महाभारतम्-01-आदिपर्व-101
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भरतचरित्रकथनम्।। १ ।।
तद्वंशकथनं च।। २ ।।
`वैशंपायन उवाच। | 1-101-1x |
दुष्यन्ताद्भरतो राज्यं यथान्यायमवाप सः।' तस्य तत्प्रथितं कर्म प्रावर्तत महात्मनः।। | 1-101-1a 1-101-1b |
भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादनं महत्। स विजित्य महीपालांश्चकार वशवर्तिनः।। | 1-101-2a 1-101-2b |
चचार च सतां धर्मं प्राप्य चानुत्तमं यशः। स राजा चक्रवर्त्यासीत्सार्वभौमः प्रतापवान्।। | 1-101-3a 1-101-3b |
ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पतिः। याजयामास तं कण्वो दक्षवद्भूरिदक्षिणम्।। | 1-101-4a 1-101-4b |
श्रीमद्गोविततं नाम वाजिमेधमवाप सः। यस्मिन्सहस्रं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ।। | 1-101-5a 1-101-5b |
सोऽश्वमेधशतैरीजे यमुनामनु तीरगः। त्रिशतैश्च सरस्वत्यां गङ्गामनु चतुःशतैः।। | 1-101-6a 1-101-6b |
दौष्यन्तिर्भरतो यज्ञैरीजे शाकुन्तलो नृपः। तस्माद्भरतवंशस्य विप्रतस्थे महद्यशः।। | 1-101-7a 1-101-7b |
भरतस्य वरस्त्रीषु पुत्राः संजज्ञिरे पृथक्। नाभ्यनन्दत्तदा राजा नानुरूपा ममेति तान्।। | 1-101-8a 1-101-8b |
ततस्तान्मातरः क्रुद्धाः पुत्रान्निन्युर्यमक्षयम्। ततस्तस्य नरेन्द्रस्य वितथं पुत्रजन्म तत्।। | 1-101-9a 1-101-9b |
ततो महद्भिः क्रतुभिरीजानो भरतस्तदा। लेभे पुत्रं भरद्पाजाद्भुमन्युं नाम भारत।। | 1-101-10a 1-101-10b |
ततः पुत्रिणमात्मानं ज्ञात्वा पौरवनन्दनः। भुमन्युं भरतश्रेष्ठ यौवराज्येऽभ्यषेचयत्।। | 1-101-11a 1-101-11b |
ततो दिविरथो नाम भुमन्योरभवत्सुतः। सुहोत्रश्च सुहोता च सुहविः सुयजुस्तथा।। | 1-101-12a 1-101-12b |
पुष्करिण्यामृचीकश्च भुमन्योरभवन्सुताः। तेषां ज्येष्ठः सुहोत्रस्तु राज्यमाप महीक्षिताम्।। | 1-101-13a 1-101-13b |
राजसूयाश्वमेधाद्यैः सोऽयजद्बहुभिः सवैः। सुहोत्रः पृथिवीं कृत्स्नां बुभुजे सागराम्बराम्।। | 1-101-14a 1-101-14b |
पूर्णां हस्तिगवाश्वैश्च बहुरत्नसमाकुलाम्। ममज्जेव मही तस्य भूरिभारावपीडिता।। | 1-101-15a 1-101-15b |
हस्त्यश्वरथसंपूर्णा मनुष्यकलिला भृशम्। सुहोत्रे राजनि तदा धर्मतः शासति प्रजाः।। | 1-101-16a 1-101-16b |
चैत्ययूपाङ्किता चासीद्भूमिः शतसहस्रशः। प्रवृद्धजनसस्या च सर्वदैव व्यरोचत।। | 1-101-17a 1-101-17b |
ऐक्ष्वाकी जनयामास सुहोत्रात्पृथिवीपतेः। अजमीढं सुमीढं च पुरुमीढं च भारत।। | 1-101-18a 1-101-18b |
अजमीढो वरस्तेषां तस्मिन्वंशः प्रतिष्ठितः। षट् पुत्रान्सोप्यजनयत्तिसृषु स्त्रीषु भारत।। | 1-101-19a 1-101-19b |
ऋक्षं धूमिन्यथो नीली दुष्यन्तपरमेष्ठइनौ। केशिन्यजनयज्जह्नुं सुतौ च जनरूषिणौ।। | 1-101-20a 1-101-20b |
विदुः संवरणं वीरमृक्षाद्राथन्तरीसुतम्। तथेमे सर्वपञ्चाला दुष्यन्तपरमेष्ठिनोः। अन्वयाः कुशिका राजञ्जन्होरमिततेजसः।। | 1-101-21a 1-101-21b 1-101-21c |
जनरूषणयोर्ज्येष्ठमृक्षमाहुर्जनाधिपम्। ऋक्षात्संवरणो जज्ञे राजन्वंशकरस्तव।। | 1-101-22a 1-101-22b |
आर्क्षे संवरणे राजन्प्रशासति वसुन्धराम्। संक्षयः सुमहानासीत्प्रजानामिति नः श्रुतम्।। | 1-101-23a 1-101-23b |
व्यशीर्यत ततो राष्ट्रं क्षयैर्नानाविधैस्तदा। क्षुन्मृत्युभ्यामनावृष्ट्या व्याधिभिश्च समाहतम्।। | 1-101-24a 1-101-24b |
अभ्यघ्नन्भारतांश्चैव सपत्नानां बलानि च। चालयन्वसुधां चेमां बलेन चतुरङ्गिणा।। | 1-101-25a 1-101-25b |
अभ्ययात्तं च पाञ्चल्यो विजित्य तरसा महीम्। अक्षौहिणीभिर्दशभिः स एनं समरेऽजयत्।। | 1-101-26a 1-101-26b |
ततः सदारः सामात्यः सपुत्रः ससुहृज्जनः। राजा संवरणस्तस्मात्पलायत महाभयात्।। | 1-101-27a 1-101-27b |
`ते प्रतीचीं पराभूताः प्रपन्ना भारता दिशम्'। सिन्धोर्नदस्य महतो निकुञ्जे न्यवसंस्तदा। नदीविपयपर्यन्ते पर्वतस्य समीपतः।। | 1-101-28a 1-101-28b 1-101-28c |
तत्रावसन्बहून्कालान्भारता दुर्गमाश्रिताः। तेषां निवसतां तत्र सहस्रं परिवत्सरान्।। | 1-101-29a 1-101-29b |
अथाभ्यगच्छद्भरतान्वसिष्ठो भगवानृषिः। तमागतं प्रयत्नेन प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च।। | 1-101-30a 1-101-30b |
अर्घ्यमभ्याहरंस्तस्मै ते सर्वे भारतास्तदा। निवेद्य सर्वमृषये सत्कारेण सुवर्चसे।। | 1-101-31a 1-101-31b |
तमासने चोपविष्टं राजा वव्रे स्वयं तदा। पुरोहितो भवान्नोऽस्तु राज्याय प्रयतेमहि।। | 1-101-32a 1-101-32b |
ओमित्येवं वसिष्ठोऽपि भारतान्प्रत्यपद्यत। अथाभ्यषिञ्चत्साम्राज्ये सर्वक्षत्रस्य पौरवम्।। | 1-101-33a 1-101-33b |
विषाणभूतं सर्वस्यां पृथिव्यामिति नः श्रुतम्। भरताध्युषितं पूर्वं सोऽध्यतिष्ठत्पुरोतोतमम्।। | 1-101-34a 1-101-34b |
पुनर्बलिभृतश्चैव चक्रे सर्वमहीक्षितः। ततः स पृथिवीं प्राप्य पुनरीजे महाबलः।। | 1-101-35a 1-101-35b |
आजमीढो महायज्ञैर्बहुभिर्भूरिदक्षिणैः। ततः संवरणात्सौरी तपती सुषुवे कुरुम्।। | 1-101-36a 1-101-36b |
राजत्वे तं प्रजाः सर्वा धर्मज्ञ इति वव्रिरे। `महिम्ना तस्य कुरवो लेभिरे प्रत्ययं भृशम्।' तस्य नाम्नाऽभिविख्यातं पृथिव्यां कुरुजाङ्गलं।। | 1-101-37a 1-101-37b 1-101-37c |
कुरुक्षेत्रं स तपसा पुण्यं चक्रे महातपाः। अश्ववन्तमभिष्यन्तं तथा चैत्ररथं मुनिम्।। | 1-101-38a 1-101-38b |
जनमेजयं च विख्यातं पुत्रांश्चास्यानुशुश्रुम। पञ्चैतान्वाहिनी पुत्रान्व्यजायत मनस्विनी।। | 1-101-39a 1-101-39b |
अविक्षितः परिक्षित्तु शबलाश्वस्तु वीर्यवान्। आदिराजो विराजश्च शाल्मलिश्च महाबलः।। | 1-101-40a 1-101-40b |
उच्चैःश्रवा भङ्गकारो जितारिश्चाष्टमः स्मृतः। एतेषामन्ववाये तु ख्यातास्ते कर्मजैर्गुणैः। जनमेजयादयः सप्त तथैवान्ये महारथाः।। | 1-101-41a 1-101-41b 1-101-41c |
परीक्षितोऽभवन्पुत्राः सर्वे धर्मार्थकोविदाः। कक्षसेनोग्रसेनौ तु चित्रसेनश्च वीर्यवान्।। | 1-101-42a 1-101-42b |
इन्द्रसेनः सुषेणश्च भीमसेनश्च नामतः। जनमेजयस्य तनया भुवि ख्याता महाबलाः।। | 1-101-43a 1-101-43b |
धृतराष्ट्रः प्रथमजः पाण्डुर्बाह्लीक एव च। निषधश्च महातेजास्तथा जाम्बूनदो बली।। | 1-101-44a 1-101-44b |
कुण्डोदरः पदातिश्च वसातिश्चाष्टमः स्मृतः। सर्वे धर्मार्थकुशलाः सर्वभूतहिते रताः।। | 1-101-45a 1-101-45b |
धृतराष्ट्रोऽथ राजासीत्तस्य पुत्रोऽथ कुण्डिकः। हस्ती वितर्कः क्राथश्च कुण्डिनश्चापि पञ्चमः।। | 1-101-46a 1-101-46b |
हविश्रवास्तथेन्द्राभो भुमन्युश्चापराजितः। धृतराष्ट्रसुतानां तु त्रीनेतान्प्रथितान्भुवि।। | 1-101-47a 1-101-47b |
प्रतीपं धर्मनेत्रं च सुनेत्रं चापि भारत। प्रतीपः प्रथितस्तेषां बभूवाप्रतिमो भुवि।। | 1-101-48a 1-101-48b |
प्रतीपस्य त्रयः पुत्रा जज्ञिरे भरतर्षभ। देवापिः शन्तनुश्चैव बाह्लीकश्च महारथः।। | 1-101-49a 1-101-49b |
देवापिस्तु प्रवव्राज तेषां धर्महितेप्सया। शन्तनुश्च महीं लेभे बाह्लीकश्च महारथः।। | 1-101-50a 1-101-50b |
भरतस्यान्वयास्त्वेते देवकल्पा महारथाः। बभूवुर्ब्रह्मकल्पाश्च बहवो राजसत्तमाः।। | 1-101-51a 1-101-51b |
एवंविधा महाभागा देवरूपाः प्रहारिणः। अन्ववाये महाराज ऐलवंशविवर्धनाः।। | 1-101-52a 1-101-52b |
`गङ्गातीरं समागम्य दीक्षितो जनमेजय। अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च।। | 1-101-53a 1-101-53b |
पुनरीजे महायज्ञैः समाप्तवरदक्षिणैः। अग्निष्टोमातिरात्राणामुक्थानां सोमवत्पुनः।। | 1-101-54a 1-101-54b |
वाजपेयेष्टिसत्राणां सहस्रैश्च सुसंभृतैः। दृष्ट्वा शाकुन्तलो राजा तर्पयित्वा द्विजान्धनैः।। | 1-101-55a 1-101-55b |
पुनः सहस्रं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ। जम्बूनदस्य शुद्धस्य कनकस्य महायशाः।। | 1-101-56a 1-101-56b |
यस्य यूपाः शतव्यामाः परिणाहेऽथ काञ्चनाः। सहस्रव्याममुद्वृद्धाः सेन्द्रैर्देवैः समुच्छ्रिताः।। | 1-101-57a 1-101-57b |
स्वलङ्कृता भ्राजमानाः सर्वरत्नैर्मनोरमैः। हिरण्यं द्विरदानश्वान्महिषोष्ट्रगजाविकम्।। | 1-101-58a 1-101-58b |
दासीदासं धनं धान्यं गाः सुशीलाः सवत्सकाः। भूमिं यूपसहस्राङ्कां कण्वाय बहुदक्षिणाम्।। | 1-101-59a 1-101-59b |
बहूनां ब्रह्मकल्पानां धनं दत्त्वा क्रतून्बहून्। ग्रामान्गृहाणि शुभ्राणि कोटिशोथाददत्तदा।। | 1-101-60a 1-101-60b |
भरताद्भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम्।' भरतस्यान्वये जाता देवकल्पा महारथाः।। | 1-101-61a 1-101-61b |
बहवो ब्रह्मकल्पाश्च बभूवुः क्षत्रसत्तमाः। तेषामपरिमेयानि नामधेयानि सन्त्युत।। | 1-101-62a 1-101-62b |
तेषां कुले यथा मुख्यान्कीर्तयिष्यामि भारत। महाभागान्देवकल्पान्सत्यार्जवपरायणान्।। | 1-101-63a 1-101-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकोत्तरशततमोऽध्यायः।। 101 ।। |
1-101-9 वितथं विगतस्तथाभावो जनकसादृश्यं यत्र तत्तादृशं पुत्रजन्म।। 1-101-23 आर्क्षे ऋक्षपुत्रे।। 1-101-24 क्षयैर्नाशहेतुभिः क्षुत्प्रभृतिभिः।। 1-101-26 अभ्ययात्तं संवरणम्। एनं संवरणमेव।। 1-101-35 बलिभृतः करदान्।। 1-101-36 सौरी सूर्यकन्या।। 1-101-40 अश्ववत एवाविक्षिदिति संज्ञान्तरम्।। एकोत्तरशत्ततमोऽध्यायः।। 101 ।।
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