महाभारतम्-01-आदिपर्व-006
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च्यवनोत्पत्ती रक्षोविनाशश्च।। 1 ।। अग्नेर्भृगुशापः।। 2 ।।
सौतिरुवाच। | 1-6-1x |
अग्नेरथ वचः श्रुत्वा तद्रक्षः प्रजहार ताम्। ब्रह्मन्वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा।। | 1-6-1a 1-6-1b |
ततः स गर्भो निवसन्कुक्षौ भृगुकुलोद्वह। रोषान्मातुश्च्युतः कुक्षेश्च्यवनस्तेन सोऽभवत्।। | 1-6-2a 1-6-2b |
तं दृष्ट्वा मातुरुदराच्च्युतमादित्यवर्चसम्। तद्रक्षो भस्मसाद्भूतं पपात परिमुच्य ताम्।। | 1-6-3a 1-6-3b |
सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम्। च्यवनं भार्गवं पुत्रं पुलोमा दुःखमूर्च्छिता।। | 1-6-4a 1-6-4b |
तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षीं भृगोर्भार्यामनिन्दिताम्।। | 1-6-5a 1-6-5b |
सान्त्वयामास भगवान्वधूं ब्रह्मा पितामहः। अश्रुबिन्दूद्भवा तस्याः प्रावर्तत महानदी।। | 1-6-6a 1-6-6b |
आवर्तन्ती सृतिं तस्या भृगोः पत्न्यास्तपस्विनः। तस्या मार्गं सृतवतीं दृष्ट्वा तु सरितं तदा।। | 1-6-7a 1-6-7b |
नाम तस्यास्तदा नद्याश्चक्रे लोकपितामहः। वधूसरेति भगवांश्च्यवनस्याश्रमं प्रति।। | 1-6-8a 1-6-8b |
स एवं च्यवनो जज्ञे भृगोः पुत्रः प्रतापवान्। तं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम्। स पुलोमां ततो भार्यां पप्रच्छ कुपितो भृगुः।। | 1-6-9a 1-6-9b 1-6-9c |
भृगुरुवाच। | 1-6-10x |
केनासि रक्षसे तस्मै कथिता त्वं जिहीर्षवे। न हि त्वा वेद तद्रक्षो मद्भार्यां चारुहासिनीम्।। | 1-6-10a 1-6-10b |
तत्त्वमाख्याहि तं ह्यद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा। बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रमः।। | 1-6-11a 1-6-11b |
पुलोमोवाच। | 1-6-12x |
अग्निना भगवंस्तस्मै रक्षसेऽहं निवेदिता। ततो मामनयद्रक्षः क्रोशन्तीं कुररीमिव।। | 1-6-12a 1-6-12b |
साऽहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता। भस्मीभूतं च तद्रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै।। | 1-6-13a 1-6-13b |
सौतिरुवाच। | 1-6-14x |
इति श्रुत्वा पुलोमाया भृगुः परममन्युमान्। शशापाग्निमतिक्रुद्धः सर्वभक्षो भविष्यसि।। | 1-6-14a 1-6-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।। |
1-6-2 तेन च्युतत्वेन हेतुना।। 2 ।। 1-6-7 आवर्तन्ती सृतिं तस्याः। सृतिं मार्गं। अनुवर्त्म सृता तस्या इति पाठान्तरं।। 7 ।। षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।।
सूत उवाच॥
अग्नेरथ वचः श्रुत्वा तद्रक्षः प्रजहार ताम् |
ब्रह्मन्वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा ॥१॥
ततः स गर्भो निवसन्कुक्षौ भृगुकुलोद्वह |
रोषान्मातुश्च्युतः कुक्षेश्च्यवनस्तेन सोऽभवत् ॥२॥
तं दृष्ट्वा मातुरुदराच्च्युतमादित्यवर्चसम् |
तद्रक्षो भस्मसाद्भूतं पपात परिमुच्य ताम् ॥३॥
सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम् |
च्यवनं भार्गवं ब्रह्मन्पुलोमा दुःखमूर्च्छिता ॥४॥
तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः |
रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षीं भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् ॥५॥
सान्त्वयामास भगवान्वधूं ब्रह्मा पितामहः ॥५॥
अश्रुबिन्दूद्भवा तस्याः प्रावर्तत महानदी |
अनुवर्तती सृतिं तस्या भृगोः पत्न्या यशस्विनः ॥६॥
तस्या मार्गं सृतवतीं दृष्ट्वा तु सरितं तदा |
नाम तस्यास्तदा नद्याश्चक्रे लोकपितामहः ॥७॥
वधूसरेति भगवांश्च्यवनस्याश्रमं प्रति ॥७॥
स एवं च्यवनो जज्ञे भृगोः पुत्रः प्रतापवान् |
तं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम् ॥८॥
स पुलोमां ततो भार्यां पप्रच्छ कुपितो भृगुः |
केनासि रक्षसे तस्मै कथितेह जिहीर्षवे ॥९॥
न हि त्वां वेद तद्रक्षो मद्भार्यां चारुहासिनीम् ॥९॥
तत्त्वमाख्याहि तं ह्यद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा |
बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रमः ॥१०॥
पुलोमोवाच॥
अग्निना भगवंस्तस्मै रक्षसेऽहं निवेदिता |
ततो मामनयद्रक्षः क्रोशन्तीं कुररीमिव ॥११॥
साहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता |
भस्मीभूतं च तद्रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै ॥१२॥
सूत उवाच॥
इति श्रुत्वा पुलोमाया भृगुः परममन्युमान् |
शशापाग्निमभिक्रुद्धः सर्वभक्षो भविष्यसि ॥१३॥1.6.14
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