महाभारतम्-01-आदिपर्व-037
← आदिपर्व-036 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-037 वेदव्यासः |
आदिपर्व-038 → |
मातृशापपरिहारार्थं सर्पाणां मन्त्रालोचनम्।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-37-1x |
मातुः सकाशात्तं शापं श्रुत्वा वै पन्नगोत्तमः। वासुकिश्चिन्तयामास शापोऽयं न भवेत्कथम्।। | 1-37-1a 1-37-1b |
ततः स मन्त्रयामास भ्रातृभिः सह सर्वशः। ऐरावतप्रभृतिभिः सर्वैर्धर्मपरायणैः।। | 1-37-2a 1-37-2b |
वासुकिरुवाच। | 1-37-3x |
अयं शापो यथोद्दिष्टो विदितं वस्तथाऽनघाः। तस्य शापस्य मोक्षार्थं मन्त्रयित्वा यतामहे।। | 1-37-3a 1-37-3b |
सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते। न तु मात्राऽभिशप्तानां मोक्षः क्वचन विद्यते।। | 1-37-4a 1-37-4b |
अव्ययस्याप्रमेयस्य सत्यस्य च तथाग्रतः। शप्ता इत्येव मे श्रुत्वा जायते हृदि वेपथुः।। | 1-37-5a 1-37-5b |
नूनं सर्वविनाशोऽयमस्माकं समुपागतः। `शापः सृष्टो महाघोरो मात्रा खल्वविनीतया। न ह्येतां सोऽव्ययो देवः शपत्नीं प्रत्यषेधयत्।। | 1-37-6a 1-37-6b 1-37-6c |
तस्मात्संमन्त्रयामोऽद्य भुजङ्गानामनामयम्। यथा भवेद्धि सर्वेषां मा नः कालोऽत्यगादयम्।। | 1-37-7a 1-37-7b |
सर्व एव हि नस्तावद्बुद्धिमन्तो विचक्षणाः। अपि मन्त्रयमाणा हि हेतुं पश्याम मोक्षणे।। | 1-37-8a 1-37-8b |
यथा नष्टं पुरा देवा गूढमग्निं गुहागतम्। यथा स यज्ञो न भवेद्यथा वाऽपि पराभवः। जनमेजयस्य सर्पाणां विनाशकरणाय वै।। | 1-37-9a 1-37-9b 1-37-9c |
सौतिरुवाच। | 1-37-10x |
तथेत्युक्त्वा ततः सर्वे काद्रवेयाः समागताः। समयं चकिरे तत्र मन्त्रबुद्धिविशारदाः।। | 1-37-10a 1-37-10b |
एके तत्राब्रुवन्नागा वयं भूत्वा द्विजर्षभाः। जनमेजयं तु भिक्षामो यज्ञस्ते न भवेदिति।। | 1-37-11a 1-37-11b |
अपरे त्वब्रुवन्नागास्तत्र पण्डितमानिनः। मन्त्रिणोऽस्य वयं सर्वे भविष्यामः सुसंमताः।। | 1-37-12a 1-37-12b |
स नः प्रक्ष्यति सर्वेषु कार्येष्वर्थविनिश्चयम्। तत्र बुद्धिं प्रदास्यामो यथा यज्ञो निवर्त्स्यति।। | 1-37-13a 1-37-13b |
स नो बहुमतान्राजा बुद्ध्या बुद्धिमतां वरः। यज्ञार्थं प्रक्ष्यति व्यक्तं नेति वक्ष्यामहे वयम्।। | 1-37-14a 1-37-14b |
दर्शयन्तो बहून्दोषान्प्रेत्य चेह च दारुणान्। हेतुभिः कारणैश्चैव यथा यज्ञो भवेन्न सः।। | 1-37-15a 1-37-15b |
अथवा य उपाध्यायः क्रतोस्तस्य भविष्यति। सर्पसत्रविधानज्ञो राजकार्यहिते रतः।। | 1-37-16a 1-37-16b |
तं गत्वा दशतां कश्चिद्भुजङ्गः स मरिष्यति। तस्मिन्मृते यज्ञकारे क्रतुः स न भविष्यति।। | 1-37-17a 1-37-17b |
ये चान्ये सर्पसत्रज्ञा भविष्यन्त्यस्य चर्त्विजः। तांश्च सर्वान्दशिष्यामः कृतमेवं भविष्यति।। | 1-37-18a 1-37-18b |
अपरे त्वब्रुवन्नागा धर्मात्मानो दयालवः। अबुद्धिरेषा भवतां ब्रह्महत्या न शोभनम्।। | 1-37-19a 1-37-19b |
सम्यक्सद्धर्ममूला वै व्यसने शान्तिरुत्तमा। अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत्।। | 1-37-20a 1-37-20b |
अपरे त्वब्रुवन्नागाः समिद्धं जातवेदसम्। वर्षैर्निर्वापयिष्यामो मेघा भूत्वा सविद्युतः।। | 1-37-21a 1-37-21b |
स्रुग्भाण्डं निशि गत्वा च अपरे भुजगोत्तमाः। प्रमत्तानां हरन्त्वाशु विघ्न एवं भविष्यति।। | 1-37-22a 1-37-22b |
यज्ञे वा भुजगास्तस्मिञ्शतशोऽथ सहस्रशः। जनान्दशन्तु वै सर्वे नैवं त्रासो भविष्यति।। | 1-37-23a 1-37-23b |
अथवा संस्कृतं भोज्यं दूषयन्तु भुजङ्गमाः। स्वेन मूत्रपुरीषेण सर्वभोज्यविनाशिना।। | 1-37-24a 1-37-24b |
अपरे त्वब्रुवंस्तत्र ऋत्विजोऽस्य भवामहे। यज्ञविघ्नं करिष्यामो दक्षिणा दीयतामिति।। | 1-37-25a 1-37-25b |
वश्यतां च गतोऽसौ नः करिष्यति यथेप्सितम्। अपरे त्वब्रुवंस्तत्र जले प्रक्रीडितं नृपम्।। | 1-37-26a 1-37-26b |
गृहमानीय बध्नीमः क्रतुरेवं भवेन्न सः। अपरे त्वब्रुवंस्तत्र नागाः पण्डितमानिनः।। | 1-37-27a 1-37-27b |
दशामस्तं प्रगृह्याशु कृतपेवं भविष्यति। छिन्नं मूलमनर्थानां मृते तस्मिन्भविष्यति।। | 1-37-28a 1-37-28b |
एषा नो नैष्ठिकी बुद्धिः सर्वेषामीक्षणश्रवः। अथ यन्मन्यसे राजन्द्रुतं तत्संविधीयताम्।। | 1-37-29a 1-37-29b |
इत्युक्त्वा समुदैक्षन्त वासुकिं पन्नगोत्तमम्। वासुकिश्चापि संचिन्त्य तानुवाच भुजङ्गमान्।। | 1-37-30a 1-37-30b |
नैषा वो नैष्ठिकी बुद्धिर्मता कर्तुं भुजङ्गमाः। सर्वेषामेव मे बुद्धिः पन्नगानां न रोचते।। | 1-37-31a 1-37-31b |
किं तत्र संविधातव्यं भवतां स्याद्धितं तु यत्। श्रेयः प्रसादनं मन्ये कश्यपश्य महात्मनः।। | 1-37-32a 1-37-32b |
ज्ञातिवर्गस्य सौहार्दादात्मनश्च भुजङ्गमाः। न च जानाति मे बुद्धिः किंचित्कर्तुं वचो हिवः।। | 1-37-33a 1-37-33b |
मया हीदं विधातव्यं भवतां यद्धितं भवेत्। अनेनाहं भृशं तप्ये गुणदोषौ मदाश्रयौ।। | 1-37-34a 1-37-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37 ।। |
1-37-5 सत्यस्य सत्यलोकाधिपतेर्ब्रह्मणः।। 1-37-10 मन्त्रबुद्धिविशारदाः नीतिनिश्चयनिपुणाः।। 1-37-13 निवर्त्स्यति निवृत्तो भविष्यति।। 1-37-18 कृतं प्रतिकृतम्।। 1-37-20 व्यसने आपदि शान्तिः आपन्नाशः। सद्धर्ममूला सतां धर्मो देवब्राह्मणप्रार्थना तन्मूला।। 1-37-29 नैष्ठिकी आत्यन्तिकी। ईक्षणमेव श्रवः श्रोत्रं यस्य स तथाभूत हे वासुके।। 1-37-31 ज्ञातिरक्षानाशनिमित्तौ गुणदोषौ मदाश्रयौ ज्येष्ठत्वान्ममेत्यर्थः।। सप्तत्रिंशोऽध्यायः।। 37 ।।
आदिपर्व-036 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-038 |