महाभारतम्-01-आदिपर्व-036
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शेषस्य ब्रह्मणो वरलाभः पृथ्वीधारणाज्ञा च।। 1 ।।
शौन उवाच। | 1-36-1x |
आख्याता भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदाः। शापं तं तेऽभिविज्ञाय कृतवन्तः किमुत्तरम्।। | 1-36-1a 1-36-1b |
सौतिरुवाच। | 1-36-2x |
तेषां तु भगवाञ्छेषः कद्रूं त्यक्त्वा महायशाः। उग्रं तपः समातस्थे वायुभक्षो यतव्रतः।। | 1-36-2a 1-36-2b |
गन्धमादनमासाद्य बदर्यां च तपोरतः। गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे।। | 1-36-3a 1-36-3b |
तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च। एकान्तशीलो नियतः सततं विजितेन्द्रियः।। | 1-36-4a 1-36-4b |
तप्यमानं तपो घोरं तं ददर्श पितामहः। संशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं मुनिम्।। | 1-36-5a 1-36-5b |
तमब्रवीत्सत्यधृतिं तप्यमानं पितामहः। किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु।। | 1-36-6a 1-36-6b |
त्वं हि तीव्रेण तपसा प्रजास्तापयसेऽनघ। ब्रूहि कामं च मे शेष यस्ते हृदि व्यवस्थितः।। | 1-36-7a 1-36-7b |
शेष उवाच। | 1-36-8x |
सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतसः। सह तैर्नोत्सहे वस्तुं तद्भवाननुमन्यताम्।। | 1-36-8a 1-36-8b |
अभ्यसूयन्ति सततं परस्परममित्रवत्। ततोऽहं तप आतिष्ठे नैतन्पश्येयमित्युत।। | 1-36-9a 1-36-9b |
न मर्षयन्ति ससुतां सततं विनतां च ते। अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयोऽन्तरिक्षगः।। | 1-36-10a 1-36-10b |
तं च द्विषन्ति सततं स चापि बलवत्तरः। वरप्रदानात्स पितुः कश्यपस्य महात्मनः।। | 1-36-11a 1-36-11b |
सोऽहं तपः समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम्। कथं मे प्रेत्यभावेऽपि न तैः स्यात्सह सङ्गमः।। | 1-36-12a 1-36-12b |
तमेवं वादिनं शेषं पितामह उवाच ह। जानामि शेष सर्वेषां भ्रातॄणां ते विचेष्टितम्।। | 1-36-13a 1-36-13b |
मातुश्चाप्यपराधाद्वै भ्रातॄणां ते महद्भयम्। कृतोऽत्र परिहारश्च पूर्वमेव भुजङ्गम।। | 1-36-14a 1-36-14b |
भ्रातॄणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमर्हसि। वृणीष्व च वरं मत्तः शेष यत्तेऽभिकाङ्क्षितम्।। | 1-36-15a 1-36-15b |
दास्यामि हि वरं तेऽद्य प्रीतिर्मे परमा त्वयि। दिष्ट्या बुद्धिश्च ते धर्मे निविष्टा पन्नगोत्तम। भूयो भूयश्च ते बुद्धिर्धर्मे भवतु सुस्थिरा।। | 1-36-16a 1-36-16b 1-36-16c |
शेष उवाच। | 1-36-16x |
एष एव वरो देव काङ्क्षितो मे पितामह। धर्मे मे रमतां बुद्धिः शमे तपसि चेश्वर।। | 1-36-17a 1-36-17b |
ब्रह्मोवाच। | 1-36-18x |
प्रीतोऽस्म्यनेन ते शेष दमेन च शमेन च। त्वया त्विदं वचः कार्यं मन्नियोगात्प्रजाहितम्।। | 1-36-18a 1-36-18b |
इमां महीं शैलवनोपपन्नां ससागरग्रामविहारपत्तनाम् त्वं शेष सम्यक् चलितां यथाव- त्संगृह्य तिष्ठस्व यथाऽचला स्यात्।। | 1-36-19a 1-36-19b 1-36-19c 1-36-19d |
शेष उवाच। | 1-36-20x |
यथाऽऽह देवो वरदः प्रजापति- र्महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पतिः। तथा महीं धारयिताऽस्मि निश्चलां प्रयच्छतां मे विवरं प्रजापते।। | 1-36-20a 1-36-20b 1-36-20c 1-36-20d |
ब्रह्मोवाच। | 1-36-21x |
अधो महीं गच्छ भुजङ्गमोत्तम स्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति। इमां धरां धारयता त्वया हि मे महत्प्रियं शेष कृतं भविष्यति।। | 1-36-21a 1-36-21b 1-36-21c 1-36-21d |
सौतिरुवाच। | 1-36-22x |
तथैव कृत्वा विवरं प्रविश्य स प्रभुर्भुवो भुजगवराग्रजः स्थितः। बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमां समुद्रनेमिं परिगृह्य सर्वतः।। | 1-36-22a 1-36-22b 1-36-22c 1-36-22d |
ब्रह्मोवाच। | 1-36-23x |
शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवो महीमिमां धारयसे यदेकः। अनन्तभोगैः परिगृह्य सर्वां यथाहमेवं बलभिद्यथा वा।। | 1-36-23a 1-36-23b 1-36-23c 1-36-23d |
सौतिरुवाच। | 1-36-24x |
अधो भूमौ वसत्येवं नागोऽनन्तः प्रतापवान्। धास्यन्वसुधामेकः शासनाद्ब्रह्मणो विभोः।। | 1-36-24a 1-36-24b |
सुपर्णं च सहायं वै भगवानमरोत्तमः। प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामहः।। | 1-36-25a 1-36-25b |
`अनन्तेऽभिप्रयाते तु वासुकिः स महाबलः। अभ्यषिच्यत नागैस्तु दैवतैरिव वासवः।।' | 1-36-26a 1-36-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।। |
1-36-1 उत्तरं अनन्तरम्।। 1-36-23 अनन्तभोगैः अनन्तफणाभिः।। षट्त्रिंशोऽध्यायः।। 36 ।।
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