महाभारतम्-01-आदिपर्व-117
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माण्डव्यं ऋषिं ज्ञात्वा भीतेन राज्ञा तस्य शूलाद्विमोक्षणम्।। 1 ।।
अणीमाण्डव्यस्य यमेन विवादः।। 2 ।।
माण्डव्यं न यमस्य शापः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-117-1x |
ततः स मुनिशार्दूलस्तानुवाच तपोधनान्। दोषतः कं गमिष्यामि न हि मेऽन्योपराध्यति।। | 1-117-1a 1-117-1b |
तं दृष्ट्वा रक्षिणस्तत्र तथा बहुतिथेऽहनि। न्यवेदयंस्तथा राज्ञे यथावृत्तं नराधिप।। | 1-117-2a 1-117-2b |
राजा च तमृषिं श्रुत्वा निष्क्रम्य सह मन्त्रिभिः। प्रसादयामास तदा शूलस्थमृषिसत्तमम्।। | 1-117-3a 1-117-3b |
प्रजोवाच। | 1-117-4x |
यन्मयाऽपकृतं मोहादज्ञानादृषिसत्तम। प्रसादये त्वां तत्राहं न मे त्वं क्रोद्धुमर्हसि।। | 1-117-4a 1-117-4b |
वैशंपायन उवाच। | 1-117-5x |
एवमुक्तस्ततो राज्ञा प्रसादमकरोन्मुनिः। कृतप्रसादं राजा तं ततः समवतारयत्।। | 1-117-5a 1-117-5b |
अवतार्य च शूलाग्रात्तच्छूलं निश्चकर्ष ह। अशक्नुवंश्च निष्क्रष्टुं शूलं मूले स चिच्छिदे।। | 1-117-6a 1-117-6b |
स तथान्तर्गतेनैव शूलेन व्यचरन्मुनिः। कण्ठपार्श्वान्तरस्थेन शङ्कुना मुनिराचत्। पुष्पभाजनधारी स्यादिति चिन्तापरोऽभवत्।।' | 1-117-7a 1-117-7b 1-117-7c |
स चातितपसा लोकान्विजिग्ये दुर्लभान्परैः।। | 1-117-8a |
अणीमाण्डव्य इति च ततो लोकेषु गीयते। स गत्वा सदनं विप्रो धर्मस्य परमार्थवित्।। | 1-117-9a 1-117-9b |
आसनस्थं ततो धर्मं दृष्ट्वोपालभत प्रभुम्। किं नु तद्दुष्कृतं कर्म मया कृतमजानता।। | 1-117-10a 1-117-10b |
यस्येयं फलनिर्वृत्तिरीदृश्यासादिता मया। शीघ्रमाचक्ष्व मे तत्त्वं पश्य मे तपसो बलम्।। | 1-117-11a 1-117-11b |
धर्म उवाच। | 1-117-12x |
पतङ्गिकानां पुच्छेषु त्वयेषीका प्रवेशिता। कर्मणस्तस्य ते प्राप्तं फलमेतत्तपोधन।। | 1-117-12a 1-117-12b |
स्वल्पमेव यथा दत्तं दानं बहुगुणं भवेत्। अधर्म एवं विप्रर्षे बहुदुःखफलप्रदः।। | 1-117-13a 1-117-13b |
अणीमाण्डव्य उवाच। | 1-117-14x |
कस्मिन्काले मया तत्तु कृतं ब्रूहि यथातथम्। तेनोक्तं धर्मराजेन बालभावे त्वया कृतम्।। | 1-117-14a 1-117-14b |
अणीमाण्डव्य उवाच। | 1-117-15x |
बालो हि द्वादशाद्वर्षाज्जन्मतो यत्करिष्यति। न भविष्यत्यधर्मोऽत्र न प्रज्ञास्यति वै दिशः।। | 1-117-15a 1-117-15b |
अल्पेऽपराधेऽपि महान्मम दण्डस्त्वया धृतः। गरीयान्ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधादपि।। | 1-117-16a 1-117-16b |
शूद्रयोनावतो धर्म मानुषः संभविष्यसि। मर्यादां स्थापयाम्यद्य लोके कर्मफलोदयाम्।। | 1-117-17a 1-117-17b |
आ चतुर्दशकाद्वर्षान्न भविष्यति पातकम्। परतः कुर्वतामेव दोष एव भविष्यति।। | 1-117-18a 1-117-18b |
वैशंपायन उवाच। | 1-117-19x |
एतेन त्वपराधेन शापात्तस्य महात्मनः। धर्मो विदुररूपेण शूद्रयोनावजायत।। | 1-117-19a 1-117-19b |
धर्मे चार्थे च कुशलो लोभक्रोधविवर्जितः। दीर्घदर्शी शमपरः कुरूणां च हिते रतः।। | 1-117-20a 1-117-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117 ।। |
1-117-1 दोषतः कंगमिष्यामि न कमपि दोषिणं कथयामि। स्वकृतमे भुञ्जे इत्यर्थः।। 1-117-9 अणी शूलाग्रं तद्युक्तो माण्डव्यः।। 1-117-10 उपालभत गर्हितवान्।। 1-117-15 दिशो देशनाः धर्मशास्त्राणि यतो न प्रज्ञास्यति बालत्वात्।। 1-117-16 ब्राह्मणवधो ब्राह्मणपीडनम्।। 1-117-20 दीर्घदर्शी सर्वकालपरामर्शी। शमपरो निर्वैरः।। सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117 ।।
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