महाभारतम्-01-आदिपर्व-191
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वसिष्ठोपाख्याने---विश्वामित्रस्य वसिष्ठाश्रमाभिगमनं।। 1 ।।
वसिष्ठेन विश्वामित्रस्यातिथ्यकरणं।। 2 ।।
विश्वामित्रेण वसिष्ठधेनुयाचनं।। 3 ।।
वसिष्ठेनादत्ताया धेनोः विश्वामित्रेण बलात्कारेण हरणं।। 4 ।।
कुपितया नन्दिन्या सृष्टैः म्लेच्छाद्यैः विश्वामित्रपराजयः।। 5 ।।
विश्वामित्रस्य तपसा ब्राह्मण्यप्राप्तिः।। 6 ।।
अर्जुन उवाच। | 1-191-1x |
किंनिमित्तमभूद्वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयोः। वसतोराश्रमे दिव्ये शंस नः सर्वमेव तत्।। | 1-191-1a 1-191-1b |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-2x |
इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं परिचक्षते। पार्थ सर्वेषु लोकेषु यथावत्तन्निबोध मे।। | 1-191-2a 1-191-2b |
कान्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवो भरतर्षभ। गाधीति विश्रुतो लोके कुशिकस्यात्मसंभवः।। | 1-191-3a 1-191-3b |
तस्य धर्मात्मनः पुत्रः समृद्धबलवाहनः। विश्वामित्र इति ख्यतो बभूव रिपुमर्दनः।। | 1-191-4a 1-191-4b |
स चचार सहामात्यो मृगयां गहने वने। मृगान्विध्यन्वराहांश्च रम्येषु मरुधन्वसु।। | 1-191-5a 1-191-5b |
व्यायामकर्शितः सोऽथ मृगलिप्सुः पिपासितः। आजगाम नरश्रेष्ठ वसिष्ठस्याश्रमं प्रति।। | 1-191-6a 1-191-6b |
तमागतमभिप्रेक्ष्य वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः। विश्वामित्रं नरश्रेष्ठं प्रतिजग्राह पूजया।। | 1-191-7a 1-191-7b |
पाद्यार्घ्याचमनीचैस्तं स्वागतेन च भारत। तथैव परिजग्राह वन्येन हविषा तदा।। | 1-191-8a 1-191-8b |
तस्याथ कामधुग्धेनुर्वसिष्ठस्य महात्मनः। उक्ता कामान्प्रयच्छेति सा कामान्दुदुहे ततः।। | 1-191-9a 1-191-9b |
`बाष्पाढ्यस्योदनस्यैव राशयः पर्वतोपमाः। निष्ठानानि च सूपांश्च दधिकुल्यास्तथैव च।। | 1-191-10a 1-191-10b |
कूपांश्च घृतसंपूर्णान्गौड्यान्नानि सहस्रशः। इक्षून्मधूनि लाजांश्च मैरेयांश्च वरासवान्।।' | 1-191-11a 1-191-11b |
ग्राम्यारण्याश्चौषधीश्च दुदुहे पय एव च। षड्रसं चामृतनिभं रसायनमनुत्तमम्।। | 1-191-12a 1-191-12b |
भोजनीयानि पेयानि भक्ष्याणि विविधानि च। लेह्यान्यमृतकल्पानि चोष्याणि च तथार्जुना।। | 1-191-13a 1-191-13b |
रत्नानि च महार्हाणि वासांसि विविधानि च। तैः कामैः सर्वसंपूर्णैः पूजितश्च महिपतिः।। | 1-191-14a 1-191-14b |
सामात्यः सबलश्चैव तुतोष स भृशं तदा। षडुन्नतां सुपार्श्वोरुं पृथुपञ्चसमावृताम्।। | 1-191-15a 1-191-15b |
मण्डूकनेत्रां स्वाकारां पीनोधसमनिन्दिताम्। सुवालघिं शङ्कुकर्णां चारुशृङ्गां मनोरमाम्।। | 1-191-16a 1-191-16b |
पुष्टायतशिरोग्रीवां विस्मितः सोऽभिवीक्ष्यताम्। अभिनन्द्य स तां राजा नन्दिनीं गाधिनन्दनः।। | 1-191-17a 1-191-17b |
अब्रवीच्च भृशं तुष्टः स राजा तमृषिं तदा। अर्बुदेन गवां ब्रह्मन्मम राज्येन वा पुनः।। | 1-191-18a 1-191-18b |
नन्दिनीं संप्रयच्छस्व भुङ्क्ष्व राज्यं महामुने। | 1-191-19a |
वसिष्ठ उवाच। | 1-191-19x |
देवतातिथिपित्रर्थं याज्यार्थं च पयस्विनी।। | 1-191-19b |
अदेया नन्दिनीयं वै राज्येनापि तवानघ। | 1-191-20a |
विश्वामित्र उवाच। | 1-191-20x |
`रत्नं हि भगवन्नेतद्रत्नहारी च पार्थिवः।' क्षत्रियोऽहं भवान्विप्रस्तपःस्वाध्यायसाधनः।। | 1-191-20b 1-191-20c |
ब्राह्णेषु कुतो वीर्यं प्रशान्तेषु धृतात्मसु। अर्बुदेन गवां यस्त्वं न ददासि ममेप्सितम्।। | 1-191-21a 1-191-21b |
स्वधर्मं न प्रहास्यामि नेष्यामि च बलेन गाम्। | 1-191-22a |
वसिष्ठ उवाच। | 1-191-22x |
बलस्थश्चासि राजा च बाहुवीर्यश्च क्षत्रियः।। | 1-191-22b |
यथेच्छसि तथा क्षिप्रं कुरु मा त्वं विचारय। | 1-191-23a |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-23x |
एवमुक्तस्तथा पार्थ विश्वामित्रो बलादिव।। | 1-191-23b |
हंसचन्द्रप्रतीकाशां नन्दिनीं तां जहार गाम्। `सा तदा ह्रियमाणा च विश्वामित्रबलैर्बलात्।' कशादण्डप्रणुदिता काल्यमाना इतस्ततः।। | 1-191-24a 1-191-24b 1-191-24c |
हंभायमाना कल्याणी वसिष्ठस्याथ नन्दिनी। आगम्याभिमुखी पार्थ तस्थौ भगवदुन्मुखी।। | 1-191-25a 1-191-25b |
भृशं च ताड्यमाना वै न जगामाश्रमात्ततः। | 1-191-26a |
वसिष्ठ उवाच। | 1-191-26x |
शृणोमि ते रवं भद्रे विनदन्त्याः पुनः पुनः।। | 1-191-26b |
ह्रियसे त्वं बलाद्भद्रे विश्वामित्रेण नन्दिनि। किं कर्तव्यं मया तत्र क्षमावान्ब्राह्मणो ह्यहम्। | 1-191-27a 1-191-27b |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-28x |
सा भयान्नन्दिनी तेषां बलानां भरतर्षभ। विश्वामित्रभयोद्विग्ना वसिष्ठं समुपागमत्।। | 1-191-28a 1-191-28b |
गौरुवाच। | 1-191-29x |
कशाग्रदण्डाभिहतां क्रोशन्तीं मामनाथवत्। विश्वामित्रबलैर्घोरैर्भगवन् किमुपेक्षसे।। | 1-191-29a 1-191-29b |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-30x |
एवं तस्यां तदा पार्थ धर्षितायां महामुनिः। न चुक्षुभे तदा धैर्यान्न चचाल धृतव्रतः।। | 1-191-30a 1-191-30b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-191-31x |
क्षत्रियाणां बलं तेजो ब्राह्मणानां क्षमा बलम्। क्षमा मां भजते यस्माद्गम्यतां यदि रोचते।। | 1-191-31a 1-191-31b |
नन्दिन्युवाच। | 1-191-32x |
किं नु त्यक्ताऽस्मि भगवन्यदेवं त्वं प्रभाषसे। अत्यक्ताऽहं त्वया ब्रह्मन्नेतुं शक्या न वै बलात्।। | 1-191-32a 1-191-32b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-191-33x |
न त्वां त्यजामि कल्याणि स्थीयतां यदि शक्यते। दृढेन दाम्ना बद्ध्वैष वत्सस्ते हियते बलात्।। | 1-191-33a 1-191-33b |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-34x |
स्थीयतामिति तच्छ्रुत्वा वसिष्ठस्य पयस्विनी। ऊर्ध्वाञ्चितशिरोग्रीवा प्रबभौ रौद्रदर्शना।। | 1-191-34a 1-191-34b |
क्रोधरक्तेक्षणा सा गौर्हंभारवघनस्वना। विश्वामित्रस्य तत्सैन्यं व्यद्रावयत सर्वशः।। | 1-191-35a 1-191-35b |
कशाग्रदण्डाभिहता काल्यमाना ततस्ततः। क्रोधरक्तेक्षणा क्रोधं भूय एव समाददे।। | 1-191-36a 1-191-36b |
आदित्य इव मध्याह्ने क्रोधदीप्तवपुर्बभौ। अङ्गारवर्षं मुञ्चन्ती मुहुर्वालधितो महत्।। | 1-191-37a 1-191-37b |
असृजत्पह्लवान्पुच्छात्प्रस्रवाद्द्राविडाञ्छकान्। योनिदेशाच्च यवानाञ्शकृतः शबरान्बहून्।। | 1-191-38a 1-191-38b |
मूत्रतश्चासृजत्कांश्चिच्छबरांश्चैव पार्श्वतः। पौण्ड्रान्किरातान्यवनान्सिंहलान्बर्बरान्खसान्।। | 1-191-39a 1-191-39b |
चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान्हूणान्सकेरलान्। ससर्ज फेनतः सा गौर्म्लेच्छान्बहुविधानपि।। | 1-191-40a 1-191-40b |
तैर्विसृष्टैर्महासैन्यैर्नानाम्लेच्छगणैस्तदा। नानावरणसंछन्नैर्नानायुधधरैस्तथा।। | 1-191-41a 1-191-41b |
अवाकीर्यत संरब्धैर्विश्वामित्रस्य पश्यतः। एकैकश्च तदा योधः पञ्चभिः सप्तभिर्वृतः।। | 1-191-42a 1-191-42b |
अस्त्रवर्षेण महता वध्यमानं बलं तदा। प्रभग्नं सर्वतस्त्रस्तं विश्वामित्रस्य पश्यतः।। | 1-191-43a 1-191-43b |
`तस्य तच्चतुरङ्गं वै बलं परमदुःसहम्। प्रभग्नं सर्वतो घोरं पयस्विन्या विनिर्जितम्।।' | 1-191-44a 1-191-44b |
न च प्राणैर्वियुज्यन्ते केचित्तत्रास्य सैनिकाः। विश्वामित्रस्य संक्रुद्धैर्वासिष्ठैर्भरतर्षभ।। | 1-191-45a 1-191-45b |
सा गौस्तत्सकलं सैन्यं कालयामास दूरतः। विश्वामित्रस्य तत्सैन्यं काल्यमानं त्रियोजनम्।। | 1-191-46a 1-191-46b |
क्रोशमानं भयोद्विग्नं त्रातारं नाध्यगच्छत। `विश्वामित्रस्ततो दृष्ट्वा क्रोधाविष्टः स रोदसी।। | 1-191-47a 1-191-47b |
ववर्ष शरवर्षाणि वसिष्ठे मुनिसत्तमे। घोररूपांश्च नाराचान्क्षुरान्भल्लान्महामुनिः।। | 1-191-48a 1-191-48b |
विश्वामित्रप्रयुक्तांस्तान्वैणवेन व्यमोचयत्। वसिष्ठस्य तदा दृष्ट्वा कर्मकौशलमाहवे।। | 1-191-49a 1-191-49b |
विश्वामित्रोऽपि कोपेन भूयः शत्रुनिपातनः। दिव्यास्त्रवर्षं तस्मै स प्राहिणोन्मुनये रुषा।। | 1-191-50a 1-191-50b |
आग्नेयं वारुणं चैन्द्रं याम्यं वायव्यमेव च। विससर्ज महाभागे वसिष्ठे ब्रह्मणः सुते।। | 1-191-51a 1-191-51b |
अस्त्राणि सर्वतो ज्वालां विसृजन्ति प्रपेदिरे। युगान्तसमये घोराः पतङ्गस्येव रश्मयः।। | 1-191-52a 1-191-52b |
वसिष्ठोऽपि महातेजा ब्रह्मशक्तिप्रयुक्तया। यष्ट्या निवारयामास सर्वाण्यस्त्राणि स स्मयन्।। | 1-191-53a 1-191-53b |
ततस्ते भस्मसाद्भूताः पतन्ति स्म महीतले। अपोह्य दिव्यान्यस्त्राणि वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्।। | 1-191-54a 1-191-54b |
निर्जितोऽसि महाराज दुरात्मन्गाधिनन्दन। यदि तेऽस्ति परं शौर्यं तद्दर्शय मयि स्थिते।। | 1-191-55a 1-191-55b |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-56x |
विश्वामित्रस्तथा चोक्तो वसिष्ठेन नराधिपः। नोवाच किंचिद्व्रीडाढ्यो विद्रावितमहाबलः'।। | 1-191-56a 1-191-56b |
दृष्ट्वा तन्महदाश्चर्यं ब्रह्मतेजोभवं तदा। विश्वामित्रः क्षत्रभावान्निर्विण्णो वाक्यमब्रवीत्। धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम्।। | 1-191-57a 1-191-57b 1-191-57c |
बलाबले विनिश्चित्य तप एव परं बलम्। | 1-191-58a |
गन्धर्व उवाच। | 1-191-58x |
स राज्यं स्फीतमुत्सृज्य तां च दीप्तां नृपश्रियम्।। | 1-191-58b |
भोगांश्च पृष्ठतः कृत्वा तपस्येव मनो दधे। स गत्वा तपसा सिद्धिं लोकान्विष्टभ्य तेजसा।। | 1-191-59a 1-191-59b |
तताप सर्वान्दीप्तौजा ब्राह्मणत्वमवाप्तवान्। अपिबच्च ततः सोममिन्द्रेण सह कौशिकः।। | 1-191-60a 1-191-60b |
`एवंवीर्यस्तु राजर्षिर्विप्रर्षिः संबभूव ह'।। | 1-191-61a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वमि एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191 ।। |
1-191-5 मरुधन्वसु मरुसंज्ञकेष्वल्पजलप्रदेशेषु।। 1-191-38 पह्लवादयो म्लेच्छविशेषाः।। एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191 ।।
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