महाभारतम्-01-आदिपर्व-052
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अग्नौ सर्पपतनम्।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-52-1x |
ततः कर्म प्रववृते सर्पसत्रविधानतः। पर्यक्रामंश्च विदिवत्स्वे स्वे कर्मणि याजकाः।। | 1-52-1a 1-52-1b |
प्रावृत्य कृष्णवासांसि धूम्रसंरक्तलोचनाः। जुहुवुर्मन्त्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम्।। | 1-52-2a 1-52-2b |
कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणां मनांसि च। सर्पानाजुहुवुस्तत्र सर्वानग्निमुखे तदा।। | 1-52-3a 1-52-3b |
ततः सर्पाः समापेतुः प्रदीप्ते हव्यवाहने। विचेष्टमानाः कृपणमाह्वयन्तः परस्परम्।। | 1-52-4a 1-52-4b |
विस्फुरन्तः श्वसन्तश्च वेष्टयन्तः परस्परम्। पुच्छैः शिरोभिश्च भृशं चित्रभानुं प्रपेदिरे।। | 1-52-5a 1-52-5b |
श्वेताः कृष्णाश्च नीलाश्च स्थविराः शिशवस्तथा। नदन्तो विविधान्नादान्पेतुर्दीप्ते विभावसौ।। | 1-52-6a 1-52-6b |
क्रोशयोजनमात्रा हि गोकर्णस्य प्रमाणतः। पतन्त्यजस्रं वेगेन वह्नावग्निमतां वर।। | 1-52-7a 1-52-7b |
एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। अवशानि विनष्टानि पन्नगानां तु तत्र वै।। | 1-52-8a 1-52-8b |
तुरगा इव तत्रान्ये हस्तिहस्ता इवापरे। मत्ता इव च मातङ्गा महाकाया महाबलाः।। | 1-52-9a 1-52-9b |
उच्चावचाश्च बहवो नानावर्णा विषोल्बणाः। घोराश्च परिघप्रख्या दन्दशूका महाबलाः। प्रपेतुरग्नावुरगा मातृवाग्दण्डपीडिताः।। | 1-52-10a 1-52-10b 1-52-10c |
।। इति श्रीमन्माहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 52 ।। |
1-52-1 पर्यक्रामन् पराक्रान्तवन्तः।। 1-52-2 मन्त्रवन्मन्त्रयुक्तं यथा स्यात्तथा।। 1-52-3 आजुहुवुः आहूतवन्तः।। 1-52-5 चित्रभानुमग्निम्।। 1-52-7 प्रमाणतः प्रमाणं प्राप्य।। द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 52 ।।
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