महाभारतम्-01-आदिपर्व-050
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शून्यारण्ये वृत्तस्य काश्यपतक्षकवृत्तान्तस्योपलब्धिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
मन्त्रिण ऊचुः। | 1-50-1x |
ततः स राजा राजेन्द्र स्कन्धे तस्य भुजंगमम्। मुनेः क्षुत्क्षाम आसज्य स्वपुरं प्रययौ पुनः।। | 1-50-1a 1-50-1b |
ऋषेस्तस्य तु पुत्रोऽभूद्गति जातो महायशाः। शृङ्गी नाम महातेजास्तिग्मवीर्योऽतिकोपनः।। | 1-50-2a 1-50-2b |
ब्रह्माणं समुपागम्य मुनिः पूजां चकार ह। सोऽनुज्ञातस्ततस्तत्र शृङ्गी शुश्राव तं तदा।। | 1-50-3a 1-50-3b |
सख्युः सकाशात्पितरं पित्रा ते धर्षितं पुरा। मृतं सर्पं समासक्तं स्थाणुभूतस्य तस्य तम्।। | 1-50-4a 1-50-4b |
वहन्तं राजशार्दूल स्कन्धेनानपकारिणम्। तपस्विनमतीवाथ तं मुनिप्रवरं नृप।। | 1-50-5a 1-50-5b |
जितेन्द्रियं विशुद्धं च स्थितं कर्मण्यथाद्भुतम्। तपसा द्योतितात्मानं स्वेष्वङ्गेषु यतं तदा।। | 1-50-6a 1-50-6b |
शुभाचारं शुभकथं सुस्थितं तमलोलुपम्। अक्षुद्रमनसूयं च वृद्धं मौनव्रते स्थितम्। शरण्यं सर्वभूतानां पित्रा विनिकृतं तव।। | 1-50-7a 1-50-7b 1-50-7c |
शशापाथ महातेजाः पितरं ते रुषान्वितः। ऋषेः पुत्रो महातेजा बालोऽपि स्थविरद्युतिः।। | 1-50-8a 1-50-8b |
स क्षिप्रमुदकं स्पृष्ट्वा रोषादिदमुवाच ह। पितरं तेऽभिसन्धाय तेजसा प्रज्वलन्निव।। | 1-50-9a 1-50-9b |
अनागसि गुरौ यो मे मृतं सर्पवासृजत्। तं नागस्तक्षकः क्रुद्धस्तेजसा प्रदहिष्यति।। | 1-50-10a 1-50-10b |
आशीविषस्तिग्मतेजा मद्वाक्यबलचोदितः। सप्तरात्रादितः पापं पश्य मे तपसो बलम्।। | 1-50-11a 1-50-11b |
इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र पिता यत्राऽस्य सोऽभवत्। दृष्ट्वा च पितरं तस्मै तं शापं प्रत्यवेदयत्।। | 1-50-12a 1-50-12b |
स चापि मुनिशार्दूलः प्रेरयामास ते पितुः। शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं गुणान्वितम्।। | 1-50-13a 1-50-13b |
आचख्यौं सत्त्व विश्रान्तो राज्ञः सर्वमशेषतः। शप्तोऽसि मम पुत्रेण यत्तो भव महीपते।। | 1-50-14a 1-50-14b |
तक्षकस्त्वां महाराज तेजसाऽसौ दहिष्यति। श्रुत्वा च तद्वचो घोरं पिता ते जनमेजय।। | 1-50-15a 1-50-15b |
यत्तोऽभवत्परित्रस्तस्तक्षकात्पन्नगोत्तमात्। ततस्तस्मिंस्तु दिवसे सप्तमे समुपस्थिते।। | 1-50-16a 1-50-16b |
राज्ञः समीपं ब्रह्मर्षिः काश्यपो गन्तुमैच्छत। तं ददर्शाथ नागेन्द्रस्तक्षकः[१] काश्यपं तदा।। | 1-50-17a 1-50-17b |
तमब्रवीत्पन्नगेन्द्रः काश्यपं त्वरितं द्विजम्। क्व भवांस्त्वरितो याति किं च कार्यं चिकीर्षति।। | 1-50-18a 1-50-18b |
काश्यप उवाच। | 1-50-19x |
यत्र राजा कुरुश्रेष्ठः परिक्षिन्नाम वै द्विज। तक्षकेण भुजंगेन धक्ष्यते किल सोऽद्य वै।। | 1-50-19a 1-50-19b |
गच्छाम्यहं तं त्वरितः सद्यः कर्तुमपज्वरम्। मयाऽभिपन्नं तं चापि न सर्पो धर्षयिष्यति।। | 1-50-20a 1-50-20b |
तक्षक उवाच। | 1-50-21x |
किमर्थं तं मया दष्टं संजीवयितुमिच्छसि। अहं त तक्षको ब्रह्मन्पश्य मे वीर्यमद्भुतम्।। | 1-50-21a 1-50-21b |
न शक्तस्त्वं मया दष्टं तं संजीवयितुं नृपम्। | 1-50-22a |
मन्त्रिण ऊचुः। | 1-50-23x |
इत्युक्त्वा तक्षकस्तत्र सोऽदशद्वै वनस्पतिम्।। | 1-50-22b |
स दष्टमात्रो नागेन भस्मीभूतोऽभवन्नगः। काश्यपश्च ततो राजन्नजीवयत तं नगम्।। | 1-50-23a 1-50-23b |
ततस्तं लोभयामास कामं ब्रूहीति तक्षकः। स एवमुक्तस्तं प्राह काश्यपस्तक्षकं पुनः।। | 1-50-24a 1-50-24b |
धनलिप्सुरहं तत्र यामीत्युक्तश्च तेन सः। तमुवाच महात्मानं तक्षकः श्लक्ष्णया गिरा।। | 1-50-25a 1-50-25b |
यावद्धनं प्रार्थयसे राज्ञस्तस्मात्ततोऽधिकम्। गृहाण मत्त एव त्वं सन्निवर्तस्व चानघ।। | 1-50-26a 1-50-26b |
स एवमुक्तो नागेन काश्यपो द्विपदां वरः। लब्ध्वा वित्तं निववृते तक्षकाद्यावदीप्सितम्।। | 1-50-27a 1-50-27b |
तस्मिन्प्रतिगते विप्रे छद्मनोपेत्य तक्षकः। तं नृपं नृपतिश्रेष्ठं पितरं धार्मिकं तव।। | 1-50-28a 1-50-28b |
प्रासादस्थं यत्तमपि दग्धवान्विषवह्निना। ततस्त्वं पुरुषव्याघ्र विजयायाभिषेचितः।। | 1-50-29a 1-50-29b |
एतद्दृष्टं श्रुतं चापि यथावन्नृपसत्तम। अस्माभिर्निखिलं सर्वं कथितं तेऽतिदारुणम्।। | 1-50-30a 1-50-30b |
श्रुत्वा चैतं नरश्रेष्ठ पार्थिवस्य पराभवम्। अस्य चर्षेरुदङ्कस्य विधत्स्व यदनन्तरम्।। | 1-50-31a 1-50-31b |
सौतिरुवाच। | 1-50-32x |
एतस्मिन्नेव काले तु स राजा जनमेजयः। उवाच मन्त्रिणः सर्वानिदं वाक्यमरिदमः।। | 1-50-32a 1-50-32b |
जनमेजय उवाच। | 1-50-33x |
अथ तत्कथितं केन यद्वृत्तं तद्वनस्पतौ। आश्चर्यभूतं लोकस्य भस्मराशीकृतं तदा।। | 1-50-33a 1-50-33b |
यद्वृक्षं जीवयामास काश्यपस्तक्षकेण वै। नूनं मन्त्रैर्हतविषो न प्रणश्येत काश्यपात्।। | 1-50-34a 1-50-34b |
चिन्तयामास पापात्मा मनसा पन्नगाधमः। दष्टं यदि मया विप्रः पार्थिवं जीवयिष्यति।। | 1-50-35a 1-50-35b |
तक्षकः संहतविषो लोके यास्यति हास्यताम्। विचिन्त्यैवं कृता तेन ध्रुवं तुष्टिर्द्विजस्य वै।। | 1-50-36a 1-50-36b |
भविष्यति ह्युपायेन यस्य दास्यामि यातनाम्। एकं तु श्रोतुमिच्छामि तद्वृत्तं निर्जने वने।। | 1-50-37a 1-50-37b |
संवादं पन्नगेन्द्रस्य काश्यपस्य च कस्तदा। श्रुतवान्दृष्टवांश्चापि भवत्सु कथमागतम्। श्रुत्वा तस्य विधास्येऽहं पन्नगान्तकरीं मतिम्।। | 1-50-38a 1-50-38b 1-50-38c |
मन्त्रिण ऊचुः। | 1-50-39x |
शृणु राजन्यथास्माकं येन तत्कथितं पुरा। समागतं द्विजेन्द्रस्य पन्नगेन्द्रस्य चाध्वनि।। | 1-50-39a 1-50-39b |
तस्मिन्वृक्षे नरः कश्चिदिन्धनार्थाय पार्थिव। विचिन्वन्पूर्वमारूढः शुष्कशाखावनस्पतौ।। | 1-50-40a 1-50-40b |
न बुध्येतामुभौ तौ च नगस्थं पन्नगद्विजौ। सह तेनैव वृक्षेण भस्मीभूतोऽभवन्नृप।। | 1-50-41a 1-50-41b |
द्विजप्रभावाद्राजेन्द्र व्यजीवत्स वनस्पतिः। तेनागम्य द्विजश्रेष्ठ पुंसाऽस्मासु निवेदितम्।। | 1-50-42a 1-50-42b |
यथा वृत्तं तु तत्सर्वं तक्षकस्य द्विजस्य च। एतत्ते कथितं राजन्यथादृष्टं श्रुतं च यत्। श्रुत्वा च नृपशार्दूल विधत्स्व यदनन्तरम्।। | 1-50-43a 1-50-43b 1-50-43c |
सौतिरुवाच। | 1-50-44x |
मन्त्रिणां तु वचः श्रुत्वा स राजा जनमेजयः। पर्यतप्यत दुःखार्तः प्रत्यपिंषत्करं करे।। | 1-50-44a 1-50-44b |
निःश्वासमुष्णमसकृद्दीर्घं राजीवलोचनः। मुमोचाश्रूणि च तदा नेत्राभ्यां प्ररुदन्नृपः।। | 1-50-45a 1-50-45b |
उवाच च महीपालो दुःखशोकसमन्वितः। दुर्धरं बाष्पमुत्सृज्य स्पृष्ट्वा चापो यथाविधि।। | 1-50-46a 1-50-46b |
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा निश्चित्य मनसा नृपः। अमर्षी मन्त्रिणः सर्वानिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-50-47a 1-50-47b |
जनमेजय उवाच। | 1-50-48x |
श्रुत्वैतद्भवतां वाक्यं पितुर्मे स्वर्गतिं प्रति। निश्चितेयं मम मतिर्या च तां मे निबोधत। अनन्तरं च मन्येऽहं तक्षकाय दुरात्मने।। | 1-50-48a 1-50-48b 1-50-48c |
प्रतिकर्तव्यमित्येवं येन मे हिंसितः पिता। शृङ्गिणं हेतुमात्रं यः कृत्वा दग्ध्वा च पार्थिवम्।। | 1-50-49a 1-50-49b |
इयं दुरात्मता तस्य काश्यपं यो न्यवर्तयत्। यद्यागच्छेत्स वै विप्रो ननु जीवेत्पिता मम।। | 1-50-50a 1-50-50b |
परिहीयेत किं तस्य यदि जीवेत्स पार्थिवः। काश्यपस्य प्रसादेन मन्त्रिणां विनयेन च।। | 1-50-51a 1-50-51b |
स तु वारितवान्मोहात्काश्यपं द्विजसत्तमम्। संजिजीवयिषुं प्राप्तं राजानमपराजितम्।। | 1-50-52a 1-50-52b |
महानतिक्रमो ह्येष तक्षकस्य दुरात्मनः। द्विजस्य योऽददद्द्रव्यं मा नृपं जीवयेदिति।। | 1-50-53a 1-50-53b |
उत्तङ्कस्य प्रियं कर्तुमात्मनश्च महत्प्रियम्। भवतां चैव सर्वेषां गच्छाम्यपचितिं पितुः।। | 1-50-54a 1-50-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 50 ।। |
1-50-6 अङ्गेषु बागादिषु यतं नियतं शमदमवन्तमित्यर्थः।। 1-50-7 अक्षुद्रं गम्भीरं। तव पित्रा विनिकृतमपकृतम्।। 1-50-20 अभिपन्नं त्रातं धऱ्षयिष्यत्यमिभविष्यति।। 1-50-24 कामं काम्यमानमर्थम्।। 1-50-27 द्विपदा पुस्त्राणाम्।। 1-50-36 संहतविषः सम्या हतं नष्टं विषं यस्य स तथा संहृतविष इति पाठे स्पष्टोथः।। 1-50-39 समागणं समागमं भावे निष्ठा।। 1-50-44 करं कर निधाय प्रत्यपिंषत्।। 1-50-52 मोहान्मदीयसमर्थ्याज्ञानात्।। 1-50-54 अपचितिं वैरनिर्यातनम्।। पञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 50 ।।
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