महाभारतम्-01-आदिपर्व-138
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पुनर्भीमाय विषमिश्रभक्ष्यदानम्।। 1 ।।
शूलकीलितायां शमाणकोट्यां पुनर्भीमसेनस्य पातनम्।। 2 ।।
पाताललोकं प्राप्तस्य भीमस्य वासुकिदत्तरसपानम्।। 3 ।।
`वैशंपायन उवाच। | 1-138-1x |
ततस्ते मन्त्रयामासुर्दुर्योधनपुरोगमाः। प्राणवान्विक्रमी चापि शौर्ये च महति स्थितः।। | 1-138-1a 1-138-1b |
स्पर्धते चापि सततमस्मानेव वृकोदरः। तं तु सुप्तं पुरोद्याने जले शूले क्षिपामहे।। | 1-138-2a 1-138-2b |
ततो जलविहारार्थं कारयामास भारत। प्रमाणकोट्यामुद्देशे स्थलं किंचिदुपेत्य ह।।' | 1-138-3a 1-138-3b |
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च चोष्यं लेह्यमथापि च। उपपादितं नरैस्तत्र कुशलैः सूदकर्मणि।। | 1-138-4a 1-138-4b |
न्यवेदयंस्तत्पुरुषा धार्तराष्ट्राय वै तदा। ततो दुर्योधनस्तत्र पाण्डवानाह दुर्मतिः।। | 1-138-5a 1-138-5b |
गङ्गां चैवानुयास्याम उद्यानवनशोभिताम्। सहिता भ्रातरः सर्वे जलक्रीडामवाप्नुमः।। | 1-138-6a 1-138-6b |
एवमस्त्विति तं चापि प्रत्युवाच युधिष्ठिरः। ते रथैर्नगराकारैर्देशजैश्च गजोत्तमैः।। | 1-138-7a 1-138-7b |
निर्ययुर्नगराच्छूराः कौरवाः पाण्डवैः सह। उद्यानवनमासाद्य विसृज्य च महाजनम्।। | 1-138-8a 1-138-8b |
विशन्ति स्म तदा वीराः सिंहा इव गिरेर्गुहाम्। उद्यानमभिपश्यन्तो भ्रातरः सर्व एव ते।। | 1-138-9a 1-138-9b |
उपस्थानगृहैः शुभ्रैर्वलभीभिश्च शोभितम्। गवाक्षकैस्तथा जालैर्यन्त्रैः सांचारिकैरपि।। | 1-138-10a 1-138-10b |
संमार्जितं सौधकारैश्चित्रकारैश्च चित्रितम्। दीर्घिकाभिश्च पूर्णाभिस्तथा पुष्करिणीषु च।। | 1-138-11a 1-138-11b |
जलं तच्छुशुभे च्छन्नं फुल्लैर्जलरुहैस्तथा। उपच्छन्ना वसुमती तथा पुष्पैर्यथर्तुकैः।। | 1-138-12a 1-138-12b |
तत्रोपविष्टास्ते सर्वे पाण्डवाः कौरवाश्च ह। उपच्छन्नान्बहून्कामांस्ते भुञ्जन्ति ततस्ततः।। | 1-138-13a 1-138-13b |
अथोद्यानवरे तस्मिंस्तथा क्रीडागताश्चते। परस्परस्य वक्त्रेषु ददुर्भक्ष्यांस्ततस्ततः।। | 1-138-14a 1-138-14b |
ततो दुर्योधनः पापस्तद्भक्ष्ये कालकूटकम्। विषं प्रक्षेपयामास भीमसेनजिघांसया।। | 1-138-15a 1-138-15b |
स्वयमुत्थाय चैवाथ हृदयेन क्षुरोपमः। स वाचाऽमृतकल्पश्च भ्रातृवच्च सुहृद्यथा।। | 1-138-16a 1-138-16b |
स्वयं प्रक्षिपते भक्ष्यं बहु भीमस्य पाकृत्। प्रभक्षितं च भीमेन तं वै दोषमजानता।। | 1-138-17a 1-138-17b |
ततो दुर्योधनस्तत्र हृदयेन हसन्निव। कृतकृत्यमीवात्मानं मन्यते पुरुषाधमः।। | 1-138-18a 1-138-18b |
ततस्ते सहिताः सर्वे जलक्रीडामकुर्वत। पाण्डवा धार्तराष्ट्राश्च तदा मुदितमानसाः।। | 1-138-19a 1-138-19b |
विहारावसथेष्वेव वीरा वासमरोचयन्। भीमस्तु बलवान्भुक्त्वा व्यायामाभ्यधिकं जले।। | 1-138-20a 1-138-20b |
वाहयित्वा कुमारांस्ताञ्जलक्रीडागतांस्तदा। प्रमाणकोट्यां वासार्थी सुष्वापावाप्य तत्स्थलम्।। | 1-138-21a 1-138-21b |
शीतं वातं समासाद्य श्रान्तो मदविमोहितः। विषेण च परीताङ्गो निश्चेष्टः पाण्डुनन्दनः।। | 1-138-22a 1-138-22b |
ततो बद्ध्वा लतापाशैर्भीमं दुर्योधनः स्वयम्। `शूलान्यप्सु निखायाशु प्रादेशाभ्यन्तराणि च।। | 1-138-23a 1-138-23b |
लतापाशैर्दृढं बद्धं स्थलाज्जलमपातयत्। सशेषत्वान्न संप्राप्तो जले शूलिनि पाण्डवः।। | 1-138-24a 1-138-24b |
पपात यत्र तत्रास्य शूलं नासीद्यदृच्छया।' स निःसंज्ञो जलस्यान्तमवाग्वै पाण्डवोऽविशत्। आक्रामन्नागभवने तदा नागकुमारकान्।। | 1-138-25a 1-138-25b 1-138-25c |
ततः समेत्य बहुभिस्तदा नागैर्महाविषैः। अदश्यत भृशं भीमो महादंष्ट्रैर्विपोल्बणैः।। | 1-138-26a 1-138-26b |
ततोऽस्य दश्यमानस्य तद्विषं कालकूटकम्। हतं सर्पविषेणैव स्थावरं जङ्गमेन तु।। | 1-138-27a 1-138-27b |
दंष्ट्राश्च दंष्ट्रिणां तेषां मर्मस्वपि निपातिताः। त्वचं नैवास्य बिभिदुः सारत्वात्पृथुवक्षसः।। | 1-138-28a 1-138-28b |
ततः प्रबुद्धः कौन्तेयः सर्वं संछिद्य बन्धनम्। पोथयामास तान्सर्पान्केचिद्भीताः प्रदुद्रुवुः।। | 1-138-29a 1-138-29b |
हतावशेषा भीमेन सर्वे वासुकिमभ्ययुः। ऊचुश्च सर्पराजानं वासुकिं वासवोपमम्।। | 1-138-30a 1-138-30b |
अयं नरो वै नागरेन्द्र ह्यप्सु बद्ध्वा प्रवेशितः। यथा च नो मतिर्वीर विषपीतो भविष्यति।। | 1-138-31a 1-138-31b |
निश्चेष्टोऽस्माननुप्राप्तः स च दष्टोऽन्वबुध्यत। ससंज्ञश्चापि संवृत्तश्छित्त्वा बन्धनमाशु नः।। | 1-138-32a 1-138-32b |
पोथयन्तं महाबाहुं त्वं वै तं ज्ञातुमर्हसि। ततो वासुकिरभ्येत्य नागैनुगतस्तदा।। | 1-138-33a 1-138-33b |
पश्यति स्म महाबाहुं भीमं भीमपराक्रमम्। आर्यकेण च दृष्टः स पृथाया आर्यकेण च।। | 1-138-34a 1-138-34b |
तदा दौहित्रदौहित्रः परिष्वक्तः सुपीडितम्। सुप्रीतश्चाभवत्तस्य वासुकिः स महायशाः।। | 1-138-35a 1-138-35b |
अब्रवीत्तं च नागेन्द्रः किमस्य क्रियतां प्रियम्। धनौघो रत्ननिचयो वसु चास्य प्रदीयताम्।। | 1-138-36a 1-138-36b |
एवमुक्तस्तदा नागो वासुकिं प्रत्यभाषत। यदि नागेन्द्र तुष्टोऽसि किमस्य धनसंचयैः।। | 1-138-37a 1-138-37b |
रसं पिबेत्कुमारोऽयं त्वयि प्रीते महाबलः। बलं नागसहस्रस्य यस्मिन्कुण्डे प्रतिष्ठितम्।। | 1-138-38a 1-138-38b |
यावत्पिबति बालोऽयं तावदस्मै प्रदीयताम्। एवमस्त्विति तं नागं वासुकिः प्रत्यभाषत।। | 1-138-39a 1-138-39b |
ततो भीमस्तदा नागैः कृतस्वस्त्ययनः शुचिः। प्राङ्मुखश्चोपविष्टश्च रसं पिबति पाण्डवः।। | 1-138-40a 1-138-40b |
एकोच्छ्वासात्ततः कुण्डं पिबति स्म महाबलः। एवमष्टौ स कुण्डानि ह्यपिबत्पाण्डुनन्दनः।। | 1-138-41a 1-138-41b |
ततस्तु शयने दिव्ये नागदत्ते महाभुजः। अशेत भीमसेनस्तु यथासुखमरिंदमः।। | 1-138-42a 1-138-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 138 ।। |
1-138-10 उपस्थानगृहैः यत्र राजानं कार्यिणः शूराश्चोपतिष्ठन्ति तैर्गृहैः। वलभीभिरुभयतो नमत्पक्षाभिः स्तम्भशालाभिः। यन्त्रैर्जलयन्त्रैः शतधारादिभिः। यतो युगपच्छतं धारा उच्छलन्त्यो नीहारीभूय भवनोदरं व्याप्नुवन्ति। सांचारिकैः संचारयोग्यैः।। 1-138-11 दीर्घिकाभिः कुल्याभिः।। 1-138-13 उपच्छन्नानुपागतान्।। 1-138-31 विषपीतः पीतविषः।। 1-138-34 आर्यकेण नागराजेन। पृथाया आयकेण मातामहेन। कुन्तिभोजद्वारायं संबन्ध इति गम्यते।। 1-138-35 दौहित्रदौहित्र इति त्वार्यकनागस्य दौहित्रः शूरस्तद्दौहित्रो भीम इत्यविरुद्धमेतत्। अन्ये तु शूरमातामह एवोपचारात कुन्तीमातामहोऽपीत्याहुः।। 1-138-38 रसं साधितपारदम्।। अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 138 ।।
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