महाभारतम्-01-आदिपर्व-007
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क्रोधेनाग्निकृत आत्मोपसंहारः।। 1 ।। ब्रह्मोक्तसान्त्ववचनेनाग्नेः संतोषः।। 2 ।।
सौतिरुवाच। | 1-7-1x |
शप्तस्तु भृगुणा वह्निः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत्। किमिदं साहसं ब्रह्मन्कृतवानसि मां प्रति।। | 1-7-1a 1-7-1b |
धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम्। पृष्टो यदब्रवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम।। | 1-7-2a 1-7-2b |
पृष्टो हिसाक्षीयः साक्ष्यं जानानोऽप्यन्यथा वदेत्। स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात्तथाऽपरान्।। | 1-7-3a 1-7-3b |
यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानानोऽपि न भाषते। सोऽपि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशयः।। | 1-7-4a 1-7-4b |
शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम। जानतोऽपि च ते ब्रह्मन्कथयिष्ये निबोध तत्।। | 1-7-5a 1-7-5b |
योगेन बहुधाऽऽत्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु। अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियासु च मखेषु च।। | 1-7-6a 1-7-6b |
वेदोक्तेन विधानेन मयि यद्धूयते हविः। देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै।। | 1-7-7a 1-7-7b |
आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा। दर्शश्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह।। | 1-7-8a 1-7-8b |
देवताः पितरस्तस्मात्पितरश्चापि देवताः। एकीभूताश्च दृश्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु।। | 1-7-9a 1-7-9b |
देवताः पितरश्चैव भुञ्जते मयि यद्भुतम्। देवतानां पितॄणां च मुखमेतदहं स्मृतम्।। | 1-7-10a 1-7-10b |
अमावास्यां हि पितरः पौर्णमास्यां हि देवताः। मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः।। | 1-7-11a 1-7-11b |
सर्वभक्षः कथं त्वेषां भविष्यामि मुखं त्वहम्। | 1-7-12a |
सौतिरुवाच। | 1-7-12x |
चिन्तयित्वा ततो वह्निश्चके संहारमात्मनः।। | 1-7-12b |
द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च। निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः।। | 1-7-13a 1-7-13b |
विनाऽग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन्सुदुःखिताः। अथर्षयः समुद्विग्ना देवान् गत्वाब्रुवन्वचः।। | 1-7-14a 1-7-14b |
अग्निनाशात्क्रियाभ्रांशाद्भ्रान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः। विधध्वमत्र यत्कार्यं न स्यात्कालात्ययो यथा।। | 1-7-15a 1-7-15b |
अथर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु। अग्नेरावेदयञ्शापं क्रियासंहारमेव च।। | 1-7-16a 1-7-16b |
भृगुणा वै महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे। कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाग्रभुक् तथा।। | 1-7-17a 1-7-17b |
हुतभुक्सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति। | 1-7-18a |
सौतिरुवाच। | 1-7-18x |
श्रुत्वा तु तद्वचस्तेषामग्निमाहूय विश्वकृत्।। | 1-7-18b |
उवाच वचनं श्लक्ष्णं भूतभावनमव्ययम्। लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च।। | 1-7-19a 1-7-19b |
त्वं धारयसि लोकांस्त्रीन्क्रियाणां च प्रवर्तकः। स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्येरन्यथा क्रियाः।। | 1-7-20a 1-7-20b |
कस्मादेवं विमूढस्त्वमीश्वरः सन् हुताशेन। त्वं पवित्रं सदा लोके सर्वभूतगतिश्च ह।। | 1-7-21a 1-7-21b |
न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि। अपाने ह्यर्चिषो यास्ते सर्वं भक्ष्यन्ति ताः शिखिन्।। | 1-7-22a 1-7-22b |
क्रव्यादा च तनुर्या ते सा सर्वं भक्षयिष्यति। यथा सूर्यांशुभिः स्पृष्टं सर्वं शुचि विभाव्यते।। | 1-7-23a 1-7-23b |
तथा त्वदर्चिर्निर्दग्धं सर्वं शुचि भविष्यति। त्वमग्ने परमं तेजः स्वप्रभावाद्विनिर्गतम्।। | 1-7-24a 1-7-24b |
स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेर्विभो। देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम्।। | 1-7-25a 1-7-25b |
सौतिरुवाच। | 1-7-26x |
एवमस्त्विति तं वह्निः प्रत्युवाच पितामहम्। जगाम शासनं कर्तुं देवस्य परमेष्ठिनः।। | 1-7-26a 1-7-26b |
देवर्षयश्च मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम्। ऋषयश्च यथा पूर्वं क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे।। | 1-7-27a 1-7-27b |
दिवि देवा मुमुदिरे भूतसङ्घाश्च लौकिकाः। अग्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मषः।। | 1-7-28a 1-7-28b |
एवं स भगवाञ्छापं लेभेऽग्निर्भृगुतः पुरा। एवमेष पुरा वृत्त हतिहासोऽग्निशापजः। पुलोम्नश्च विनाशोऽयं च्यवनस्य च संभवः।। | 1-7-29a 1-7-29b 1-7-29c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।। |
1-7-2 समं पक्षपातहीनां। व्यभिचारः अपराधः।। 2 ।। 1-7-8 आपः सोमाज्य प्रभृतयोग्नौ हूयमाना देवपितृरूपाः। अग्नौ हुता आप एव देवताशरीररूपेण परिणमन्त इत्यर्थः।। 1-7-9 देवादिभावस्यापि कर्मप्राप्यत्वाद्देवानां पितॄणां च मिथो भेदो नास्त्येव तुल्यहेतुकत्वादित्याह देवता इति।। 1-7-11 अमावास्यां अमावास्यायां। हूयन्ते इज्यन्ते।। 1-7-12 संहारं तिरोभावं।। 1-7-22 भक्ष्यन्ति भक्षयिष्यन्ति।। 1-7-23 क्रव्यादा मांसभक्षिणी।। 1-7-24 स्वप्रभावात् अग्निप्रेरणया। तस्य वागधिष्ठातृत्वात्तत्प्रेरणयैव विनिर्गतं शापं।। 24 ।। सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।।
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