |
संप्रीतः प्रीयमाणेन वृष्णिराज्ञा जनार्दनः। अभिमन्त्र्याभ्यनुज्ञातो योजयामास वाहिनीम्।। | 1-247-10a 1-247-10b |
ततस्तु यानान्यासाद्य दाशार्हाणां यशस्विनाम्। सिंहनादः प्रहृष्टानां क्षणेन समपद्यत।। | 1-247-11a 1-247-11b |
योजयन्तः सदश्वांस्तु यानयुग्यं रथांस्तथा। गजांश्च परमप्रीतः समपद्यन्त वृष्णयः।।' | 1-247-12a 1-247-12b |
वृष्ण्यन्धकमहामात्रैः सह वीरैर्महारथैः। भ्रातृभिश्च कुमारैश्च योधैश्च शतशो वृतः।। | 1-247-13a 1-247-13b |
सैन्येन महता शौरिरभिगुप्तः समन्ततः। तत्र दानपतिः श्रीमाञ्जगाम स महायशाः।। | 1-247-14a 1-247-14b |
अक्रूरो वृष्णिवीराणां सेनापतिररिन्दमः। अनाधृष्टिर्महातेजा उद्धवश्च महायशाः।। | 1-247-15a 1-247-15b |
साक्षाद्वृहस्पतेः शिष्यो महाबुद्धिर्महामनाः। सत्यकः सात्यकिश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः।। | 1-247-16a 1-247-16b |
प्रद्युम्नश्चैव साम्बश्च निशङ्कुः शङ्कुरेव च। चारुदेष्णश्च विक्रान्तो झिल्ली विपृथुरेव च।। | 1-247-17a 1-247-17b |
सारणश्च महाबाहुर्गदश्च विदुषां वरः। एते चान्ये च बहवो वृष्णिभोजान्धकास्तथा।। | 1-247-18a 1-247-18b |
आजग्मः खाण्डवप्रस्थमादाय हरणं बहु। `उपहारं समादाय पृथुवृष्णिपुरोगमाः।। | 1-247-19a 1-247-19b |
प्रययुः सिंहनादेन सुभध्रामवलोककाः। ते त्वदीर्घेण कालेन कृष्णेन सह यादवाः। पुरमासाद्य पार्थानां परां प्रीतिमवाप्नुवन्।।' | 1-247-20a 1-247-20b 1-247-20c |
ततो युधिष्ठिरो सजा श्रुत्वा माघवमागतम्। प्रतिग्रहार्थं कृष्णस्य यमौ प्रास्थापयत्तदा।। | 1-247-21a 1-247-21b |
ताभ्यां प्रतिगृहीतं तु वृष्णिचक्रं महर्द्धिमत्। विवेश खाण्डवप्रस्थं पताकाध्वजशोभितम्।। | 1-247-22a 1-247-22b |
संमृष्टसिक्तपन्थानं पुष्पप्रकरशोभितम्। चन्दनस्य रसैः शीतैः पुम्यगन्धैर्निषेवितम्।। | 1-247-23a 1-247-23b |
दह्यताऽगुरुणा चैव देशे देशे सुगन्धिना। हृष्टपुष्टजनाकीर्णं वणिग्भिरुपशोभितम्।। | 1-247-24a 1-247-24b |
प्रतिपेदे महाबाहुः सह रामेण केशवः। वृष्ण्यन्धकैस्तथा भोजैः समेतः पुरुषोत्तमः।। | 1-247-25a 1-247-25b |
संपूज्यमानः पौरैश्च ब्राह्मणैश्च सहस्रशः। विवेश भवनं राज्ञः पुरन्दरगृहोपमम्।। | 1-247-26a 1-247-26b |
युधिष्ठिरस्तु रामेण समागच्छद्यथाविधि। मूर्ध्नि केशवमाघ्राय बाहुभ्यां परिषस्वजे।। | 1-247-27a 1-247-27b |
तं प्रीयमाणो गोविन्दो विनयेनाभिपूजयन्। भीमं च पुरुषव्याघ्रं विधिवत्प्रत्यपूजयत्।। | 1-247-28a 1-247-28b |
तांश्च वृष्ण्यन्धकश्रेष्ठान्कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। प्रतिजग्राह सत्कारैर्यथाविधि यथागतम्।। | 1-247-29a 1-247-29b |
गुरुवत्पूजयामास कांश्चित्कांश्चिद्वयस्यवत्। कांश्चिदभ्यवदत्प्रेम्णा कैश्चिदप्यभिवादितः।। | 1-247-30a 1-247-30b |
`ततः पृथा च पार्थाश्च मुदिताः कृष्णया सह। पुण्डरीकाक्षमासाद्य बभूवुर्मुदितेन्द्रियाः।। | 1-247-31a 1-247-31b |
हर्षादभिगतौ दृष्ट्वा संकर्षणजनार्दनौ। बन्धुमन्तं पृथा पार्थं युधिष्ठिरममन्यत।। | 1-247-32a 1-247-32b |
ततः सङ्कर्षणाक्रूरावप्रमेयावदीनवत्। भद्रवत्यै सुभद्रायै धनौघमुपजह्रतुः।। | 1-247-33a 1-247-33b |
प्रवालानि च हाराणि भूषणानि सहस्रशः। कुथास्तरपरिस्तोमान्व्याघ्राजिनपुरस्कृतान्।। | 1-247-34a 1-247-34b |
विविधैश्चैव रंत्नौगैर्दीप्तप्रभमजायत। शयनासनयानैश्च युधिष्ठिरनिवेशनम्।। | 1-247-35a 1-247-35b |
ततः प्रीतिकरो यूनां विवाहपरमोत्सवः। भद्रवत्यै सुभद्रायै सप्तरात्रमवर्तत।।' | 1-247-36a 1-247-36b |
तेषां ददौ हृषीकेशो जन्यार्थे धनमुत्तमम्। हरणं वै सुभद्राया ज्ञातिदेयं महायशाः।। | 1-247-37a 1-247-37b |
रथानां काञ्चनाङ्गानां किङ्किणीजालमालिनाम्। चतुर्युजामुपेतानां सूतैः कुशलशिक्षितैः।। | 1-247-38a 1-247-38b |
सहस्रं प्रददौ कृष्मो गवामयुतमेव च। श्रीमान्माथुरदेश्यानां दोग्ध्रीणां पुण्यवर्चसाम्।। | 1-247-39a 1-247-39b |
बडवानां च शुद्धानां चन्द्रांशुसमवर्चसाम्। ददौ जनार्दनः प्रीत्या सहस्रं हेमभूषितम्।। | 1-247-40a 1-247-40b |
तथैवाश्वतरीणां च दान्तानां वातरंहसाम्। शतान्यञ्जनकेशीनां श्वेतानां पञ्चपञ्च च।। | 1-247-41a 1-247-41b |
स्नानपानोत्सवे चैव प्रयुक्तं वयसान्वितम्। स्त्रीणां सहस्रं गौरीणां सुवेषाणां सुवर्चसाम्।। | 1-247-42a 1-247-42b |
सुवर्णशतकण्ठीनामरोमाणां स्वलङ्कृताम्। परिचर्यासु दक्षाणां प्रददौ पुष्करेक्षणः।। | 1-247-43a 1-247-43b |
पृष्ठ्यानामपि चाश्वानां बाह्लिकानां जनार्दनः। ददौ शतसहस्राख्यं कन्याधनमनुत्तमम्।। | 1-247-44a 1-247-44b |
कृताकृतस्य मुख्यस्य कनकस्याग्निवर्चसः। मनुष्यभारान्दाशार्हो ददौ दश जनार्दनः।। | 1-247-45a 1-247-45b |
गजानां तु प्रभिन्नानां त्रिधा प्रस्रवतां मदम्। गिरिकूटनिकाशानां समरेष्वनिवर्तिनाम्।। | 1-247-46a 1-247-46b |
क्लृप्तानां पटुघण्टानां चारूणां हेममालिनाम्। हस्त्यारोहैरुपेतानां सहस्रं साहसप्रियः।। | 1-247-47a 1-247-47b |
रामः पाणिग्रहणिकं ददौ पार्थाय लाङ्गली। प्रीयमाणो हलधरः संबन्धं प्रति मानयन्।। | 1-247-48a 1-247-48b |
स महाधनरत्नौघो वस्त्रकम्बलफेनवान्। महागजमहाग्राहः पताकाशैवलाकुलः।। | 1-247-49a 1-247-49b |
पाण्डुसागरमाविद्धः प्रविवेश महाधनः। पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विषच्छोकावहोऽभवत्।। | 1-247-50a 1-247-50b |
प्रतिजग्राह तत्सर्वं धर्मराजो युधिष्टिरः। पूजयामास तांश्चैव वृष्ण्यन्धकमहारथान्।। | 1-247-51a 1-247-51b |
ते समेता महात्मानः कुरुवृष्ण्यन्धकोत्तमाः। विजह्रुरमरावासे नराः सुकृतिनो यथा।। | 1-247-52a 1-247-52b |
तत्रतत्र महानादैरुत्कृष्टतलनादितैः। यथायोगं यथाप्रीति विजह्रुः कुरुवृष्णयः।। | 1-247-53a 1-247-53b |
एवमुत्तमवीर्यास्ते विहृत्य दिवसान्बहून्। पूजिताः कुरुभिर्जग्मुः पुनर्द्वारवतीं प्रति।। | 1-247-54a 1-247-54b |
रामं पुरुस्कृत्य ययुर्वृष्म्यन्धकमहारथाः। रत्नान्यादाय शुभ्राणि दत्तानि कुरुसत्तमैः।। | 1-247-55a 1-247-55b |
`रामः सुभद्रां संपूज्य परिष्वज्य स्वसां तदा। न्यासेति द्रौपदीमुक्त्वा परिधाय महाबलः।। | 1-247-56a 1-247-56b |
पितृष्वसायाश्चरणावभिवाद्य ययौ तदा। तस्मिन्काले पृथा प्रीता पूजयामास तं तथा।। | 1-247-57a 1-247-57b |
स वृष्णिवीरः पार्थैश्च पौरैश्च परमार्चितः। ययौ द्वारवतीं रामो वृष्णिभिः सह संयुतः।। | 1-247-58a 1-247-58b |
वासुदेवस्तु पार्थेन तत्रैव सह भारत। `चतुस्त्रिंशदहोरात्रं रममाणो महाबलः।' उवास नगरे रम्ये शक्रप्रस्थे महात्मना।। | 1-247-59a 1-247-59b 1-247-59c |
व्यचरद्यमुनातीरे मृगयां स महायशाः। मृगान्विध्यन्वराहांश्च रेमे सार्धं किरीटिना।। | 1-247-60a 1-247-60b |
ततः सुभद्रा सौभद्रं केशवस्य प्रिया स्वसा। जयन्तमिव पौलोमी ख्यातिमन्तमजीजनत्।। | 1-247-61a 1-247-61b |
दीर्घबाहुं महोरस्कं वृषभाक्षमरिन्दमम्। सुभद्रा सुषुवे वीरमभिमन्युं नरर्षभम्।। | 1-247-62a 1-247-62b |
अभीश्च मन्युमांश्चैव ततस्तमरिमर्दनम्। अभिमन्युरिति प्राहुरार्जुनिं पुरुषर्षभम्।। | 1-247-63a 1-247-63b |
स सात्वत्यामतिरथः संबभूव धनञ्जयात्। मखे निर्मथनेनेव शमीगर्भाद्धुताशनः।। | 1-247-64a 1-247-64b |
यस्मिञ्जाते महातेजाः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। अयुतं गा द्विजातिभ्यः प्रादान्निष्कांश्च भारत।। | 1-247-65a 1-247-65b |
दयितो वासुदेवस्य बाल्यात्प्रभृति चाभवत्। पितॄणां चैव सर्वेषां प्रजानामिव चन्द्रमाः।। | 1-247-66a 1-247-66b |
जन्मप्रभृति कृष्णश्च चक्रे तस्य क्रियाः शुभाः। स चापि ववृधे बालः शुक्लपक्षे यथा शशी।। | 1-247-67a 1-247-67b |
चतुष्पादं दशविधं धनुर्वेदमरिन्दमः। अर्जुनाद्वेद वेदज्ञः सकलं दिव्यमानुषम्।। | 1-247-68a 1-247-68b |
विज्ञानेष्वपि चास्त्राणां सौष्ठवे च महाबलः। क्रियास्वपि च सर्वासु विशेषानभ्यशिक्षयत्।। | 1-247-69a 1-247-69b |
आगमे च प्रयोगे च चक्रे तुल्यमिवात्मना। तुतोष पुत्रं सौभद्रं प्रेक्षमाणो धनञ्जयः।। | 1-247-70a 1-247-70b |
सर्वसंहननोपेतं सर्वलक्षणलक्षितम्। दुर्धर्षमृषभस्कन्धं व्यात्ताननमिवोरगम्।। | 1-247-71a 1-247-71b |
सिंहदर्पं महेष्वासं मत्तमातङ्गविक्रमम्। मेघदुन्दुभिनिर्घोषं पूर्णचन्द्रनिभाननम्।। | 1-247-72a 1-247-72b |
कृष्णस्य सदृशं शौर्ये वीर्ये रूपे तथाऽऽकृतौ। ददर्श पुत्रं बीभत्सुर्मघवानिव तं यथा।। | 1-247-73a 1-247-73b |
पाञ्चाल्यपि तु पञ्चभ्यः पतिभ्यः शुभलक्षणा। लेभे पञ्च सुतान्वीराञ्श्रेष्ठान्पञ्चाचलानिव।। | 1-247-74a 1-247-74b |
युधिष्ठिरात्प्रतिविन्ध्यं सुतसोमं वृकोदरात्। अर्जुनाच्छ्रुतकर्माणं शतानीकं च नाकुलिम्।। | 1-247-75a 1-247-75b |
सहदेवाच्छ्रुतसेनमेतान्पञ्च महारथान्। पाञ्चाली सुषुवे वीरानादित्यानदितिर्यथा।। | 1-247-76a 1-247-76b |
शास्त्रतः प्रतिविन्ध्यन्तमूचुर्विप्रायुधिष्ठिरम्। परप्रहरणज्ञाने प्रतिविन्ध्यो भत्वयम्।। | 1-247-77a 1-247-77b |
सुतेसोमसहस्रे तु सोमार्कसमतेजसम्। सुतसोमं महेष्वासं सुषुवे भीमसेनतः।। | 1-247-78a 1-247-78b |
श्रुतं कर्म महत्कृत्वा निवृत्तेन किरीटिना। जातः पुत्रस्तथेत्येवं श्रुतकर्मा ततोऽभवत्।। | 1-247-79a 1-247-79b |
शतानीकस्य राजर्षेः कौरव्यस्य महात्मनः। चक्रे पुत्रं सनामानं नकुलः कीर्तिवर्धनम्।। | 1-247-80a 1-247-80b |
ततस्त्वजीजनत्कृष्णा नक्षत्रे वह्निदैवते। सहदेवात्सुतं तस्माच्छ्रुतसेनेति तं विदुः।। | 1-247-81a 1-247-81b |
एकवर्षान्तरास्त्वेते द्रौपदेया यशस्विनः। अन्वजायन्त राजेन्द्र परस्परहितैषिणः।। | 1-247-82a 1-247-82b |
जातकर्माण्यानुपूर्व्याच्चूडोपनयनानि च। चकार विधिवद्धौम्यस्तेषां भरतसत्तम।। | 1-247-83a 1-247-83b |
कृत्वा च वेदाध्ययनं ततः सुचरितव्रताः। जगृहुः सर्वमिष्वस्त्रमर्जुनाद्दिव्यमानुषम्।। | 1-247-84a 1-247-84b |
दिव्यगर्भोपमैः पुत्रैर्व्यूढोरस्कैर्महारथैः। अन्विता राजशार्दूल पाण्डवा मुदमाप्नुवन्।। | 1-247-85a 1-247-85b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि | |
।। समाप्तं च हरणाहरणपर्व ।। |
1-247-43 अरोगाणां स्वलङ्कृतां इति ख. पाठः।।
1-247-74 धरा पञ्च गणानिव। इति ङ पाठः।। 1-247-77 परप्रहरणज्ञाने शत्रुकृतप्रहारवेदनायां विध्य इव निर्विज्ञान इति प्रतिविन्ध्यः।। सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 247 ।।
आदिपर्व-246 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-248 |