महाभारतम्-01-आदिपर्व-012
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जनमेजयसर्पसन्नप्रस्तावः।। 1 ।।
रुरुरुवाच। | 1-12-1x |
कथं हिंसितवान्सर्पान्स राजा जनमेजयः। सर्पा वा हिंसितास्तत्र किमर्थं द्विजसत्तम।। | 1-12-1a 1-12-1b |
किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन धीमता। आस्तीकेन द्विजश्रेष्ठ श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः।। | 1-12-2a 1-12-2b |
ऋषिरुवाच। | 1-12-3x |
श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत्। ब्राह्मणानां कथयतां त्वरावान्गमने ह्यहम्।। | 1-12-3a 1-12-3b |
सौतिरुवाच। | 1-12-4x |
`इत्युक्त्वान्तर्हिते योगात्तस्मिन्नृषिवरे प्रभौ। संभ्रमाविष्टहृदयो रुरुर्मेने तदद्भुतम्।।' | 1-12-4a 1-12-4b |
बलं परममास्थाय पर्यधावत्समन्ततः। तमृषिं नष्टमन्विच्छन्संश्रान्तो न्यपतद्भुवि।। | 1-12-5a 1-12-5b |
स मोहे परमं गत्वा नष्टसंज्ञ इवाभवत्। तदृषेर्वचनं तथ्यं चिन्तयानः पुनःपुनः।। | 1-12-6a 1-12-6b |
लब्धसंज्ञो रुरुश्चायात्तदाचख्यौ पितुस्तदा। `पित्रे तु सर्वमाख्याय डुण्डुभस्य वचोऽर्थवत्।। | 1-12-7a 1-12-7b |
अपृच्छत्पितरं भूयः सोस्तीकस्य वचस्तदा। आख्यापयत्तदाऽऽख्यानं डुण्डुभेनाथ कीर्तितम्।। | 1-12-8a 1-12-8b |
तत्कीर्त्यमानं भगवञ्श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।' पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत्।। | 1-12-9a 1-12-9b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
1-12-5 नष्टं अन्तर्हितं।। द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।।
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