महाभारतम्-01-आदिपर्व-213
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कथं नालायनी मत्पुत्री जातेति व्यासं प्रति द्रुपदस्य प्रश्नः।। 1 ।।
पुनर्नालायनीकथाकथनं।। 2 ।।
कामोपभोगविरक्तेन मौद्गल्येन कामातृप्तायाः नालादन्याः पञ्चपतित्वशापः।। 3 ।।
नालायन्या रुद्रमुद्दिश्य तपःकरणम्।। 4 ।।
नालयन्या पतिं देहीति पञ्चकृत्वः प्रार्थितेन रुद्रेण अन्यजन्मनि पञ्च ते पतयो भविष्यन्तीति वरदानम्।। 5 ।।
पुनः रुद्रात नि कौत्पवरप्राप्तिः।। 6 ।।
त्वयि गङ्गाजलस्थायां तत्रागमिष्यन्तमिन्द्रमानयेति नालायनींप्रति रुद्रस्याज्ञापनम्।। 7 ।।
द्रुपद उवाच। | 1-213-1x |
ब्रूहि तत्कारणं येन ब्रह्मन्नालायनी शुभा। जाता ममाध्वरे कृष्मा सर्ववेदविदां वर।। | 1-213-1a 1-213-1b |
व्यास उवाच। | 1-213-2x |
शृणु राजन्यथा ह्यस्या दत्तो रुद्रेण वै वरः। यदर्थं चैव संभूता तव गेहे यशस्विनी।। | 1-213-2a 1-213-2b |
हन्त त कथयिष्यामि कृष्मायाः पौर्वदेहिकम्। इन्द्रसेनेति विख्याता पुरा नालायनी शुभा।। | 1-213-3a 1-213-3b |
मौद्गल्यस्य पतिमासाद्य चचार विगतज्वरा। मौद्गल्यस्य महर्षेश्च रममाणस्य वै तया।। | 1-213-4a 1-213-4b |
संवत्सरगणा राजन्व्यतीयुः क्षणवत्तदा। ततः कदाचिद्धर्मात्मा तृप्तः कामैर्व्यरज्यत।। | 1-213-5a 1-213-5b |
अन्विच्छन्परमं धर्मं ब्रह्मयोगपरोऽभवत्। उत्ससर्ज स तां विप्रः सा तदा चापतद्भुवि। मौद्गल्यो राजशार्दूल तपोभिर्भावितः सदा।। | 1-213-6a 1-213-6b 1-213-6c |
नालायन्युवाच। | 1-213-7x |
प्रसीद भगवन्मह्यं न मामुत्स्रष्टुमर्हसि। अवितृप्तास्मि ब्रह्मर्षे कामानां कामसेवनात्।। | 1-213-7a 1-213-7b |
मौद्गल्य उवाच। | 1-213-8x |
यस्मात्त्वं मामनिःशङ्का ह्यवक्तव्यं भाषसे। आचरन्ती तपोविघ्नं तस्माच्छृणु वचो मम।। | 1-213-8a 1-213-8b |
भविष्यसि नृलोके त्वं राजपुत्री यशस्वि। पाञ्चालराजस्य सुता द्रुपदस्य महात्मनः।। | 1-213-9a 1-213-9b |
भवितारस्तत्र तव पतयः पञ्च विप्लुताः। तैः सार्धं मधुराकारैश्चिरं रतिमवाप्स्यसि।। | 1-213-10a 1-213-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-213-11x |
सैवं शप्ता तु विमना वनं प्रागाद्यशस्विनी। भोगैरतृप्ता देवेशं तपसाऽऽराधयत्तदा।। | 1-213-11a 1-213-11b |
निराशीर्मारुताहारा निराहारा तथैव च। अनुवर्तमाना त्वादित्यं तथा पञ्चतपाभवत्।। | 1-213-12a 1-213-12b |
तीव्रेण तपसा तस्यास्तुष्टः पशुपतिः स्वयम्। वचं प्रादात्तदा रुद्रः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।। | 1-213-13a 1-213-13b |
भविष्यति परं जन्म भविष्यति वराङ्गना। भविष्यन्ति परं भद्रे पतयः पञ्च विश्रुताः।। | 1-213-14a 1-213-14b |
महेन्द्रवपुषः सर्वे महेन्द्रसमविक्रमाः। तत्रस्था च महत्कर्म सुराणां त्वं करिष्यसि।। | 1-213-15a 1-213-15b |
स्त्र्युवाच। | 1-213-16x |
एकः खलु मया भर्ता वृतः पञ्च त्विमे कथम्। एको भवति नैकस्या बहवस्तद्ब्रवीहि मे।। | 1-213-16a 1-213-16b |
महेश्वर उवाच। | 1-213-17x |
पञ्चकृत्वस्त्वया चोक्तः पतिं देहीत्यहं पुनः। पञ्चते पतयो भद्रे भविष्यन्ति सुखावहाः।। | 1-213-17a 1-213-17b |
स्त्र्युवाच। | 1-213-18x |
धर्म एकः पतिः स्त्रीणां पूर्वमे प्रकल्पितः। बहुपत्नीकता पुंसो धर्मश्च बहुभिः कृतः।। | 1-213-18a 1-213-18b |
स्त्रीधर्मः पूर्वमेवायं निर्मितो मुनिभिः सदा। सहधर्मचरी भर्तुरेका एकस्य चोच्यते।। | 1-213-19a 1-213-19b |
एको हि भर्ता नारीणां कौमार इति लौकिकः। आपत्सु च नियोगेन भर्तुर्नार्याः परः स्मृतः।। | 1-213-20a 1-213-20b |
गच्छेत न तृतीयं तु तस्या निष्कृतिरुच्यते। चतुर्थे पतिता नारी पञ्चमे वर्धकी भवेत्।। | 1-213-21a 1-213-21b |
एवं गते धर्मपथे न वृणे बहुपुंस्कताम्। अलोकाचरितात्त्समात्कथं मुच्येय सङ्करात्।। | 1-213-22a 1-213-22b |
महेश्वर उवाच। | 1-213-23x |
अनावृताः पुरा नार्यो ह्यासञ्शुध्यन्ति चार्तवे। सकृदुक्तं त्वया नैतन्नाधर्मस्ते भविष्यति।। | 1-213-23a 1-213-23b |
स्त्र्युवाच। | 1-213-24x |
यदि मे पतयः पञ्च रतिमिच्छामि तैर्मिथः। कौमारं च भवेत्सर्वैः संगमे संगमे च मे।। | 1-213-24a 1-213-24b |
पतिशुश्रूषया चैव सिद्धिः प्राप्ता मया पुरा। भोगेच्छा च मया प्राप्ता स च भोगश्च मे भवेत्।। | 1-213-25a 1-213-25b |
रुद्र उवाच। | 1-213-26x |
रतिश्च भद्रे सिद्धिश्च न भजेते परस्परम्। भोगानाप्स्यसि सिद्धिं च योगेन च महत्त्वताम्।। | 1-213-26a 1-213-26b |
अन्यदेहान्तरे चैव रूपभाग्यगुणान्विता। पञ्चभिः प्राप्य कौमारं महाभागा भविष्यसि।। | 1-213-27a 1-213-27b |
गच्छ गङ्गाजलस्था च नरं पश्यसि यं शुभे। तमानय ममाभ्याशं सुरराजं शुचिस्मिते।। | 1-213-28a 1-213-28b |
इत्युक्ता विश्वरूपेण रुद्रं कृत्वा प्रदक्षिणम्। जगाम गङ्गामुद्दिश्य पुण्यां त्रिपथगां नदीम्।। | 1-213-29a 1-213-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 213 ।। |
1-213-23 अनावृताः निरोधरहिताः।।
त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 213 ।।
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