महाभारतम्-01-आदिपर्व-134
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पाण्डवानामायुष्यकथनम्।। 1 ।।
माद्र्या मैथुनप्रवृत्तस्य पाण्डोर्मरणम्।। 2 ।।
पाण्डवप्रलापः।। 3 ।।
माद्र्याः सहगमनम्।। 4 ।।
मृतस्य पाण्डोर्दहनादिसंस्कारः।। 5 ।।
`जनमेजय उवाच। | 1-134-1x |
कस्मिन्वयसि संप्राप्ताः पाण्डवा गजसाह्वयम्। समपद्यन्त देवेभ्यस्तेषामायुश्च किं परम्।। | 1-134-1a 1-134-1b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-2x |
पाण्डवानामिहायुष्यं शृणु कौरवनन्दन। जगाम हास्तिनपुरं षोडशाब्दो युधिष्ठिरः।। | 1-134-2a 1-134-2b |
भीमसेनः पञ्चदशो बीभत्सुर्वै चतुर्दशः। त्रयोदशाब्दौ च यमौ जग्मतुर्नागसाह्वयम्।। | 1-134-3a 1-134-3b |
तत्र त्रयोदशाब्दानि धार्तराष्ट्रैः सहोषिताः। षण्मासाञ्जातुषगृहान्मुक्ता जातो घटोत्कचः।। | 1-134-4a 1-134-4b |
षण्मासानेकचक्रायां वर्षं पाञ्चालके गृहे। धार्तराष्ट्रैः सहोषित्वा पञ्च वर्षाणि भारत।। | 1-134-5a 1-134-5b |
इन्द्रप्रस्थे वसन्तस्ते त्रीणि वर्षाणि विंशतिम्। द्वादशाब्दानथैकं च बभूवुर्द्यूतनिर्जिताः।। | 1-134-6a 1-134-6b |
भुक्त्वा षट्त्रिंशतं राजन्सागरान्तां वसुन्धराम्। मासैः षड्भिर्महात्मानः सर्वे कृष्णपरायणाः।। | 1-134-7a 1-134-7b |
राज्ये परीक्षितं स्थाप्य दिष्टां गतिमवाप्नुवन्। एवं युधिष्ठिरस्यासीदायुरष्टोत्तरं शतम्।। | 1-134-8a 1-134-8b |
अर्जुनात्केशवो ज्येष्ठस्त्रिभिर्मासैर्महाद्युतिः। कृष्णात्संकर्षणो ज्येष्ठस्त्रिभिर्मासैर्महाबलः।। | 1-134-9a 1-134-9b |
पाण्डुः पञ्चमहातेजास्तान्पश्यन्पर्वते सुतान्। रेमे स काश्यपयुतः पत्नीभ्यां सुभृशं तदा।। | 1-134-10a 1-134-10b |
सुपुष्पितवने काले प्रवृत्ते मधुमाधवे। पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फल्गुनस्य च धीमतः।। | 1-134-11a 1-134-11b |
यस्मिन्नृक्षे समुत्पन्नः पार्थस्तस्य च धीमतः। तस्मिन्नुत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने।। | 1-134-12a 1-134-12b |
रक्षणे विस्मृता कुन्ती व्यग्रा ब्राह्मणभोजने। पुरोहितेन सहितान्ब्राह्मणान्पर्यवेषयत्।।' | 1-134-13a 1-134-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-14x |
दर्शनीयांस्ततः पुत्रान्पाण्डुः पञ्च महावने। तान्पश्यन्पर्वते रम्ये स्वबाहुबलमाश्रितः।। | 1-134-14a 1-134-14b |
सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे। भूतसंमोहने राजा सभार्यो व्यचरद्वनम्।। | 1-134-15a 1-134-15b |
पलाशैस्तिलकैश्चूतैश्चम्पकैः पारिभद्रकैः। अन्यैश्च बहुभिर्वृक्षैः फलपुष्पसमृद्धिभिः।। | 1-134-16a 1-134-16b |
जलस्थानैश्च विविधैः पद्मिनीभिश्च शोभितम्। पाण्डोर्वनं तत्संप्रेक्ष्य प्रजज्ञे हृदि मन्मथः।। | 1-134-17a 1-134-17b |
प्रहृष्टमनसं तत्र विचरन्तं यथाऽमरम्। तं माद्र्यनुजगामैका वसनं बिभ्रती शुभम्।। | 1-134-18a 1-134-18b |
समीक्षमाणः स तु तां वयःस्थां तनुवाससम्। तस्य कामः प्रवृते गहनेऽग्निरिवोद्गतः।। | 1-134-19a 1-134-19b |
रहस्येकां तु तां दृष्ट्वा राजा राजीवलोचनाम्। न शशाक नियन्तुं तं कामं कामवशीकृतः।। | 1-134-20a 1-134-20b |
`अथ सोऽष्टादशे वर्षे ऋतौ माद्रमलङ्कृताम्। आजुहाव ततः पाण्डुः परीतात्मा यशस्विनीम्।।' | 1-134-21a 1-134-21b |
तत एनां बलाद्राजा निजग्राह रहोगताम्। वार्यमाणस्तया देव्या विस्फुरन्त्या यथाबलम्।। | 1-134-22a 1-134-22b |
स तु कामपरीतात्मा तं शापं नान्वबुध्यत। माद्रीं मैथुनधर्मेण सोऽन्वगच्छद्बलादिव।। | 1-134-23a 1-134-23b |
जीवितान्ताय कौरव्य मन्मथस्य वशं गतः। शापजं भयमुत्सृज्य विधिना संप्रचोदितः।। | 1-134-24a 1-134-24b |
तस्य कामात्मनो बुद्धिः साक्षात्कालेन मोहिता। संप्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रनष्टा सह चेतसा।। | 1-134-25a 1-134-25b |
स तया सह संगम्य भार्यया कुरुनन्दनः। पाण्डुः परमधर्मात्मा युयुजे कालधर्मणा।। | 1-134-26a 1-134-26b |
ततो माद्री समालिङ्ग्य राजानं गतचेतसम्। मुमोच दुःखजं शब्दं पुनः पुनरतीव हि।। | 1-134-27a 1-134-27b |
सह पुत्रैस्ततः कुन्ती माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। आजग्मुः सहितास्तत्र यत्र राजा तथागतः।। | 1-134-28a 1-134-28b |
ततो माद्र्यब्रवीद्राजन्नार्ता कुन्तीमिदं वचः। एकैव त्वमिहागच्छ तिष्ठन्त्वत्रैव दारकाः।। | 1-134-29a 1-134-29b |
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्यास्तत्रैवाधाय दरकान्। हता।हमिति विक्रुश्च सहसैवाजगाम सा।। | 1-134-30a 1-134-30b |
दृष्ट्वा पाण्डुं च माद्रीं च शयानौ धरणीतले। कुन्ती शोकपरीताङ्गी विललाप सुदुःखिता।। | 1-134-31a 1-134-31b |
रक्ष्यमाणो मया नित्यं वीरः सततमात्मवान्। कथं त्वामत्यतिक्रान्तः शापं जानन्वनौकसः।। | 1-134-32a 1-134-32b |
ननु नाम त्वया माद्रि रक्षितव्यो नराधिपः। सा कथं लोभितवती विजने त्वं नराधिपम्।। | 1-134-33a 1-134-33b |
कथं दीनस्य सततं त्वामासाद्य रहोगताम्। तं विचिन्तयतः शापं प्रहर्षः समजायत।। | 1-134-34a 1-134-34b |
धन्या त्वमसि बाह्लीकि मत्तो भाग्यतरा तथा। दृष्टवत्यसि यद्वक्त्रं प्रहृष्टस्य महीपतेः।। | 1-134-35a 1-134-35b |
माद्र्युवाच। | 1-134-36x |
विलपन्त्या मया देवि वार्यमाणेन चासकृत्। आत्मा न वारितोऽनेन सत्यं दिष्टं चिकीर्षुणा।। | 1-134-36a 1-134-36b |
`वैशंपायान उवाच। | 1-134-37x |
तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा कुन्ती शोकाग्निदीपिता। पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः।। | 1-134-37a 1-134-37b |
निश्चेष्टा पतिता भूमौ मोहेन न चचाल सा। तस्मिन्क्षणे कृतस्नानमहताम्बरसंवृतम्।। | 1-134-38a 1-134-38b |
अलङ्कारकृतं पाण्डुं शयानं शयने शुभे। कुन्तीमुत्थाप्य माद्री तु मोहेनाविष्टचेतनाम्।। | 1-134-39a 1-134-39b |
आर्ये एहीति तां कुन्तीं दर्शयामास कौरव। पादयोः पतिता कुन्ती पुनरुत्थाय भूमिपम्।। | 1-134-40a 1-134-40b |
रक्तचन्दनदिग्धांङ्गं महारजनवाससम्। सस्मितेन च वक्त्रेण वदन्तमिव भारतम्।। | 1-134-41a 1-134-41b |
परिरभ्य ततो मोहाद्विललापाकुलेन्द्रिया। माद्री चापि समालिङ्ग्य राजानं विललाप सा।। | 1-134-42a 1-134-42b |
तं तथा शायिनं पुत्रा ऋषयः सह चारणैः। अभ्येत्य सहिताः सर्वे शोकादश्रूण्यवर्तयन्।। | 1-134-43a 1-134-43b |
अस्तं गतमिवादित्यं संशुष्कमिव सागरम्। दृष्ट्वा पाण्डुं नरव्याघ्रं शोचन्ति स्म महर्षयः।। | 1-134-44a 1-134-44b |
समानशोका ऋषयः पाण्डवाश्च बभूविरे। ते समाश्वासिते विप्रैर्विलेपतुरनिन्दिते।। | 1-134-45a 1-134-45b |
कुन्त्युवाच। | 1-134-46x |
हा राजन्कस्य नो हित्वा गच्छसि त्रिदशालयम्। हा राजन्मम मन्दायाः कथं माद्रीं समेत्य वै।। | 1-134-46a 1-134-46b |
निधनं प्राप्तवान्राजन्मद्भाग्यपरिसंक्षयात्। युधिष्ठिरं भीमसेनमर्जुनं च यमावुभौ।। | 1-134-47a 1-134-47b |
कस्य हित्वा प्रियान्पुत्रान्प्रयातोऽसि विशांपते। नूनं त्वां त्रिदशा देवाः प्रतिनन्दन्ति भारत।। | 1-134-48a 1-134-48b |
यतो हि तप उग्रं वै चरितं ब्रह्मसंसदि। आवाभ्यां सहितो राजन्गमिष्यसि दिवं शुभम्।। | 1-134-49a 1-134-49b |
आजमीढाजमीढानां कर्मणा चरतां गतिम्। ननु नाम सहावाभ्यां गमिष्यामीति यत्त्वया।। | 1-134-50a 1-134-50b |
प्रतिज्ञाता कुरुश्रेष्ठ यदाऽस्मि वनमागता। आवाभ्यां चैव सहितो गमिष्यसि विशांपते। मुहूर्तं क्षम्यतां राजन्द्रक्ष्येऽहं च मुखं तव।। | 1-134-51a 1-134-51b 1-134-51c |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-52x |
विलपित्वा भृशं चैव निःसंज्ञे पतिते भुवि। यथा हते मृगे मृग्यौ लुब्धैर्वनगते तथा।। | 1-134-52a 1-134-52b |
युधिष्ठिरमुखाः सर्वे पाण्डवा वेदपरागाः। तेऽभ्यागत्य पितुर्मूले निःसंज्ञाः पतिता भुवि।। | 1-134-53a 1-134-53b |
पाण्डोः पादौ परिष्वज्य विलपन्ति स्म पाण्डवाः। हा विनष्टाः स्म तातेति हा अनाथा भवामहे।। | 1-134-54a 1-134-54b |
त्वद्विहीना महाप्राज्ञ कथं जीवाम बालकाः। लोकनाथस्य पुत्राः स्मो न सनाथा भवामहे।। | 1-134-55a 1-134-55b |
क्षणेनैव महाराज अहो लोकस्य चित्रता। नास्मद्विधा राजपुत्रा अधन्याः सन्ति भारत।। | 1-134-56a 1-134-56b |
त्वद्विनाशाच्च राजेन्द्र राज्यप्रस्खलनात्तदा। पाण्डवाश्च वयं सर्वे प्राप्ताः स्म व्यसनं महत्।। | 1-134-57a 1-134-57b |
किं करिष्यामहे राजन्कर्तव्यं च प्रसीदताम्। | 1-134-58a |
भीमसेन उवाच। | 1-134-58x |
हित्वा राज्यं च भोगांश्च शतशृङ्गनिवासिना।। | 1-134-58b |
त्वया लब्धाः स्म राजेन्द्र महता तपसा वयम्। हित्वा मानं वनं गत्वा स्वयमाहृत्य भक्षणम्।। | 1-134-59a 1-134-59b |
शाकमूलफलैर्वन्यैर्भरणं वै त्वया कृतम्। पुत्रानुत्पाद्य पितरो यमिच्छ्ति महातम्नः।। | 1-134-60a 1-134-60b |
त्रिवर्गफलमिच्छन्तस्तस्य कालोऽयमागतः। अभुक्त्वैव फलं राजन्गन्तुं नार्हसि भारत।। | 1-134-61a 1-134-61b |
इत्येवमुक्त्वा पितरं भीमोऽपि विललाप।। | 1-134-62a |
अर्जुन उवाच। | 1-134-63x |
प्रनष्टं भारतं वंशं पाण्डुना पुनरुद्धृतम्। तस्मिंस्तदा वनगते नष्टं राज्यमराजकम्।। | 1-134-63a 1-134-63b |
पुनर्निःसारितं क्षत्रं पाण्डुपुत्रैश्च पञ्चभिः। एतच्छ्रुत्वाऽनुमोदित्वा गन्तुमर्हसि शङ्कर।। | 1-134-64a 1-134-64b |
इत्येवमुक्त्वा पितरं विललाप धनञ्जयः। | 1-134-65a |
यमावूचतुः। | 1-134-65x |
दुःसहं च तपः कृत्वा लब्ध्वा नो भरतर्षभ।। | 1-134-65b |
पुत्रलाभस्य महतः शुश्रूषादिफलं त्वया। न चावाप्तं किंचिदेव पुरा दशरथो यथा।। | 1-134-66a 1-134-66b |
एवमुक्त्वा यमौ चापि विलेपतुरथातुरौ।।' | 1-134-67a |
कुन्त्युवाच। | 1-134-68x |
अहं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठं धर्मफलं मम। अवश्यं भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय।। | 1-134-68a 1-134-68b |
अन्विष्यामीह भर्तारमहं प्रेतवशं गतम्। उत्तिष्ठ त्वं विसृज्यैनमिमान्रक्षस्व दारकान्।। | 1-134-69a 1-134-69b |
`अवाप्य पुत्रांल्लब्धार्थान्वीरपत्नीत्वमर्थये। | 1-134-70a |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-70x |
मद्रराजसुता कुन्तीमिदं वचनमब्रवीत्।।' | 1-134-70b |
अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलापिनम्। न हि तृप्ताऽस्मि कामानां ज्येष्ठा मामनुमन्यताम्।। | 1-134-71a 1-134-71b |
मां चाभिगम्य क्षीणोऽयं कामाद्भरतसत्तमः। समुच्छिद्यामि तत्कामं कथं नु यमसादने।। | 1-134-72a 1-134-72b |
`मम हतोर्हि राजाऽयं दिवं राजर्पिसत्तमः। न चैव तादृशी बुद्धिर्बान्धवाश्च न तादृशाः।। | 1-134-73a 1-134-73b |
न चोत्सहे धारयितुं प्राणान्भर्त्रा विना कृता। तस्मात्तमनुयास्यामि यान्तं वैवस्वतक्षयम्।। | 1-134-74a 1-134-74b |
वर्तेयं न समां वृत्तिं जात्वहं न सुतेषु ते। तथाहि वर्तमानां मामधर्मः संस्पृशेन्महान्।। | 1-134-75a 1-134-75b |
तस्मान्मे सुतयोर्देवि वर्तितव्यं स्वपुत्रवत्। अन्वेष्यामि च भर्तारं व्रजन्तं यमसादनम्।।' | 1-134-76a 1-134-76b |
मां हि कामयमानोऽयं राजा प्रेतवशं गतः। राज्ञः शरीरेण सह मामपीदं कलेवरम्।। | 1-134-77a 1-134-77b |
दग्धव्यं सुप्रतिच्छन्नं त्वेतदार्ये प्रियं कुरु। दारकेष्वप्रमत्ता त्वं भवेश्चाभिहिता मया। अतोऽहं न प्रपश्यामि संदेष्टव्यं हितं तव।। | 1-134-78a 1-134-78b 1-134-78c |
`वैशंपायन उवाच। | 1-134-79x |
ऋषयस्तान्समाश्वास्य पाण्डवान्सत्यविक्रमान्। ऊचुः कुन्तीं च माद्रीं च समाश्वास्य तपस्विनः।। | 1-134-79a 1-134-79b |
सुभगे बालपुत्रा तु न मर्तव्यं तथंचन। पाण्डवांश्चापि नेष्यामः कुरुराष्ट्रं परन्तपान्।। | 1-134-80a 1-134-80b |
अधर्मेष्वर्थजातेषु धृतराष्ट्रश्च लोभवान्। स कदाचिन्न वर्तेत पाण्डवेषु यथाविधि।। | 1-134-81a 1-134-81b |
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च। माद्र्याश्च बलिनांश्रेष्ठः शल्यो भ्राता महारथः।। | 1-134-82a 1-134-82b |
भर्त्रा तु मरणं सार्धं फलवन्नात्र संशयः। युवाभ्यां दुष्करं चैतद्वदन्ति द्विजपुङ्गवाः।। | 1-134-83a 1-134-83b |
मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता। यमैश्च नियमैः पूता मनोवाक्कायजैः शुभा।। | 1-134-84a 1-134-84b |
भर्तारं चिन्तयन्ती सा भर्तारं निस्तरेच्छुभा। तारितश्चापि भर्ता स्यादात्मा पुत्रस्तथैव च।। | 1-134-85a 1-134-85b |
तस्माञ्जीवितमेवैतद्युवयोर्विद्म शोभनम्।। | 1-134-86a |
कुन्त्युवाच। | 1-134-87x |
यथा पाण्डोस्तु निर्देशस्तथा विप्रगणस्य च। आज्ञा शिरसि निक्षिप्ता करिष्यामि च तत्तथा।। | 1-134-87a 1-134-87b |
यदाद्दुर्भगवन्तोऽपि तन्मन्ये शोभनं परम्। भर्तुश्च मम पुत्राणामात्मनश्च न संशयः।। | 1-134-88a 1-134-88b |
माद्र्युवाच। | 1-134-89x |
कुन्ती समर्था पुत्राणां योगक्षेमस्य धारणे। अस्या हि न समा बुद्ध्या यद्यपि स्यादरुन्धती।। | 1-134-89a 1-134-89b |
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च। नाहं त्वमिव पुत्राणां समर्था धारणे तथा।। | 1-134-90a 1-134-90b |
साऽहं भर्तारमन्विष्ये संतृप्ता नापि भोगतः। भर्तृलोकस्य तु ज्येष्ठा देवी मामनुमन्यताम्।। | 1-134-91a 1-134-91b |
धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य सत्यसन्धस्य धीमतः। पादौ परिचरिष्यामि तथार्याऽद्यानुमन्यताम्।। | 1-134-92a 1-134-92b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-93x |
एवमुक्त्वा तदा राजन्मद्रराजसुता शुभा। ददौ कुन्त्यै यमौ माद्री शिरसाऽभिप्रणम्य च।। | 1-134-93a 1-134-93b |
अभिवाद्य महर्षीन्सा परिष्वज्य च पाण्डवान्। मूर्ध्न्युपाघ्राय बहुशः पार्थानात्मसुतौ तदा।। | 1-134-94a 1-134-94b |
हस्ते युधिष्ठिरं गृह्य माद्री वाक्यमभाषत। कुन्ती माता अहं धात्री युष्माकं तु पिता मृतः।। | 1-134-95a 1-134-95b |
युधिष्ठिरः पिता ज्येष्ठश्चतुर्णां धर्मतः सदा। वृद्धाद्युपासनासक्ताः सत्यधर्मपरायणाः।। | 1-134-96a 1-134-96b |
तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्। तस्मात्सर्वे कुरुध्वं वै गुरुवृत्तिमतन्द्रिताः।। | 1-134-97a 1-134-97b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-98x |
ऋषीणां च पृथायाश्च नमस्कृत्य पुनःपुनः। आयासकृपणा माद्री प्रत्युवाच पृथां तदा।। | 1-134-98a 1-134-98b |
माद्र्युवाच। | 1-134-99x |
ऋषीणां संनिधावेषां यथा वागभ्युदीरिता। दिदृक्षमाणायाः स्वर्गं न ममैषा वृथा भवेत्।। | 1-134-99a 1-134-99b |
धन्या त्वमसि वार्ष्णेयि नास्ति स्त्री सदृशी त्वया। वीर्यं तेजश्च योगं च माहात्म्यं च यशस्विनाम्।। | 1-134-100a 1-134-100b |
कुन्ति द्रक्ष्यसि पुत्राणां पञ्चानाममितौजसाम्। आर्या चाप्यभिवाद्या च मम पूज्या च सर्वतः।। | 1-134-101a 1-134-101b |
ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वं देवि भूषिता स्वगुणैः शुभैः। अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि त्वया यावनन्दिनि।। | 1-134-102a 1-134-102b |
धर्मं स्वर्गं च कीर्तिं च त्वत्कृतेऽहमवाप्नुयाम्। यथा तथा विधत्स्वेह मा च कार्षीर्विचारणां।। | 1-134-103a 1-134-103b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-104x |
बाष्पसंदिग्धया वाचा कुन्त्युवाच यशस्विनी। अनुज्ञाताऽसि कल्याणि त्रिदिवे सङ्गमोऽस्तु ते।। | 1-134-104a 1-134-104b |
भर्त्रा सह विशालिक्षि क्षिप्रमद्यैव भामिनि। संगतास्वर्गलोके त्वं रमेथाः शाश्वतीः समाः।। | 1-134-105a 1-134-105b |
वैशंपायन उवाच। | 1-134-106x |
ततः पुरोहितः स्नात्वा प्रेतकर्मणि पारगः। हिरण्यशकलानाज्यं तिलं दधि च तण्डुलान्।। | 1-134-106a 1-134-106b |
उदकुम्भांश्च परशुं समानीय तपस्विभिः। अश्वमेधाग्निमाहृत्य यथान्यायं समन्ततः।। | 1-134-107a 1-134-107b |
काश्यपः कारयामास पाण्डोः प्रेतस्य तां क्रियाम्। पुरोहितोक्तविधिना पाण्डोः पुत्रो युधिष्ठिरः।। | 1-134-108a 1-134-108b |
तेनाग्निनाऽदहत्पाण्डुं कृत्वा चापि क्रियास्तदा। रुदञ्छोकाभिसंतप्तः पपात भुवि पाण्डवः।। | 1-134-109a 1-134-109b |
ऋषीन्पुत्रान्पृथां चैव विसृज्य च नृपात्मज।' नमस्कृत्य चिताग्निस्थं धर्मपत्नी नरर्षभम्।। | 1-134-110a 1-134-110b |
मद्रराजसुता तूर्णमन्वारोहद्यशस्विनी।। | 1-134-111a |
`अहताम्बरसंवीतो भ्रातृभिः सहितोऽनघः। उदकं कृतवांस्तत्र पुरोहितमते स्थितः।। | 1-134-112a 1-134-112b |
अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतशृङ्गनिवासिनः। तापसा विधिवच्चक्रुश्चारणा ऋषिभिः सह।। | 1-134-113a 1-134-113b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 134 ।। 1-134-15 मधुभाधवे चैत्रवैशाखयोः संधौ तदात्मके वसन्ते।। 1-134-19 वयः स्थां युवतीम्। तनुवाससं सूक्ष्मवस्त्रां किंचिद्विवृताङ्गामित्यर्थः।। 1-134-23 कामपरीतात्मा कामेन व्याप्तचित्तः।। 1-134-25 बुद्दिर्भयनिश्चयः। चेतसा विचारेण।। 1-134-26 कालधर्मणा मृत्युना।। 1-134-28 तथागतः मृतः।। 1-134-32 त्वामत्यतिक्रान्तो बलादाक्रान्तवान्। शोकाकुलत्वादतिशब्दस्याभ्यासः।। 1-134-34 प्रहर्षः कामः।। 1-134-36 आत्मा चित्तम्। दिष्टं शापजं दुरदृष्टम्।। 1-134-69 प्रेतवशं प्रेतराजवशम्। अन्विष्याम्यनुगमिष्यामि।। चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 134 ।।
आदिपर्व-133 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-135 |