महाभारतम्-01-आदिपर्व-133
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अश्विभ्यां माद्र्यां नकुलसहदेवयोरुत्पत्तिः।। 1 ।।
युधिष्ठिरादीनां नामकरणम्।। 2 ।।
वसुदेवप्रेषितेन पुरोहितेन पाण्डवानामुपनयनादिसंस्कारकरणम्।। 3 ।।
पाण्डवानां शुक्राद्धनुर्वेदशिक्षणम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-133-1x |
कुन्तीपुत्रेषु जातेषु धृतराष्ट्रात्मजेषु च। मद्रराजसुता पाण्डुं रहो वचनमब्रवीत्।। | 1-133-1a 1-133-1b |
न मेऽस्ति त्वयि सन्तापो विगुणेऽपि परन्तप। नावरत्वे वरार्हायाः स्थित्वा चानघ नित्यदा।। | 1-133-2a 1-133-2b |
गान्धार्याश्चैव नृपते जातं पुत्रशतं तथा। श्रुत्वा न मे तथा दुःखमभवत्कुरुनन्दन।। | 1-133-3a 1-133-3b |
इदं तु मे महद्दुःखं तुल्यतायामपुत्रता। दिष्ट्या त्विदानीं भर्तुर्मे कुन्त्यामप्यस्ति सन्ततिः।। | 1-133-4a 1-133-4b |
यदि त्वपत्यसन्तानं कुन्तिराजसुता मयि। कुर्यादनुग्रहो मे स्यात्तव चापि हितं भवेत्।। | 1-133-5a 1-133-5b |
संरम्भो हि सपत्नीत्वाद्वक्तुं कुन्तिसुतां प्रति। यदि तु त्वं प्रसन्नो मे स्वयमेनां प्रचोदय।। | 1-133-6a 1-133-6b |
पाण्डुरुवाच। | 1-133-7x |
ममाप्येष सदा माद्रि हृद्यर्थः परिवर्तते। न तु त्वां प्रसहे वक्तुमिष्टानिष्टविवक्षया।। | 1-133-7a 1-133-7b |
तव त्विदं मतं मत्वा प्रयतिष्याम्यतः परम्। मन्ये ध्रुवं मयोक्ता सा वचनं प्रतिपत्स्यते।। | 1-133-8a 1-133-8b |
वैशंपायन उवाच। | 1-133-9x |
ततः कुन्तीं पुनः पाण्डुर्विविक्त इदमब्रवीत्। `अनुगृह्णीष्व कल्याणि मद्रराजसुतामपि।' कुलस्य मम सन्तानं लोकस्य च कुरु प्रियम्।। | 1-133-9a 1-133-9b 1-133-9c |
मम चापिण्डनाशाय पूर्वेषां च महात्मनाम्। मत्प्रियार्थं च कल्याणि कुरु कल्याणमुत्तमम्।। | 1-133-10a 1-133-10b |
यशसोऽर्थाय चैव त्वं कुरु कर्म सुदुष्करम्। प्राप्याधिपत्यमिन्द्रेण यज्ञैरिष्टं यशोऽर्थिना।। | 1-133-11a 1-133-11b |
तथा मन्त्रविदो विप्रास्तपस्तप्त्वा सुदुष्करम्। गुरूनभ्युपगच्छन्ति यशसोऽर्थाय भामिनि।। | 1-133-12a 1-133-12b |
तथा राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणाश्च तपोधनाः। चक्रुरुच्चावचं कर्म यशसोऽर्थाय दुष्करम्।। | 1-133-13a 1-133-13b |
सा त्वं माद्रीं प्लवेनैव तारयैनामनिन्दिते। अपत्यसंविधानेन परां कीर्तिमवाप्नुहि।। | 1-133-14a 1-133-14b |
`कुन्त्युवाच। | 1-133-15x |
धर्मं वै धर्मशास्त्रोक्तं यथा वदसि तत्तथा। तस्मादनुग्रहं तस्याः करोमि कुरुनन्दन।।' | 1-133-15a 1-133-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-133-16x |
एवमुक्ताऽब्रवीन्मार्द्रीं सकृच्चिन्तय दैवतम्। तस्मात्ते भविताऽपत्यमनुरूपमसंशयम्।। | 1-133-16a 1-133-16b |
`ततो मन्त्रे कृते तस्मिन्विधिदृष्टेन कर्मणा। ततो राजसुता स्नाता शयने संविवेश ह।।' | 1-133-17a 1-133-17b |
ततो माद्री विचार्यैका जगाम मनसाऽश्विनौ। तावागम्य सुतौ तस्यां जनयामासतुर्यमौ। नकुलं सहदेवं च रूपेणाप्रतिमौ भुवि।। | 1-133-18a 1-133-18b 1-133-18c |
तथैव तावपि यमौ वागुवाचाशरीरिणी। `धर्मतो भक्तितश्चैव शीलतो विनयैस्तथा।। | 1-133-19a 1-133-19b |
सत्वरूपगुणोपेतौ भवतोऽत्यश्विनाविति। मासते तेजसाऽत्यर्थं रूपद्रविणसंपदा।। | 1-133-20a 1-133-20b |
नामानि चक्रिरे तेषां शतशृङ्गनिवासिनः। भक्त्या च कर्मणा चैव तथाऽऽशीर्भिर्विशांपते।। | 1-133-21a 1-133-21b |
ज्येष्ठं युधिष्ठिरेत्येवं भीमसेनेति मध्यमम्। अर्जुनेति तृतीयं च कुन्तीपुत्रानकल्पयन्।। | 1-133-22a 1-133-22b |
पूर्वजं नकुलेत्येवं सहदेवेति चापरम्। माद्रीपुत्रावकथयंस्ते विप्राः प्रीतमानसाः।। | 1-133-23a 1-133-23b |
अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमाः। पाण्डुपुत्रा व्यराजन्त पञ्चसंवत्सरा इव।। | 1-133-24a 1-133-24b |
महासत्त्वा महावीर्या महाबलपराक्रमाः। पाण्डुर्दृष्ट्वा सुतांस्तांस्तु देवरूपान्महौजसः।। | 1-133-25a 1-133-25b |
मुदं परमिकां लेभे ननन्द च नराधिपः। ऋषीणामपि सर्वेषां शतशृङ्गनिवासिनाम्।। | 1-133-26a 1-133-26b |
प्रिया बभूवुस्तासां च तथैव मुनियोषिताम्। कुन्तीमथ पुनः पाण्डुर्माद्र्यर्थे समचोदयत्।। | 1-133-27a 1-133-27b |
तमुवाच पृथा राजन् रहस्युक्ता तदा सती। उक्ता सक्वद्द्वन्द्वमेषा लेभे तेनास्मि वञ्चिता।। | 1-133-28a 1-133-28b |
बिभेम्यस्याः परिभवात्कुस्त्रीणां गतिरिदृशी। नाज्ञासिषमहं मूढा द्वन्द्वाह्वाने फलद्वयम्।। | 1-133-29a 1-133-29b |
तस्मान्नाहं नियोक्तव्या त्वयैषोऽस्तु वरो मम। एवं पाण्डोः सुताः पञ्च देवदत्ता महाबलाः।। | 1-133-30a 1-133-30b |
संभूताः कीर्तिमन्तश्च कुरुवंशविवर्धनाः। शुभलक्षणसंपन्नाः सोमवत्प्रियदर्शनाः।। | 1-133-31a 1-133-31b |
सिंहदर्पा महेष्वासाः सिंहविक्रान्तगामिनः। सिंहग्रीवा मनुष्येन्द्रा ववृधुर्देवविक्रमाः।। | 1-133-32a 1-133-32b |
विवर्धमानास्ते तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ। विस्मयं जनयामासुर्महर्षीणां समेयुषाम्।। | 1-133-33a 1-133-33b |
`जातमात्रानुपादाय शतशृङ्गनिवासिनः। पाण्डोः पुत्रानमन्यन्त तापसाः स्वानिवात्मजान्।। | 1-133-34a 1-133-34b |
वैशंपायन उवाच। | 1-133-35x |
ततस्तु वृष्णयः सर्वे वसुदेवपुरोगमाः।। | 1-133-35a |
पाण्डुः शापभयाद्भीतः शतशृङ्गमुपेयिवान्। तत्रैव मुनिभिः सार्धं तापसोऽभूत्तपस्विभिः।। | 1-133-36a 1-133-36b |
शाकमूलफलाहारस्तपस्वी नियतेन्द्रियः। योगध्यानपरो राजा बभूवेति च वादकाः।। | 1-133-37a 1-133-37b |
प्रबुवन्ति स्म बहवस्तच्छ्रुत्वा शोककर्शिताः। पाण्डोः प्रीतिसमायुक्ताः कदा श्रोष्याम संकथाः।। | 1-133-38a 1-133-38b |
इत्येवं कथयन्तस्ते वृष्णयः सह बान्धवैः। पाण्डोः पुत्रागमं श्रुत्वा सर्वे हर्षसमन्विताः।। | 1-133-39a 1-133-39b |
सभाजयन्तस्तेऽन्योन्यं वसुदेवं वचोऽब्रुवन्। न भवेरन्क्रियाहीनाः पाण्डुपुत्रा महाबलाः।। | 1-133-40a 1-133-40b |
पाण्डोः प्रियहितान्वेषी प्रेषय त्वं पुरोहितम्। वसुदेवस्तथेत्युक्त्वा विससर्ज पुरोहितम्।। | 1-133-41a 1-133-41b |
युक्तानि च कुमाराणां पारबर्हाण्यनेकशः। कुन्तीं माद्रीं च संदिश्य दासीदासपरिच्छदम्।। | 1-133-42a 1-133-42b |
गावो हिरण्यं रौप्यं च प्रेषयामास भारत। तानि सर्वाणि संगृह्य प्रययौ स पुरोहितः।। | 1-133-43a 1-133-43b |
तमागतं द्विजश्रेष्ठं काश्यपं वै पुरोहितम्। पूजयामास विधिवत्पाण्डुः परपुरञ्जयः।। | 1-133-44a 1-133-44b |
पृथा माद्री च संहृष्टे वसुदेवं प्रशंसताम्। ततः पाण्डुः क्रियाः सर्वाः पाण्डवानामकारयत्।। | 1-133-45a 1-133-45b |
गर्भाधानादिकृत्यानि चौलोपनयनानि च। काश्यपः कृतवान्सर्वमुपाकर्म च भारत।। | 1-133-46a 1-133-46b |
चौलोपनयनादूर्ध्वमृषभाक्षा यशस्विनः। वैदिकाध्ययने सर्वे समपद्यन्त पारगाः।। | 1-133-47a 1-133-47b |
शर्यातेः प्रथमः पुत्रः शुक्रो नाम परन्तपः। येन सागरपर्यन्ता धुषा निर्जिता मही।। | 1-133-48a 1-133-48b |
अश्वमेधशतैरिष्ट्वा स महात्मा महामखैः। आराध्य देवताः सर्वाः पितॄनपि महामतिः।। | 1-133-49a 1-133-49b |
शतशृह्गे तपस्तेपे शाकमूलफलाशनः। तेनोपकरणश्रेष्ठैः शिक्षया चोपबृंहिताः।। | 1-133-50a 1-133-50b |
तत्प्रसादाद्धनुर्वेदे समपद्यन्त पारगाः। गदायां पारगो भीमस्तोमरेषु युधिष्ठिरः।। | 1-133-51a 1-133-51b |
असिचर्मणि निष्णातौ यमौ सत्त्ववतां वरौ। धनुर्वेदे गतः पारं सव्यसाची परन्तपः।। | 1-133-52a 1-133-52b |
शुक्रेण समनुज्ञातो मत्समोऽयमिति प्रभो। अनुज्ञाय ततो राजा शक्तिं खङ्गं ततः शरान्।। | 1-133-53a 1-133-53b |
धनुश्च दमतां श्रेष्ठस्तालमात्रं महाप्रभम्। विपाठक्षुरनाराचान्गृध्रपक्षैरलङ्कृतान्।। | 1-133-54a 1-133-54b |
ददौ पार्थाय संहृष्टो महोरगसमप्रभान्। अवाप्य सर्वशस्त्राणि मुदितो वासवात्मजः।। | 1-133-55a 1-133-55b |
मेने सर्वान्महीपालानपर्याप्तान्स्वतेजसः।। | 1-133-56a |
एकवर्षान्तरास्त्वेवं परस्परमरिन्दमाः। अन्ववर्तन्त पार्थाश्च माद्रीपुत्रौ तथैव च।।' | 1-133-57a 1-133-57b |
ते च पञ्च शतं चैव कुरुवंशविवर्धनाः। सर्वे ववृधिरेऽल्पेन कालेनाप्स्विव पङ्कजाः।। | 1-133-58a 1-133-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 133 ।।
1-133-2 विगुणे प्रजोत्पादनानधिकृते। अवरत्वे कनिष्ठात्वे। वरार्हायाः कृन्त्या अपेक्षया।। 1-133-6 संरम्भोऽभिमानः।। 1-133-7 इष्टमनिष्टं वा वक्ष्यसीति संदेहेन।। 1-133-8 प्रतिपत्स्यते अङ्गीकरिष्यति।। 1-133-9 सतानमविच्छेदम्।। 1-133-10 मम पूर्वेषां चापिण्डनाशाय पिण्डविनाशाभावाय। बहुषु पुत्रेषु कस्यचिदपि पुत्रस्य संततेरविच्छेदसंभवादित्यर्थः।। 1-133-11 यशस इति कृतकृत्या अपि यशोर्थं देवगुर्वाद्याराधनं कुर्वन्तीत्यर्थः।। 1-133-20 अत्यश्विनौ अश्विभ्यामधिकौ।। 1-133-24 अनुसंवत्सरं संवत्सरमनु पश्चाज्जाता अपि देवताभावात्सर्वे पञ्चसंवत्सरा इवादृश्यन्तेत्यर्थः।। त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 133 ।।
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