महाभारतम्-01-आदिपर्व-154
← आदिपर्व-153 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-154 वेदव्यासः |
आदिपर्व-155 → |
संग्रहेण जतुगृहदाहकथनम्।। 1 ।।
पुनर्विस्तरेण जतुगृहदाहकथनारम्भः।। 2 ।।
दुर्योधनधृतराष्ट्रसंवादः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-1534-1x |
कणिकस्य मतं श्रुत्वा कार्त्स्न्येन भरतर्षभ। दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः। दुशासनचतुर्थास्ते मन्त्रयामासुरेकदा।। | 1-154-1a 1-154-1b 1-154-1c |
ते कौरव्यमनुज्ञाप्य धृतराष्ट्रं नराधिपम्। दहने तु सपुत्रायाः कुन्त्या बुद्धिमकारयन्।। | 1-154-2a 1-154-2b |
तेषामिङ्गितभावज्ञो विदुरस्तत्त्वदर्शिवान्। आकारेण च तं मन्त्रं बुबुधे दुष्टचेतसाम्।। | 1-154-3a 1-154-3b |
ततो विदितवेद्यात्मा पाण्डवानां हिते रतः। पलायने मतिं चक्रे कुन्त्याः पुत्रैः सहानघः।। | 1-154-4a 1-154-4b |
ततो वातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्। ऊर्मिक्षमां दृढां कृत्वा कुन्तीमिदमुवाच ह।। | 1-154-5a 1-154-5b |
एष जातः कुलस्यास्य कीर्तिवंशप्रणाशनः। धृतराष्ट्रः परीतात्मा धर्मं त्यजति शाश्वतम्।। | 1-154-6a 1-154-6b |
इयं वारिपथे युक्ता तरङ्गपवनक्षमा। नौर्यया मृत्युपाशात्त्वं सपुत्रा मोक्ष्यसे शुभे।। | 1-154-7a 1-154-7b |
तच्छ्रुत्वा व्यथिता कुन्ती पुत्रैः सह यशस्विनी। नावमारुह्य गङ्गायां प्रययौ भरतर्षभ।। | 1-154-8a 1-154-8b |
ततो विदुरवाक्येन नावं विक्षिप्य पाण्डवाः। धनं चादाय तैर्दत्तमरिष्टं प्राविशन्वनम्।। | 1-154-9a 1-154-9b |
निषादी पञ्चपुत्रा तु जातेषु तत्र वेश्मनि। कारणाभ्यागता दग्धा सह पुत्रैरनागसा।। | 1-154-10a 1-154-10b |
स च म्लेच्छाधमः पापो दग्धस्तत्र पुरोचनः। वञ्चिताश्च दुरात्मानो धार्तराष्ट्राः सहानुगाः।। | 1-154-11a 1-154-11b |
अविज्ञाता महात्मनो जनानामक्षतास्तथा। जनन्या सह कौन्तेया मुक्ता विदुरमन्त्रिताः।। | 1-154-12a 1-154-12b |
ततस्तस्मिन्पुरे लोका नगरे वारणावते। दृष्ट्वा जतुगृहं दग्धमन्वशोचन्त दुःखिताः।। | 1-154-13a 1-154-13b |
प्रेषयामासू राजानं यथावृत्तं निवेदितुम्। संवृतस्ते महान्कामः पाण्डवान्दग्धवानसि।। | 1-154-14a 1-154-14b |
सकामो भव कौरव्य भुङ्क्ष्व राज्यं सपुत्रकः। तच्छ्रुत्वा धृतराष्ट्रस्तु सहपुत्रेण शोचयन्।। | 1-154-15a 1-154-15b |
प्रेतकार्याणि च तथा चकार सह बान्धवैः। पाण्डवानां तथा क्षत्ता भीष्मश्च कुरुसत्तमः।। | 1-154-16a 1-154-16b |
जनमेजय उवाच। | 1-154-17x |
पुनर्विस्तरशः श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम। दाहं जतुगृहस्यैव पाण्डवानां च मोक्षणम्।। | 1-154-17a 1-154-17b |
सुनृशंसमिदं कर्म तेषां क्रूरोपसंहितम्। कीर्तयस्व यथावृत्तं परं कौतूहलं मम।। | 1-154-18a 1-154-18b |
वैशंपायन उवाच। | 1-154-19x |
शृणु विस्तरशो राजन्वदतो मे परन्तप। दाहं जतुगृहस्यैतत्पाण्डवानां च मोक्षणम्।। | 1-154-19a 1-154-19b |
वैशंपायन उवाच। | 1-154-20x |
ततो दुर्योधनो राजा धृतराष्ट्रमभाषत। पाण्डवेभ्यो भयं नः स्यात्तान्विवासयतां भवान्। निपुणेनाभ्युपायेन नगरं वारणावतम्।। | 1-154-20a 1-154-20b 1-154-20c |
धृतराष्ट्रस्तु पुत्रेण श्रुत्वा वचनमीरितम्। मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत्।। | 1-154-21a 1-154-21b |
धर्मनित्यः सदा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः। सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मयि त्वासीद्विशेषतः।। | 1-154-22a 1-154-22b |
नासौ किंचिद्विजानाति भोजनादिचिकीर्षितम्। निवेदयति नित्यं हि मम राज्यं धृतव्रतः।। | 1-154-23a 1-154-23b |
तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः। गुणवान्लोकविख्यातः पौरवाणां सुसंमतः।। | 1-154-24a 1-154-24b |
स कथं शक्यतेऽस्माभिरपाकर्तुं बलादितः। पितृपैतामाहाद्राज्यात्ससहायो विशेषतः।। | 1-154-25a 1-154-25b |
भृता हि पाण्डुनाऽमात्या बलं च सततं भृतम्। भृताः पुत्राश्च पौत्राश्च तेषामपि विशेषतः।। | 1-154-26a 1-154-26b |
ते पुरा सत्कृतास्तात पाण्डुना नागरा जनाः। कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्युः सबान्धवान्।। | 1-154-27a 1-154-27b |
दुर्योधन उवाच। | 1-154-28x |
एवमेतन्मया तात भावितं दोषमात्मनि। दृष्ट्वा प्रकृतयः सर्वा अर्थमानेन पूजिताः।। | 1-154-28a 1-154-28b |
ध्रुवमस्मत्सहायास्ते भविष्यन्ति प्रधानतः। अर्थवर्गः सहामात्यो मत्संस्थोऽद्य महीपते।। | 1-154-29a 1-154-29b |
स भवान्पाण्डवानाशु विवासयितुमर्हति। मृदुनैवाभ्युपायेन नगरं वारणावतम्।। | 1-154-30a 1-154-30b |
यदा प्रतिष्ठितं राज्यं मयि राजन्भविष्यति। तदा कुन्ती सहापत्या पुनरेष्यति भारत।। | 1-154-31a 1-154-31b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-154-32x |
दुर्योधन ममाप्येतद्धृदि संपरिवर्तते। अभिप्रायस्य पापत्वान्नैवं तु विवृणोम्यहम्।। | 1-154-32a 1-154-32b |
न च भीष्मो न च द्रोणो न च क्षत्ता न गौतमः। विवास्यमानान्कौन्तेयाननुमंस्यन्ति कर्हिचित्।। | 1-154-33a 1-154-33b |
समा हि कौरवेयाणां वयं ते चैव पुत्रक। नैते विषममिच्छेयुर्धर्मयुक्ता मनस्विनः।। | 1-154-34a 1-154-34b |
ते वयं कौरवेयाणामेतेषां च महात्मनाम्। कथं न वध्यतां तात गच्छाम जगतस्तथा।। | 1-154-35a 1-154-35b |
दुर्योधन उवाच। | 1-154-36x |
मध्यस्थः सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थितः। यतः पुत्रस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशयः।। | 1-154-36a 1-154-36b |
कृपः शारद्वतश्चैव यत एतौ ततो भवेत्। द्रोणं च भागिनेयं च न स त्यक्ष्यति कर्हिचित्।। | 1-154-37a 1-154-37b |
क्षत्ताऽर्थबद्धस्त्वस्माकं प्रच्छन्नं संयतः परैः। न चैकः स समर्थोऽस्मान्पाम्डवार्थेऽधिबाधितुम्।। | 1-154-38a 1-154-38b |
सुविस्रब्धः पाण्डुपुत्रान्सह मात्रा प्रवासय। वारणावतमद्यैव यथा यान्ति यथा कुरु।। | 1-154-39a 1-154-39b |
विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्। शोकपावकमुद्भूतं कर्मणैतेन नाशय।। | 1-154-40a 1-154-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 154 ।। |
1-154-2 अनुज्ञाप्य पृष्ट्वा।। 1-154-3 इङ्गितं चेष्टितं तेन भावं चित्ताभिप्रायं जानातीति इङ्गितभावज्ञः।। 1-154-4 विदितवेद्यो ज्ञाततत्त्व आत्मा चित्तं यस्य।। 1-154-5 यन्त्रयुक्तां यन्त्रं महत्यपि वाते जलाशये नौकास्तम्भकं लोहलङ्गलमयम्।। 1-154-9 अरिष्टं निर्विघ्नम्।। 1-154-18 क्रूरेण कणिकेनोपसंहितमुपदिष्टम्।। चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 154 ।।
आदिपर्व-153 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-155 |