महाभारतम्-01-आदिपर्व-013
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आस्तीकजरत्कार्वोराख्यानं।। 1 ।। जरत्कारोस्तत्पितॄणां च संवादः।। 2 ।।
शौनक उवाच। | 1-13-1x |
किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः। सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद्वदस्व मे।। | 1-13-1a 1-13-1b |
निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः। आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः।। | 1-13-2a 1-13-2b |
मोक्षयामास भुजगान्प्रदीप्ताद्वसुरेतसः। कस्य पुत्रः स राजासीत्सर्पसत्रं य आहरत्।। | 1-13-3a 1-13-3b |
स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे। | 1-13-4a |
सौतिरुवाच। | 1-13-4x |
महदाक्यानमास्तीकं यथैतत्प्रोच्यते द्विज।। | 1-13-4b |
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर। | 1-13-5a |
शौनक उवाच। | 1-13-5x |
श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम्।। | 1-13-5b |
आस्तीकस्य पुराणर्षेर्ब्राह्मणस्य यशस्विनः। | 1-13-6a |
सौतिरुवाच। | 1-13-6x |
इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते।। | 1-13-6b |
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु। पूर्वं प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः।। | 1-13-7a 1-13-7b |
शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान्। तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम्।। | 1-13-8a 1-13-8b |
इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते। कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम्।। | 1-13-9a 1-13-9b |
आस्तीकस्य पिता ह्यासीत्प्रजापतिसमः प्रभुः। ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा।। | 1-13-10a 1-13-10b |
जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महातपाः। यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः।। | 1-13-11a 1-13-11b |
स कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः। चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः।। | 1-13-12a 1-13-12b |
तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः। चरन्दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः।। | 1-13-13a 1-13-13b |
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः। इतस्ततः परिचरन्दीप्तपावकसप्रभः।। | 1-13-14a 1-13-14b |
अटमानः कदाचित्स्वान्स ददर्श पितामहान्। लम्बमानान्महागर्ते पादैरूर्ध्वैरवाङ्मुखान्।। | 1-13-15a 1-13-15b |
तानब्रवीत्स दृष्ट्वै जरत्कारुः पितामहान्। के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः।। | 1-13-16a 1-13-16b |
वीरणस्तम्भके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते। मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन्नित्यवासिना।। | 1-13-17a 1-13-17b |
पितर ऊचुः। | 1-13-18x |
यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः। संतानप्रक्षयाद्ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम्।। | 1-13-18a 1-13-18b |
अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः। मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एकं समास्थितः।। | 1-13-19a 1-13-19b |
न स पुत्राञ्जनयितुं दारान्मूढश्चिकीर्षति। तेन लम्बामहे गर्ते संतानस्य क्षयादिह।। | 1-13-20a 1-13-20b |
अनाथास्तेन नाथेन यथा दुष्कृतिनस्तथा। `येषां तु संततिर्नास्ति मर्त्यलोके सुखावहा।। | 1-13-21a 1-13-21b |
न ते लभन्ते वसतिं स्वर्गे पुण्यकृतोऽपि हि।' कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम।। | 1-13-22a 1-13-22b |
ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन्को भवानिह नः स्थितः। किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम।। | 1-13-23a 1-13-23b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-13-24x |
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः। ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम्।। | 1-13-24a 1-13-24b |
पितर ऊचुः। | 1-13-25x |
यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः। आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो।। | 1-13-25a 1-13-25b |
न हि धर्मफलैस्तात न तपोऽभिः सुसंचितैः। तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै।। | 1-13-26a 1-13-26b |
तद्दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु। पुत्रकास्मन्नियोगात्त्वमेतन्नः परमं हितम्।। | 1-13-27a 1-13-27b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-13-28x |
न दारान्वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः। भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम्।। | 1-13-28a 1-13-28b |
समयेन च कर्ताऽहमनेन विधिपूर्वकम्। तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम्।। | 1-13-29a 1-13-29b |
सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः। भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः।। | 1-13-30a 1-13-30b |
दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः। प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित्प्रदास्यति।। | 1-13-31a 1-13-31b |
एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः। अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा।। | 1-13-32a 1-13-32b |
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै। शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम।। | 1-13-33a 1-13-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।। |
1-13-11 यायावराणां ग्रामैकरात्रवासिनां गृहस्थानां।। 1-13-12 सायंकालस्तत्रैव गृहमस्येति यत्रसायंगृहः।। 1-13-30 उपयंस्येपरिणेष्ये।। 30 ।। त्रयोदशोऽध्यायः।। 13 ।।
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