महाभारतम्-01-आदिपर्व-114
← आदिपर्व-113 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-114 वेदव्यासः |
आदिपर्व-115 → |
सत्यवत्या स्वस्मिन्कन्यात्वावस्थायां व्यासोत्पत्तिकथनम्।। 1 ।।
स्मरणमात्रादागतेन व्यासेन सह सत्यवत्याः संवादः।। 2 ।।
व्यासेन अम्बिकाम्बालिकलोः पुत्रोत्पादनाङ्गीकारः।। 3 ।।
भीष्म उवाच। | 1-114-1x |
पुनर्भरतवंशस्य हेतुं सन्तानवृद्धये। वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदतः शृणु।। | 1-114-1a 1-114-1b |
ब्राह्मणो गुणवान्कश्चिद्धनेनोपनिमन्त्र्यताम्। विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत्प्रजाः।। | 1-114-2a 1-114-2b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-114-3x |
भीष्मस्य तु वचः श्रुत्वा धर्महेत्वर्थसंहितम्। माता सत्यवती भीष्मं पुनरेवाभ्यभाषत।। | 1-114-3a 1-114-3b |
औचथ्यमधिकृत्येदमङ्गं च यदुदाहृतम्। पौराणी श्रुतिरित्येषा प्राप्तकालमिदं कुरु।। | 1-114-4a 1-114-4b |
त्वं हि पुत्र कुलस्यास्य ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च भारत। यथा च ते पितुर्वाक्यं मम कार्यं तथाऽनघ।। | 1-114-5a 1-114-5b |
मम पुत्रस्तव भ्राता यवीयान्सुप्रियश्च ते। बाल एव गतः स्वर्गं भारतो भरतर्षभ।। | 1-114-6a 1-114-6b |
इमे महिष्यौ तस्येह काशिराजसुते उभे। रूपयौवनसंपन्ने पुत्रकामे च भारत।। | 1-114-7a 1-114-7b |
धर्म्यमेतत्परं ज्ञात्वा सन्तानाय कुलस्य च। आभ्यां मम नियोगात्तु धर्मं चरितुमर्हसि।। | 1-114-8a 1-114-8b |
भीष्म उवाच। | 1-114-9x |
असंशयं परो धर्मस्त्वयाः मातः प्रकीर्तितः। त्वमप्येतां प्रतिज्ञां तु वेत्थ या मयि वर्तते।। | 1-114-9a 1-114-9b |
अमरत्वस्य वा हेतोस्त्रैलोक्यसदनस्य वा। उत्सृजेयमहं प्राणान्न तु सत्यं कथंचन।। | 1-114-10a 1-114-10b |
सत्यवत्युवाच। | 1-114-11x |
जानामि त्वयि धर्मज्ञ सत्यं सत्यपराक्रम। इच्छंस्त्वमिह लोकांस्त्रीन्सृजेरन्यानरिन्दम।। | 1-114-11a 1-114-11b |
यथा तु नः कुलं चैव धर्मश्च न पराभवेत्। सुहृदश्च प्रहृष्टाः स्युस्तथा त्वं कर्तुमर्हसि।। | 1-114-12a 1-114-12b |
भीष्म उवाच। | 1-114-13x |
त्वमेव कुलवृद्धासि गौरवं तु परं त्वयि। सोपायं कुलसन्ताने वक्तुमर्हसि नः परम्।। | 1-114-13a 1-114-13b |
स्त्रियो हि परमं गुह्यं धारयन्ति सदा कुले। पुरुषांश्चैव मायाभिर्बह्वीभिरुपगृह्णते।। | 1-114-14a 1-114-14b |
सा सत्यवति संपश्य धर्मं सत्यपरायणे। यथा न जह्यां सत्यं च न सीदेच्च कुलं हि नः।।' | 1-114-15a 1-114-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-114-16x |
ततः सत्यवती भीष्मं वाचा संसज्जमानया। विहसन्तीव सव्रीडमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-114-16a 1-114-16b |
सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत। विश्वासात्ते प्रवक्ष्यामि सन्तानाय कुलस्य नः।। | 1-114-17a 1-114-17b |
न ते शक्यमनाख्यातुमापद्धर्मं तथाविधम्। त्वमेव नः कुले धर्मस्त्वं सत्यं त्वं परा गतिः।। | 1-114-18a 1-114-18b |
`यत्त्वं वक्ष्यसि तत्कार्यमस्माभिरिति मे मतिः।' तस्मान्निशम्य सत्यं मे कुरुष्व यदनन्तरम्। `शृणु भीष्म वचो मह्यं धर्मार्थसहितं हितम्।। | 1-114-19a 1-114-19b 1-114-19c |
न च विस्रम्भकथितं भवान्सूचितुमर्हति। यस्तु राजा वसुर्नाम श्रुतस्ते भरतर्षभ।। | 1-114-20a 1-114-20b |
तस्य शुक्लादहं मत्स्या धृता कुक्षौ पुरा किल। मातरं मे जलाद्धृत्वा दाशः परमधर्मवित्।। | 1-114-21a 1-114-21b |
मां तु स्वगृहमानीय दुहितृत्वेऽभ्यकल्पयत्। धर्मयुक्तः स धर्मेण पिता चासीत्ततो मम।।' | 1-114-22a 1-114-22b |
धर्मयुक्तस्य धर्मार्थं पितुरासीत्तरी मम। सा कदाचिदहं तत्र गता प्रथमयौवनम्।। | 1-114-23a 1-114-23b |
अथ धर्मविदां श्रेष्ठः परमर्षिः पराशरः। आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन्यमुनां नदीम्।। | 1-114-24a 1-114-24b |
स तार्यमाणो यमुनां मामुपेत्याब्रवीत्तदा। सान्त्वपूर्वं मुनिश्रेष्ठः कामार्तो मधुरं वचः। उक्त्वा जन्म कुलं मह्यं नासि दाशसुतेति च।। | 1-114-25a 1-114-25b 1-114-25c |
तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत। वरैरसुलभैरुक्ता न प्रत्याख्यातुमुत्सहे।। | 1-114-26a 1-114-26b |
`प्रेक्ष्य तांस्तु महाभागान्पारावारे ऋषीन्स्थितान्। यमुनातीरविन्यस्तान्प्रदीप्तानिव पावकान्।। | 1-114-27a 1-114-27b |
पुरस्तादरुणश्चैव तरुणः संप्रकाशते। येनैषा ताम्रवस्त्रेव द्यौः कृता प्रविजृम्भिता।। | 1-114-28a 1-114-28b |
उक्तमात्रो मया तत्र नीहारमसृजत्प्रभुः। पराशरः सत्यधृतिर्द्वीपे च यमुनाम्भसि।।' | 1-114-29a 1-114-29b |
अभिभूय स मां बालां तेजसा वशमानयत्। तमसा लोकमावृत्य नौगतामेव भारत।। | 1-114-30a 1-114-30b |
मत्स्यगन्धो महानासीत्पुरा मम जुगुप्सितः। तमपास्य शुभं गन्धमिमं प्रादात्स मे मुनिः।। | 1-114-31a 1-114-31b |
ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम्। द्वोपेऽस्या एव सरितः कन्यैव त्वं भविष्यसि।। | 1-114-32a 1-114-32b |
कन्यात्वं च ददौ प्रीतः पुनर्विद्वांस्तपोधनः। तस्य वीर्यमहं दृष्ट्वा तथा युक्तं महात्मनः।। | 1-114-33a 1-114-33b |
विस्मिता व्यथिता चैव प्रादामात्मानमेव च। ततस्तदा महात्मा स कन्यायां मयि भारत। प्रहृष्टोऽजनयत्पुत्रं द्वीप एव पराशरः।।' | 1-114-34a 1-114-34b 1-114-34c |
पाराशर्यो महायोगी स बभूव महानृषिः। कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति श्रुतः।। | 1-114-35a 1-114-35b |
यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः। लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्ण्यात्कृष्णत्वमेव च।। | 1-114-36a 1-114-36b |
सत्यवादी शमपरस्तपस्वी दग्धकिल्बिषः। सद्योत्पन्नः स तु महान्सह पित्रा ततो गतः।। | 1-114-37a 1-114-37b |
स नियुक्तो मया व्यक्तं त्वया चाप्रतिमद्युतिः। भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति।। | 1-114-38a 1-114-38b |
स हि मामुक्तवांस्तत्र स्मरेः कृच्छ्रेषु मामिति। तं स्मरिष्ये महाबाहो यदि भीष्म त्वमिच्छसि।। | 1-114-39a 1-114-39b |
तव ह्यनुमते भीष्म नियतं स महातपाः। विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति।। | 1-114-40a 1-114-40b |
वैशंपायन उवाच। | 1-114-41x |
महर्षेः कीर्तने तस्य भीष्मः प्राञ्जलिरब्रवीत्। `देशकालौ च जानासि क्रियतामर्थसिद्धये।' | 1-114-41a 1-114-41b |
धर्ममर्थं च कामं च त्रीनेतान्योनुपश्यति।। | 1-114-41x |
अर्थमर्थानुबन्धं च धर्मं धर्मानुबन्धनम्। कामं कामानुबन्धं च विपरीतान्पृथक्पृथक्।। | 1-114-42a 1-114-42b |
यो विचिन्त्य धिया धीरो व्यवस्यति स बुद्धिमान्। तदिदं धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः।। | 1-114-43a 1-114-43b |
उक्तं भवत्या यच्छ्रेयस्तन्मह्यं रोचते भृशम्। | 1-114-44a |
वैशंपायन उवाच। | 1-114-44x |
ततस्तस्मिन्प्रतिज्ञाते भीष्मेण कुरुनन्दन।। | 1-114-44b |
कृष्णद्वैपायनं काली चिन्तयामास वै मुनिम्। स वेदान्विब्रुवन्धीमान्मातुर्विज्ञाय चिन्तितम्।। | 1-114-45a 1-114-45b |
प्रादुर्बभूवाविदितः क्षणेन कुरुनन्दन। तस्मै पूजां ततः कृत्वा सुताय विधिपूर्वकम्।। | 1-114-46a 1-114-46b |
परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रस्रवैरभ्यषिञ्चत। मुमोच बाष्पं दाशेयी पुत्रं दृष्ट्वा चिरस्य तु।। | 1-114-47a 1-114-47b |
तामद्भिः परिषिच्यार्तां महर्षिरभिवाद्य च। मातरं पूर्वजः पुत्रो व्यासो वचनमब्रवीत्।। | 1-114-48a 1-114-48b |
भवत्या यदभिप्रेतं तदहं कर्तुमागतः। शाधि मां धर्मतत्त्वज्ञे करवाणि प्रियं तव।। | 1-114-49a 1-114-49b |
तस्मै पूजां ततोऽकार्षीत्पुरोधाः परमर्षये। स च तां प्रतिजग्राह विधिमन्मन्त्रपूर्वकम्।। | 1-114-50a 1-114-50b |
पूजितो मन्त्रपूर्वं तु विधिवत्प्रीतिमाप सः। तमासनगतं माता पृष्ट्वा कुशलमव्ययम्।। | 1-114-51a 1-114-51b |
सत्यवत्यथ वीक्ष्यैनमुवाचेदमनन्तरम्। मातापित्रोः प्रजायन्ते पुत्राः साधारणाः कवे।। | 1-114-52a 1-114-52b |
तेषां पिता यथा स्वीमी तथा माता न संशयः। विधानविहितः स त्वं यथा मे प्रथमः सुतः।। | 1-114-53a 1-114-53b |
विचित्रवीर्यो ब्रह्मर्षे तथा मेऽवरजः सुतः। यथैव पितृतो भीष्मस्तथा त्वमपि मातृतः।। | 1-114-54a 1-114-54b |
भ्राता विचित्रवीर्यस्य यथा वा पुत्र मन्यसे। अयं शान्तनवः सत्यं पालयन्सत्यविक्रमः।। | 1-114-55a 1-114-55b |
बुद्धिं न कुरुतेऽपत्ये तथा राज्याऽनुशासने। स त्वं व्यपेक्षया भ्रातुः सन्तानाय कुलस्य च।। | 1-114-56a 1-114-56b |
भीष्मस्य चास्य वचनान्नियोगाच्च ममानघ। अनुक्रोशाच्च भूतानां सर्वेषां रक्षणाय च।। | 1-114-57a 1-114-57b |
आनृशंस्याच्च यद्ब्रूयां तच्छ्रुत्वा कर्तुमर्हसि। यवीयसस्व भ्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे।। | 1-114-58a 1-114-58b |
रूपयौवनसंपन्ने पुत्रकामे च धर्मतः। तयोरुत्पादयापत्यं समर्थो ह्यसि पुत्रक।। | 1-114-59a 1-114-59b |
अनुरूपं कुलस्यास्य संतत्याः प्रसवस्य च। | 1-114-60a |
व्यास उवाच। | 1-114-60x |
वेत्थ धर्मं सत्यवति परं चापरमेव च।। | 1-114-60b |
तथा तव महाप्राज्ञे धर्मे प्रणिहिता मतिः। तस्मादहं त्वन्नियोगाद्धर्ममुद्दिश्य कारणम्।। | 1-114-61a 1-114-61b |
ईप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्येतत्सनातनम्। भ्रातुः पुत्रान्प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान्।। | 1-114-62a 1-114-62b |
व्रतं चरेतां ते देव्यौ निर्दिष्टमिह यन्मया। संवत्सरं यथान्यायं ततः शुद्धे भविष्यतः।। | 1-114-63a 1-114-63b |
नहि मामव्रतोपेता उपेयात्काचिदङ्गना। | 1-114-64a |
सत्यवत्युवाच। | 1-114-64x |
सद्यो यथा प्रपद्येते देव्यौ गर्भं तथा कुरु।। | 1-114-64b |
अराजकेषु राष्ट्रेषु प्रजाऽनाथा विनश्यति। नश्यन्ति च क्रियाः सर्वा नास्ति वृष्टिर्न देवता।। | 1-114-65a 1-114-65b |
कथं चाराजकं राष्ट्रं शक्यं धारयितुं प्रभो। तस्माद्गर्भं समाधत्स्व भीष्मः संवर्धयिष्यति।। | 1-114-66a 1-114-66b |
व्यास उवाच। | 1-114-67x |
यदि पुत्रः प्रदातव्यो मया भ्रातुरकालिकः। विरूपतां मे सहतां तयोरेतत्परं व्रतम्।। | 1-114-67a 1-114-67b |
यदि मे सहते गन्धं रूपं वेषं तथा वपुः। अद्यैव गर्भं कौसल्या विशिष्टं प्रतिपद्यताम्।। | 1-114-68a 1-114-68b |
`तस्यापि च शतं पुत्रा भवितारो न संशयः। गोप्तारः कुरुवंशस्य भवत्याः शोकनाशनाः।।' | 1-114-69a 1-114-69b |
वैशंपायन उवाच। | 1-114-70x |
एवमुक्त्वा महातेजा व्यासः सत्यवतीं तदा। शयने सा च कौसल्या शुचिवस्त्रा ह्यलङ्कृता।। | 1-114-70a 1-114-70b |
समागमनमाकाङ्क्षेदिति सोऽन्तर्हितो मुनिः। ततोऽभिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम्।। | 1-114-71a 1-114-71b |
धर्म्यमर्थसमायुक्तमुवाच वचनं हितम्। कौसल्ये धर्मतन्त्रं त्वां यद्ब्रवीमि निबोध तत्।। | 1-114-72a 1-114-72b |
भरतानां समुच्छेदो व्यक्तं मद्भाग्यसंक्षयात्। व्यथितां मां च संप्रेक्ष्य पितृवंशं च पीडितम्।। | 1-114-73a 1-114-73b |
भीष्मो बुद्धिमदान्मह्यं कुलस्यास्य विवृद्धये। सा च बुद्धिस्त्वय्यधीना पुत्रि प्रापय मां तथा।। | 1-114-74a 1-114-74b |
नष्टं च भारतं वंशं पुनरेव समुद्धऱ। पुत्रं जनय सुश्रोणि देवराजसमप्रभम्।। | 1-114-75a 1-114-75b |
स हि राज्यधुरं गुर्वीमुद्वक्ष्यति कुलस्य नः। `एवमुक्त्वा तु सा देवी स्नुषां सत्यवती तदा।।' | 1-114-76a 1-114-76b |
सा धर्मतोऽनुनीयैनां कथंचिद्धर्मचारिणीम्। भोजयामास विप्रांश्च देवर्षीनतिथींस्तथा।। | 1-114-77a 1-114-77b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 114 ।। |
1-114-16 संसज्जमानया स्खलनवत्या।। 1-114-17 विश्वासादन्तरङ्गत्वबुद्धेः। संतानाय विस्ताराय।। 1-114-18 आपद्धर्ममवेक्ष्येति शेषः।। 1-114-38 व्यक्तं निःसंशयम्।। 1-114-42 अनुबध्यतेऽनेनेत्यनुबन्धः फलं।। 1-114-45 काली सत्यवती।। 1-114-47 प्रस्रवैः स्नेहस्रुतस्तनैः।। 1-114-53 विधानविहितः पूर्वपुण्यप्रसूतः।। 1-114-56 व्यपेक्षया स्नेहानुबन्धेन।। 1-114-58 आनृशंस्यादनैष्ठुर्यात्।। 1-114-63 देव्यौ राजभार्ये।। 1-114-74 यथा भीष्मेणोक्तं तथा मां प्रापय इष्टार्थेन योजय।। 1-114-76 उद्वक्ष्यति धुरं धुर उद्वहनंम करिष्यति।। चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 114 ।।
आदिपर्व-113 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-115 |