महाभारतम्-01-आदिपर्व-017
← आदिपर्व-016 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-017 वेदव्यासः |
आदिपर्व-018 → |
अमृतमथनविषये भगवदाज्ञया देवानां विचारः।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-17-1x |
एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन। अपश्यतां समायान्तमुच्चैः श्रवसमन्तिकात्।। | 1-17-1a 1-17-1b |
यं तु देवगणाः सर्वे हृष्टरूपमपूजयन्। मथ्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम्।। | 1-17-2a 1-17-2b |
अमोघबलमश्वानामुत्तमं जविनां वरम्। श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणपूजितम्।। | 1-17-3a 1-17-3b |
शौनक उवाच। | 1-17-4x |
कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे। `कारणं चात्र मथने संजातममृतात्परम्।।' यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः।। | 1-17-4a 1-17-4b 1-17-4c |
सौतिरुवाच। | 1-17-5x |
ज्वलन्तमचलं मेरुं तेजोराशिमनुत्तमम्। आक्षिपन्तं प्रभां भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्ज्वलैः।। | 1-17-5a 1-17-5b |
कनकाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम्। अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः।। | 1-17-6a 1-17-6b |
व्यालैरावारितं घोरैर्दिव्यौषधिविदीपितम्। नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम्।। | 1-17-7a 1-17-7b |
अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम्। नानापतगसङ्घैश्च नादितं सुमनोहरैः।। | 1-17-8a 1-17-8b |
तस्य शृङ्गमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम्। अनन्तकल्पमद्वन्द्वं सुराः सर्वे महौजसः।। | 1-17-9a 1-17-9b |
ते मन्त्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः। अमृताय समागम्य तपोनियमसंयुताः।। | 1-17-10a 1-17-10b |
तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत्। चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मन्त्रयत्सु च सर्वशः।। | 1-17-11a 1-17-11b |
देवैरसुरसङ्घैश्च मथ्यतां कलशोदधिः। भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ।। | 1-17-12a 1-17-12b |
सर्वौषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव ह। मन्थध्वयुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः।। | 1-17-13a 1-17-13b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।। |
1-17-9 अनन्तकल्पं अनन्तो विष्णुराकाशो वात तत ईषन्न्यूनम्।। 1-17-13 वेत्स्यध्वं लप्स्यध्वम्।। सप्तदशोऽध्यायः।। 17 ।।
आदिपर्व-016 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-018 |