महाभारतम्-01-आदिपर्व-058
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आस्तीकवरप्रदानेन यज्ञसमाप्तिः।। 1 ।। प्रत्यागतस्यास्तीकस्य सर्पेभ्यो वरलाभः।। 2 ।।
सौतिरुवाच। | 1-58-1x |
इदमत्यद्भुतं चान्यदास्तीकस्यानुशुश्रुम। तथा वरैश्छन्द्यमाने राज्ञा पारिक्षितेन हि।। | 1-58-1a 1-58-1b |
इन्द्रहस्ताच्च्युतो नागः ख एव यदतिष्ठत। ततश्चिन्तापरो राजा बभूव जनमेजयः।। | 1-58-2a 1-58-2b |
हूयमाने भृशं दीप्ते विधिवद्वसुरेतसि। न स्म स प्रापतद्वह्नौ तक्षको भयपीडितः।। | 1-58-3a 1-58-3b |
शौनक उवाच। | 1-58-4x |
किं सूत तेषां विप्राणां मन्त्रग्रामो मनीषिणाम्। न प्रत्यभात्तदाऽग्नौ यत्स पपात न तक्षकः।। | 1-58-4a 1-58-4b |
सौतिरुवाच। | 1-58-5x |
तमिन्द्रहस्ताद्वित्रस्तं विसंज्ञं पन्नगोत्तमम्। आस्तीकस्तिष्ठ तिष्ठेति वाचस्तिस्रोऽभ्युदैरयत्।। | 1-58-5a 1-58-5b |
वितस्थे सोऽन्तरिक्षे च हृदयेन विदूयता। यथा तिष्ठति वै कश्चित्खं च गां चान्तरा नरः।। | 1-58-6a 1-58-6b |
ततो राजाब्रवीद्वाक्यं सदस्यैश्चोदितो भृशम्। काममेतद्भवत्वेवं यथास्तीकस्य भाषितम्।। | 1-58-7a 1-58-7b |
समाप्यतामिदं कर्म पन्नगाः सन्त्वनामयाः। प्रीयतामयमास्तीकः सत्यं सूतवचोऽस्तु तत्।। | 1-58-8a 1-58-8b |
ततो हलहलाशब्दः प्रीतिजः समजायत। आस्तीकस्य वरे दत्ते तथैवोपरराम च।। | 1-58-9a 1-58-9b |
स यज्ञः पाण्डवेयस्य राज्ञः पारिक्षितस्य ह। प्रीतिमांश्चाभवद्राजा भारतो जनमेजयः।। | 1-58-10a 1-58-10b |
ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो ये तत्रासन्समागताः। तेभ्यश्च प्रददौ वित्तं शतशोऽथ सहस्रशः।। | 1-58-11a 1-58-11b |
लोहिताक्षाय सूताय तथा स्थपतये विभुः। येनोक्तं तस्य तत्राग्रे सर्पसत्रनिवर्तने।। | 1-58-12a 1-58-12b |
निमित्तं ब्राह्मण इति तस्मै वित्तं ददौ बहु। दत्त्वा द्रव्यं यथान्यायं भोजनाच्छादनान्वितम्।। | 1-58-13a 1-58-13b |
प्रीतस्तस्मै नरपतिरप्रमेयपराक्रमः। ततश्चकारावभृथं विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 1-58-14a 1-58-14b |
आस्तीकं प्रेषयामास गृहानेव सुसंस्कृतम्। राजा प्रीतमनाः प्रीतं कृतकृत्यं मनीषिणम्।। | 1-58-15a 1-58-15b |
पुनरागमनं कार्यमिति चैनं वचोऽब्रवीत्। भविष्यसि सदस्यो मे वाजिमेधे महाक्रतौ।। | 1-58-16a 1-58-16b |
तथेत्युक्त्वा प्रदुद्राव तदास्तीको मुदा युतः। कृत्वा स्वकार्यमतुलं तोषयित्वा च पार्थिवम्।। | 1-58-17a 1-58-17b |
स गत्वा परमप्रीतो मातुलं मातरं च ताम्। अभिगम्योपसंगृह्य तथा वृत्तं न्यवेदयत्।। | 1-58-18a 1-58-18b |
सौतिरुवाच। | 1-58-19x |
एतच्छ्रुत्वा प्रीयमाणाः समेता ये तत्रासन्पन्नगा वीतमोहाः। आस्तीके वै प्रीतिमन्तो बभूवु- रूचुश्चैनं वरमिष्टं वृमीष्व।। | 1-58-19a 1-58-19b 1-58-19c 1-58-19d |
भूयोभूयः सर्वशस्तेऽब्रुवंस्तं किं ते प्रियं करवामाद्य विद्वन्। प्रीता वयं मोक्षिताश्चैव सर्वे कामं किं ते करवामाद्य वत्स।। | 1-58-20a 1-58-20b 1-58-20c 1-58-20d |
आस्तीक उवाच। | 1-58-21x |
सायं प्रातर्ये प्रसन्नात्मरूपा लोके विप्रा मानवा ये परेऽपि। धर्माख्यानं ये पठेयुर्ममेदं तेषां युष्मन्नैव किंचिद्भयं स्यात्।। | 1-58-21a 1-58-21b 1-58-21c 1-58-21d |
तैश्चाप्युक्तो भागिनेयः प्रसन्नै- रेतत्सत्यं काममेवं वरं ते। प्रीत्या युक्ताः कामितं सर्वशस्ते कर्तारः स्म प्रवणा भागिनेय।। | 1-58-22a 1-58-22b 1-58-22c 1-58-22d |
असितं चार्तिमन्तं च सुनीथं चापि यः स्मरेत्। दिवा वा यदि वा रात्रौ नास्य सर्पभयं भवेत्।। | 1-58-23a 1-58-23b |
यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारौ महावशाः। आस्तीकः सर्पसत्रे वः पन्नगान्योऽभ्यरक्षत। तं स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितुमर्हथ।। | 1-58-24a 1-58-24b 1-58-24c |
सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष। जनेमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।। | 1-58-25a 1-58-25b |
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते। शतधा भिद्यते मूर्धा शिंशवृक्षफलं यथा।। | 1-58-26a 1-58-26b |
सौतिरुवाच। | 1-58-27x |
स एवमुक्तस्तु तदा द्विजेन्द्रः समागतैस्तैर्भुजगेन्द्रमुख्यैः। संप्राप्य प्रीतिं विपुलां महात्मा ततो मनो गमनायाथ दध्रे।। | 1-58-27a 1-58-27b 1-58-27c 1-58-27d |
`इत्येवं नागराजोऽथ नागानां मध्यगस्तदा। उक्त्वा सहैव तैः सर्पैः स्वमेव भवनं ययौ।।' | 1-58-28a 1-58-28b |
मोक्षयित्वा तु भुजगान्सर्पसत्राद्द्विजोत्तमः। जगाम काले धर्मात्मा दिष्टान्तं पुत्रपौत्रवान्।। | 1-58-29a 1-58-29b |
इत्याख्यानं मयास्तीकं यथावत्तव कीर्तितम्। यत्कीर्तयित्वा सर्पेभ्यो न भयं विद्यते क्वचित्।। | 1-58-30a 1-58-30b |
सौतिरुवाच। | 1-58-31x |
यथा कथितवान्ब्रह्मन्प्रमतिः पूर्वजस्तव। पुत्राय रुरवे प्रीतः पृच्छते भार्गवोत्तम।। | 1-58-31a 1-58-31b |
यद्वाक्यं श्रुतवांश्चाहं तथा च कथितं मया। आस्तीकस्य कवेर्विप्र श्रीमच्चरितमादितः।। | 1-58-32a 1-58-32b |
यन्मां त्वं पृष्टवान्ब्रह्मञ्श्रुत्वा डुण्डुभभाषितम्। व्येतु ते सुमहद्ब्रह्मन्कौतूहलमरिन्दम।। | 1-58-33a 1-58-33b |
श्रुत्वा धर्मिष्ठमाख्यानमास्तीकं पुण्यवर्धनम्। `सर्वपापविनिर्मुक्तो दीर्घमायुरवाप्नुयात्।।' | 1-58-34a 1-58-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 58 ।। | |
।। समाप्तं चास्तीकपर्व ।। |
1-58-6 स्वं च गांचान्तराद्यावापृथिव्योर्मध्ये अन्तरिक्ष इत्यर्थः।। 1-58-12 स यज्ञ उपररामेति पूर्वेणान्वयः।। 1-58-14 अवभृथं यज्ञसमाप्तिं।। 1-58-15 सुसंस्कृतं वस्त्रालङ्करणादिभिः शोभितम्।। 1-58-22 प्रवणा नम्राः।। 1-58-29 दिष्टान्तं मरणम्।। अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 58 ।।
आदिपर्व-057 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-059 |