महाभारतम्-01-आदिपर्व-233
← आदिपर्व-232 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-233 वेदव्यासः |
आदिपर्व-234 → |
तस्करैः कस्यचिद्ब्राह्मणस्य गोहरणम्।। 1 ।।
चोरितानां गवां प्रत्याजिहीर्षया धनुर्ग्रहणार्थं द्रौपदीयुधिष्ठिराधिष्ठिते आयुधागारे अर्जुनस्य प्रवेशः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-233-1x |
एवं ते समयं कृत्वा न्यवसंस्तत्र पाण्डवाः। वशे शस्त्रप्रतापेन कुर्वन्तोऽन्यान्महीक्षितः।। | 1-233-1a 1-233-1b |
तेषां मनुजसिंहानां पञ्चानाममितौजसाम्। बभूव कृष्णा सर्वेषां पार्थानां वशवर्तिनी।। | 1-233-2a 1-233-2b |
ते तया तैश्च सा वीरैः पतिभिः सह पञ्चभिः। बभूव परमप्रीता नागैरिव सरस्वती।। | 1-233-3a 1-233-3b |
वर्तमानेषु धर्मेण पाण्डवेषु महात्मसु। व्यवर्धन्कुरवः सर्वे हीनदोषाः सुखान्विताः।। | 1-233-4a 1-233-4b |
अथ दीर्घेण कालेन ब्राह्मणस्य विशांपते। कस्यचित्तस्करा जह्रुः केचिद्गा नृपसत्तम।। | 1-233-5a 1-233-5b |
ह्रियमाणे धने तस्मिन्ब्राह्मणः क्रोधमूर्च्छितः। आगम्य खाण्डवप्रस्थमुदक्रोशत्स पाण्डवान्।। | 1-233-6a 1-233-6b |
ह्रियते गोधनं क्षुद्रैर्नृशंसैरकृतात्मभिः। प्रसह्य चास्मद्विषयादभ्यधावत पाण्डवाः।। | 1-233-7a 1-233-7b |
ब्राह्मणस्य प्रशान्तस्य हविर्ध्वाङ्क्षैः प्रलुप्यते। शार्दूलस्य गुहां शून्यां नीचः क्रोष्टाभिमर्दति।। | 1-233-8a 1-233-8b |
अरक्षितारं राजानं बलिषद्भागहारिणम्। तमाहुः सर्वलोकस्य समग्रं पापचारिणम्।। | 1-233-9a 1-233-9b |
ब्राह्मणस्वे हृते चोरैर्धर्मार्थे च विलोपिते। रोरूयमाणे च मयि क्रियतां हस्तधारणा।। | 1-233-10a 1-233-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-233-11x |
रोरूयमाणस्याभ्याशे भृशं विप्रस्य पाण्डवः। तानि वाक्यानि शुश्राव कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।। | 1-233-11a 1-233-11b |
श्रुत्वैव च महाबाहुर्मा भैरित्याह तं द्विजम्। आयुधानि च यत्रासन्पाण्डवानां महात्मनां।। | 1-233-12a 1-233-12b |
कृष्णया सह तत्रास्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः। संप्रवेशाय चाशक्तो गमनाय च पाण्डवः।। | 1-233-13a 1-233-13b |
तस्य चार्तस्य तैर्वाक्यैश्चोद्यमानः पुनःपुनः। आक्रन्दे तत्र कौन्तेयश्चिन्तयामास दुःखितः।। | 1-233-14a 1-233-14b |
ह्रियमाणे धने तस्मिन्ब्राह्मणस्य तपस्विनः। अश्रुप्रमार्जनं तस्य कर्तव्यमिति निश्चयः।। | 1-233-15a 1-233-15b |
उपर्रेक्षणजोऽधर्मः सुमहान्स्यान्महीपतेः। यद्यस्य रुदतो द्वारि न करोम्यद्य रक्षणम्।। | 1-233-16a 1-233-16b |
अनास्तिक्यं च सर्वेषामस्माकमपि रक्षणे। प्रतितिष्ठेत लोकेऽस्मिन्नधर्मश्चैव नो भवेत्।। | 1-233-17a 1-233-17b |
अनापृच्छय तु राजानं गते मयि न संशयः। अजातशत्रोर्नृपतेर्मयि चैवानृतं भवेत्।। | 1-233-18a 1-233-18b |
अनुप्रवेशे राज्ञस्तु वनवासो भवेन्मम। सर्वमन्यत्परिहृतं धर्षणात्तु महीपतेः।। | 1-233-19a 1-233-19b |
अधर्मो वै महानस्तु वने वा मरणं मम। शरीरस्य विनाशेन धर्म एव विशिष्यते।। | 1-233-20a 1-233-20b |
एवं विनिश्चित्य ततः कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। अनुप्रविश्य राजानमापृच्छय च विशांपते।। | 1-233-21a 1-233-21b |
`मुखमाच्छाद्य निबिडमुत्तरीयेण वाससा। अग्रजं चार्जुनो गेहादभिवाद्याशु निःसृतः।।' | 1-233-22a 1-233-22b |
धनुरादाय संहृष्टो ब्राह्मणं प्रत्यभाषत। ब्राह्मणा गम्यतां शीघ्रं यावत्परधनैर्षिणः।। | 1-233-23a 1-233-23b |
न दूरे ते गताः क्षुद्रास्तावद्गच्छावहे सह। यावन्निवर्तयाम्यद्य चोरहस्ताद्धनं तव।। | 1-233-24a 1-233-24b |
सोऽनुसृत्य महाबाहुर्धन्वी वर्मी रथी ध्वजी। शरैर्विध्वस्य तांश्चोरानवजित्य च तद्धनम्।। | 1-233-25a 1-233-25b |
ब्राह्मणं समुपाकृत्य यशः प्राप्य च पाण्डवः। ततस्तद्गेधनं पार्थो दत्त्वा तस्मै द्विजातये।। | 1-233-26a 1-233-26b |
आजगाम पुरं वीरः सव्यसाची धनञ्जयः। सोऽभिवाद्य गुरून्सर्वान्सर्वैश्चाप्यभिनन्दितः।। | 1-233-27a 1-233-27b |
धर्मराजमुवाचेदं व्रतमादिश मे प्रभो। समयः समतिक्रान्तो भवत्संदर्शने मया।। | 1-233-28a 1-233-28b |
वनवासं गमिष्यामि समयो ह्येष नः कृतः। इत्युक्तो धर्मरास्तु सहसा वाक्यमप्रियम्।। | 1-233-29a 1-233-29b |
कथमित्यब्रवीद्वाचा शोकार्तः सज्जमानया। युधिष्ठिरो गुडाकेशं भ्राता भ्रातरमच्युतम्।। | 1-233-30a 1-233-30b |
उवाच दीनो राजा च धनञ्जयमिदं वचः। प्रमाणमस्मि यदि ते मत्तः शृणु वचोऽनघ।। | 1-233-31a 1-233-31b |
अनुप्रवेशे यद्वीर कृतवांस्त्वं ममाप्रियम्। सर्वं तदनुजानामि व्यलीकं न च मे हृदि।। | 1-233-32a 1-233-32b |
गुरोरनुप्रवेशो हि नोपघातो यवीयसः। यवीयसोऽनुप्रवेशो ज्येष्ठस्य विधिलोपकः।। | 1-233-33a 1-233-33b |
निवर्तस्व महाबाहो कुरुष्व वचनं मम। न हि ते धर्मलोपोऽस्ति न च ते धर्पणा कृता।। | 1-233-34a 1-233-34b |
अर्जुन उवाच। | 1-233-35x |
न व्याजेन चरेद्धर्ममिति मे भवतः श्रुतम्। न सत्याद्विचलिष्यामि सत्येनायुधमालभे।। | 1-233-35a 1-233-35b |
वैशंपायन उवाच। | 1-233-36x |
सोऽभ्यनुज्ञाय राजानं वनचर्याय दीक्षितः। वने द्वादश मासांस्तु वासायानुजगाम ह।। | 1-233-36a 1-233-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अर्जुनवनवासपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 233 ।। |
1-233-3 नागैर्गजवधूरिव इति ङ. पाठः।। 1-233-16 उपप्रेक्षणज उपेक्षाजन्यः।। 1-233-17 अनास्तिक्यमास्तिक्याभावः।। 1-233-30 सज्जमानया स्खलन्त्या।। 1-233-36 मासांस्तु ब्रह्मचर्याय दीक्षितः इति ङ. पाठः।। त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 233 ।।
आदिपर्व-232 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-234 |