महाभारतम्-01-आदिपर्व-222
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भीष्मेण दुर्योधनादिसमीपे पाण्डवेक्ष्योऽर्धराज्यं दातव्यमिति स्वाबिप्रायकथनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 1-222-1x |
न रोचते विग्रहो मे पाण्डुपुत्रैः कथंचन। यथैव धृतराष्ट्रो मे तथा पाण्डुरसंशयम्।। | 1-222-1a 1-222-1b |
गान्धार्याश्च यथा पुत्रास्तथा कुन्तीसुता मम। यथा च मम ते रक्ष्या धृतराष्ट्र तथा तव।। | 1-222-2a 1-222-2b |
यथा च मम राज्ञश्च तथा दुर्योधनस्य ते। तथा कुरूणां सर्वेषामन्येषामपि पार्थिव।। | 1-222-3a 1-222-3b |
एवं गते विग्रहं तैर्न रोचे सन्धाय वीरैर्दीयतामर्धभूमिः। तेषामपीदं प्रपितामहानां राज्यं पितुश्चैव कुरूत्तमानाम्।। | 1-222-4a 1-222-4b 1-222-4c 1-222-4d |
दुर्योधन यथा र्जायं त्वमिदं तात पश्यसि। मम पैतृकमित्येवं तेऽपि पश्यन्ति पाण्डवाः।। | 1-222-5a 1-222-5b |
यदि राज्यं न ते प्राप्ताः पाण्डवेया यशस्विनः। कुत एव तवापीदं भारतस्यापि कस्यचित्।। | 1-222-6a 1-222-6b |
अधर्मेण च राज्यं त्वं प्राप्तवान्भरतर्षभ। तेऽपि राज्यमनुप्राप्ताः पूर्वमेवेति मे मतिः।। | 1-222-7a 1-222-7b |
मधुरेणैव राज्यस्य तेषामर्धं प्रदीयताम्। एतद्धि पुरुषव्याघ्र हितं सर्वजनस्य च।। | 1-222-8a 1-222-8b |
अतोऽन्यथा चेत्क्रियते न हितं नो भविष्यति। तवाप्यकीर्तिः सकला भविष्यति न संशयः।। | 1-222-9a 1-222-9b |
कीर्तिरक्षणमातिष्ठ कीर्तिर्हि परमं बलम्। नष्टकीर्तेर्मनुष्यस्य जीवितं ह्यफळं स्मृतम्।। | 1-222-10a 1-222-10b |
यावत्कीर्तिर्मनुष्यस्य न प्रणश्यति कौरव। तावज्जीवति गान्धरे नष्टकीर्तिस्तु नश्यति।। | 1-222-11a 1-222-11b |
तमिमं समुपातिष्ठ धर्मं कुरुकुलोचितम्। अनुरूपं महाबाहो पूर्वेषामात्मनः कुरु।। | 1-222-12a 1-222-12b |
दिष्ट्या ध्रियन्ते पार्था हि दिष्ट्या जीवति सा पृथा। दिष्ट्या पुरोचनः पापो न सकामोऽत्ययं गतः।। | 1-222-13a 1-222-13b |
यदाप्रभृति दग्धास्ते कुन्तिभोजसुतासुताः। तदाप्रभृति गान्धारे न शक्नोम्यभिवीक्षितुम्।। | 1-222-14a 1-222-14b |
लोके प्राणभृतां किंचिच्छ्रुत्वा कुन्तीं तथागताम्। न चापि दोषेण तथा लोको मन्येत्पुरोचनम्। यथा त्वां पुरुषव्याघ्र लोको दोषेण गच्छति।। | 1-222-15a 1-222-15b 1-222-15c |
तदिदं जीवितं तेषां तव किल्बिषनाशनम्। संमन्तव्यं महाराज पाण्डवानां च दर्शनम्।। | 1-222-16a 1-222-16b |
न चापि तेषां वीराणां जीवतां कुरुनन्दन। पित्र्योंशः शक्य आदातुमपि वज्रभृता स्वयं।। | 1-222-17a 1-222-17b |
ते सर्वेऽवस्थिता धर्मे सर्वे चैवैकचेतसः। अधर्मेण निरस्ताश्च तुल्ये राज्ये विशेषतः।। | 1-222-18a 1-222-18b |
यदि धर्मस्त्वया कार्यो यदि कार्यं प्रियं च मे। क्षेमं च यदि कर्तव्यं तेषामर्धं प्रदीयताम्।। | 1-222-19a 1-222-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 222 ।। |
1-222-8 मधुरेण प्रीत्या।।
1-222-13 ध्रियन्ते जीवन्ति।। 1-222-15 गच्छति अवगच्छति।। द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 222 ।।
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