महाभारतम्-01-आदिपर्व-197
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वसिष्ठवाक्येन लोकविनाशान्निवृत्तेन पराशरेण राक्षसनाशार्थं यज्ञारम्भः।। 1 ।।
पुलस्त्यप्रार्थनया पराशरेण यज्ञसमापनम्।। 2 ।।
गन्धर्व उवाच। | 1-197-1x |
एवमुक्तः स विप्रर्षिर्वसिष्ठेन महात्मना। न्ययच्छदात्मनः क्रोधं सर्वलोकपराभवात्।। | 1-197-1a 1-197-1b |
ईजे च स महातेजाः सर्ववेदविदां वरः। ऋषी राक्षससत्रेण शाक्तेयोऽथ पराशरः।। | 1-197-2a 1-197-2b |
ततो वृद्धांश्च बालांश्च राक्षसान्स महामुनिः। ददाह वितते यज्ञे शक्तेर्वधमनुस्मरन्।। | 1-197-3a 1-197-3b |
न हि तं वारयामास वसिष्ठो रक्षसां वधात्। द्वितीयामस्य मां भाङ्क्षं प्रतिज्ञामिति निश्चयात्।। | 1-197-4a 1-197-4b |
त्रयाणां पावकानां च सत्रे तस्मिन्महामुनिः। आसीत्पुरस्ताद्दीप्तानां चतुर्थ इव पावकः।। | 1-197-5a 1-197-5b |
तेन यज्ञेन शुभ्रेण हूयमानेन शक्तितः। तद्विदीपितमाकाशं सूर्येणेव घनात्यये।। | 1-197-6a 1-197-6b |
तं वसिष्ठादयः सर्वे मुनयस्तत्र मेनिरे। तेजसा दीप्यमानं वै द्वितीयमिव भास्करम्।। | 1-197-7a 1-197-7b |
ततः परमदुष्प्रापमन्यैर्ऋषिरुधारधीः। समापिपयिषुः सत्रं तमत्रिः समुपागमत्।। | 1-197-8a 1-197-8b |
तथा पुलस्त्यः पुलहः क्रतुश्चैव महाक्रतुः। तत्राजग्मुरमित्रघ्न रक्षसां जीवितेप्सया।। | 1-197-9a 1-197-9b |
पुलस्त्यस्तु वधात्तेषां रक्षसां भरतर्षभ। उवाचेदं वचः पार्थ पराशरमरिन्दमम्।। | 1-197-10a 1-197-10b |
कच्चित्तातापविघ्नं ते कच्चिन्नन्दसि पुत्रक। अजानतामदोषाणां सर्वेषां रक्षसां वधात्।। | 1-197-11a 1-197-11b |
प्रजोच्छेदमिमं मह्यं न हि कर्तु त्वमर्हसि। नैष तात द्विजातीनां धर्मो दृष्टस्तपस्विनाम्।। | 1-197-12a 1-197-12b |
शम एव परो धर्मस्तमाचर पराशर। अधर्मिष्ठं वरिष्ठः सन्कुरुषे त्वं पराशर।। | 1-197-13a 1-197-13b |
शक्तिं चापि हि धर्मज्ञं नातिक्रान्तुमिहार्हसि। प्रजायाश्च ममोच्छेदं न चैवं कर्तुमर्हसि।। | 1-197-14a 1-197-14b |
शापाद्धि शक्तेर्वासिष्ठ तदा तदुपपादितम्। आत्मजेन स दोषेण शक्तिर्नीत इतो दिवम्।। | 1-197-15a 1-197-15b |
न हि तं राक्षसः कश्चिच्छक्तो भक्षयितुं मुने। `वासिष्ठो भक्षितश्चासीत्कौशिकोत्सृष्टरक्षसा। शापं न कुर्वन्ति तदा न च त्राणपरायणाः।। | 1-197-16a 1-197-16b 1-197-16c |
क्षमावन्तोऽदहन्देहं देहमन्यद्भवत्विति।' आत्मनैवात्मनस्तेन दृष्टो मृत्युस्तदाऽभवत्।। | 1-197-17a 1-197-17b |
निमित्तभूतस्तत्रासीद्विश्वामित्रः पराशर। राजा कल्माषपादश्च दिवमारुह्य मोदते।। | 1-197-18a 1-197-18b |
ये च शक्त्यवराः पुत्रा वसिष्ठस्य महामुने। ते च सर्वे मुदा युक्ता मोदन्ते सहिताः सुरैः।। | 1-197-19a 1-197-19b |
सर्वमेतद्वसिष्ठस्य विदितं वै महामुने। रक्षसां च समुच्छेद एष तात तपस्विनाम्।। | 1-197-20a 1-197-20b |
निमित्तभूतस्त्वं चात्र क्रतौ वासिष्ठनन्दन। तत्सत्रं मुञ्च भद्रं ते समाप्तमिदमस्तु ते।। | 1-197-21a 1-197-21b |
गन्धर्व उवाच। | 1-197-22x |
एवमुक्तः पुलस्त्येन वसिष्ठेन च धीमता। तदा समापयामास सत्रं शाक्तो महामुनिः।। | 1-197-22a 1-197-22b |
सर्वराक्षससत्राय संभृतं पावकं तदा। उत्तरे हिमवत्पार्श्वे उत्ससर्ज महावने।। | 1-197-23a 1-197-23b |
स तत्राद्यापि रक्षांसि वृक्षानश्मन एव च। भक्षयन्दृश्यते वह्निः सदा पर्वणि पर्वणि।। | 1-197-24a 1-197-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 197 ।। |
1-197-4 माभाङ्क्षे न नाशयेयम्।। 1-197-12 मद्यं मम।। सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 197 ।।
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