महाभारतम्-01-आदिपर्व-130
← आदिपर्व-129 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-130 वेदव्यासः |
आदिपर्व-131 → |
दुःशलाजननप्रकारकथनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-130-1x |
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामादितः कथितं त्वया। ऋषेः प्रसादात्तु शतं न च कन्या प्रकीर्तिता।। | 1-130-1a 1-130-1b |
वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च कन्या चैका शताधिका। गान्धारराजदुहिता शतपुत्रेति चानघ।। | 1-130-2a 1-130-2b |
उक्ता महर्षिणा तेन व्यासेनामिततेजसा। कथं त्विदानीं भगवन्कन्यां त्वं तु ब्रवीषि मे।। | 1-130-3a 1-130-3b |
यदि भागशतं पेशी कृता तेन महर्षिणा। न प्रजास्यति चेद्भूयः सौबलेयी कथंचन।। | 1-130-4a 1-130-4b |
कथं तु संभवस्तस्या दुःशलाया वदस्व मे। यथावदिह विप्रर्षे परं मेऽत्र कुतूहलम्।। | 1-130-5a 1-130-5b |
वैशंपायन उवाच। | 1-130-6x |
साध्वयं प्रश्न उद्दिष्टः पाण्डवेय ब्रवीमि ते। तां मांसपेशीं भगवान्स्वयमेव महातपाः।। | 1-130-6a 1-130-6b |
शीताभिरद्भिरासिच्य भागं भागमकल्पयत्। यो यथा कल्पितो भागस्तंत धात्र्या तथा नृप।। | 1-130-7a 1-130-7b |
घृतपूर्णेषु कुण्डेषु एकैकं प्राक्षिपत्तदा। एतस्मिन्नन्तरे साध्वी गान्धारी सुदृढव्रता।। | 1-130-8a 1-130-8b |
दुहितुः स्नेहसंयोगमनुध्याय वराङ्गना। `नाब्रवीत्तमृषिं किंचिद्गौरवाच्च यशस्विनी।' मनसा चिन्तयद्देवी एतत्पुत्रशतं मम।। | 1-130-9a 1-130-9b 1-130-9c |
भविष्यति न संदेहो न ब्रवीत्यन्यथा मुनिः। ममेयं परमा तुष्टिर्दुहिता मे भवेद्यदि।। | 1-130-10a 1-130-10b |
एका शताधिका बाला भविष्यति कनीयसी। ततो दौहित्रजाल्लोकादबाह्योऽसौ पतिर्मम।। | 1-130-11a 1-130-11b |
अधिका किल नारीणां प्रीतिर्जामातृजा भवेत्। यदि नाम ममापि स्याद्दुहितैका शताधिका।। | 1-130-12a 1-130-12b |
कृतकृत्या भवेयं वै पुत्रदौहित्रसंवृता। यदि सत्यं तपस्तप्तं दत्तं वाऽप्यथवा हुतम्।। | 1-130-13a 1-130-13b |
गुरवस्तोषिता वापि तथाऽस्तु दुहिता मम। एतस्मिन्नेव काले तु कृष्णद्वैपायनः स्वयम्।। | 1-130-14a 1-130-14b |
व्यभजत्स तदा पेशीं भगवानृषिसत्तमः। `गण्यमानेषु कुण्डेषु शते पूर्णे महात्मना।। | 1-130-15a 1-130-15b |
अभवच्चापरं खण्डं वामहस्ते तदा किल।' गणयित्वा शतं पूर्णमंशानामाह सौबलीम्।। | 1-130-16a 1-130-16b |
व्यास उवाच। | 1-130-17x |
पूर्णं पुत्रशतं त्वेतन्न मिथ्या वागुदाहृता। दैवयोगाच्च भागैकः परिशिष्टः शतात्परः।। | 1-130-17a 1-130-17b |
एषा ते सुभगा कन्या भविष्यति यतेप्सिता। | 1-130-18a |
वैशंपायन उवाच। | 1-130-18x |
ततोऽन्यं घृतकुम्भं च समानाय्य महातपाः।। | 1-130-18b |
तं चापि प्राक्षिपत्तत्र कन्याभागं तपोधनः। `संभूता चैव कालेन सर्वेषां च यवीयसी।। | 1-130-19a 1-130-19b |
ऐतत्ते कथितं राजन्दुःशलाजन्म भारत। ब्रूहि राजेन्द्र किं भूयो वर्तयिष्यामि तेऽनघ।। | 1-130-20a 1-130-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 130 ।।
1-130-4 न प्रजास्यति प्रजामात्मनो नेच्छति।। त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 130 ।।
आदिपर्व-129 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-131 |