महाभारतम्-01-आदिपर्व-014
← आदिपर्व-013 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-014 वेदव्यासः |
आदिपर्व-015 → |
वासुकिभगिन्या जरत्कारोर्विवाहः।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-14-1x |
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः। महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत।। | 1-14-1a 1-14-1b |
स कदाचिद्वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन्। चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी [१]तिस्रो वाचः शनैरिव।। | 1-14-2a 1-14-2b |
तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा। न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन्।। | 1-14-3a 1-14-3b |
सनाम्नीं चोद्यतां भार्यां गृह्णीयामिति तस्य हि। मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः।। | 1-14-4a 1-14-4b |
तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः। किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम।। | 1-14-5a 1-14-5b |
वासुकिरुवाच। | 1-14-6x |
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम। प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम्। त्वदर्थं रक्षिता पूर्वं प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम।। | 1-14-6a 1-14-6b 1-14-6c |
सौतिरुवाच। | 1-14-7x |
एवमुक्त्वा ततः प्रादाद्भार्यार्थे वरवर्णिनीम्। स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 1-14-7a 1-14-7b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।। |
संपादित करें
1-14-1 निवेशाय दारसंग्रहाय।। चतुर्दशोऽध्यायः।। 14 ।।
आदिपर्व-013 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-015 |