महाभारतम्-01-आदिपर्व-008
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रुरुचरितं।। 1 ।। मेन्कात्मजायाः प्रमद्वरायाः रुरुणा सह विवाहप्रसङ्गः।। 2 ।। प्रमद्वरायाः सर्पदंशेन रुरोर्दुःखम्।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-8-1x |
स चापि च्यवनो ब्रह्मन्भार्गवोऽजनयत्सुतम्। सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम्।। | 1-8-1a 1-8-1b |
प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत्। रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनम्।। | 1-8-2a 1-8-2b |
शुनकस्तु महासत्वः सर्वभार्गवनन्दनः। जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः।। | 1-8-3a 1-8-3b |
तस्य ब्रह्मन्रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः। विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः।। | 1-8-4a 1-8-4b |
ऋषिरासीन्महान्पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः। स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः।। | 1-8-5a 1-8-5b |
एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान्। गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुरिति स्मृतः।। | 1-8-6a 1-8-6b |
अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भं भृगुनन्दन। उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति।। | 1-8-7a 1-8-7b |
उत्सृज्य चैव तं गर्भं नद्यास्तीरे जगाम सा। अप्सरा मेनका ब्रह्मन्निर्दया निरपत्रपा।। | 1-8-8a 1-8-8b |
कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया। तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः।। | 1-8-9a 1-8-9b |
स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम्। स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः।। | 1-8-10a 1-8-10b |
जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च। ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे।। | 1-8-11a 1-8-11b |
जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्वं यथाक्रमम्। स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः।। | 1-8-12a 1-8-12b |
प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता। ततः प्रमद्वरेत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः।। | 1-8-13a 1-8-13b |
तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम्। बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा।। | 1-8-14a 1-8-14b |
पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम्। प्रमतिश्चाभ्ययाचत्तां स्थूलकेशं यशस्विनम्।। | 1-8-15a 1-8-15b |
ततः प्रादात्पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम्। विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते।। | 1-8-16a 1-8-16b |
ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते। सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्यावरवर्णिनी।। | 1-8-17a 1-8-17b |
नापश्यत्संप्रसुप्तं वै भुजंगं तिर्यगायतम्। पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता।। | 1-8-18a 1-8-18b |
स तस्याः संप्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा। विषोपलिप्तान्दशनान्भृशमङ्गे न्यपातयत्।। | 1-8-19a 1-8-19b |
सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि। विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना।। | 1-8-20a 1-8-20b |
निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा। व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाऽभवत्।। | 1-8-21a 1-8-21b |
प्रसुप्तेवाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता। भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा।। | 1-8-22a 1-8-22b |
ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः। विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम्।। | 1-8-23a 1-8-23b |
ततः सर्वे द्विजतराः समाजग्मुः कृपान्विताः। स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः।। | 1-8-24a 1-8-24b |
उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः। भरद्वाजः कौणकृत्स्य आर्ष्टिषेणोऽथ गौतमः।। | 1-8-25a 1-8-25b |
प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः। तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजंगस्य विषार्दिताम्।। | 1-8-26a 1-8-26b |
रुरुदुः कृपयाऽविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ। ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा।। | 1-8-27a 1-8-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।। |
1-8-3 शुनकस्तु शौनकस्त्वमिति पाठान्तरम्।। 1-8-6 प्रजज्ञिवान् उत्पादितवान्।। 1-8-17 कतिपयाहस्य कतिपयाहस्सु इति पाठान्तरं। कतिपयाहस्सु हतेष्वित्यर्थः।। 1-8-19 कालधर्मणा मृत्युना।। अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।।
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