महाभारतम्-01-आदिपर्व-019
← आदिपर्व-018 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-019 वेदव्यासः |
आदिपर्व-020 → |
देवानाममृतपानं।। 1 ।। देवरूपेणामृतं पिबतो राहोः शिरश्छेदनं।। 2 ।। देवदैत्ययोर्युद्धं। तत्र दैत्यपराजयः।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-19-1x |
अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च। प्रगृह्याभ्यद्रवन्देवान्सहिता दैत्यदानवाः।। | 1-19-1a 1-19-1b |
ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान्। जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः।। | 1-19-2a 1-19-2b |
ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा। विष्णोः सकाशात्संप्राप्य संभ्रमे तुमुले सति।। | 1-19-3a 1-19-3b |
`पाययत्यमृतं देवान्हरौ बाहुबलान्नरः। निरोधयति चापेन दूरीकृत्य धनुर्धरान्। ये येऽमृतं पिबन्ति स्म ते ते युद्ध्यन्ति दानवैः;'।। | 1-19-4a 1-19-4b 1-19-4c |
ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम्। राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत्तदा।। | 1-19-5a 1-19-5b |
तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा। आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया।। | 1-19-6a 1-19-6b |
ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम्। चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा।। | 1-19-7a 1-19-7b |
तच्छैलशृह्गप्रङ्गिमं दानवस्य शिरो महत्। `चक्रेणोत्कृत्तमपतच्चालयद्वसुधातलम्।।' | 1-19-8a 1-19-8b |
चक्रच्छिन्नं खमुत्पत्य ननादातिभयंकरम्। तत्कबन्धं पपातास्य विस्फुरद्धरणीतले।। | 1-19-9a 1-19-9b |
`त्रयोदश सहस्राणि चतुरश्रं समन्ततः। सपर्वतवनद्वीपां दैत्यस्याकम्पयन्महीम्।। | 1-19-10a 1-19-10b |
ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै। शाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ।। | 1-19-11a 1-19-11b |
विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः। नानाप्रहरणैर्भीमैर्दानवान्तमकम्पयत्।। | 1-19-12a 1-19-12b |
ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः। सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान्।। | 1-19-13a 1-19-13b |
प्रासाश्च विपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः। तोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च।। | 1-19-14a 1-19-14b |
ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु। असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले।। | 1-19-15a 1-19-15b |
छिन्नानि पट्टिशैश्चैव शिरांसि युधि दारुणैः। तप्तकाञ्चनमालीनि निपेतुरनिशं तदा।। | 1-19-16a 1-19-16b |
रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः। अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते।। | 1-19-17a 1-19-17b |
आहाकारः समभवत्तत्र तत्र सहस्रशः। अन्योन्यंछिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति।। | 1-19-18a 1-19-18b |
परिघैरायसैस्तीक्ष्णैः सन्निकर्षे च मुष्टिभिः। निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत्।। | 1-19-19a 1-19-19b |
छिन्धिभिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च। व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः।। | 1-19-20a 1-19-20b |
एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये। नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम्।। | 1-19-21a 1-19-21b |
तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि। चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम्।। | 1-19-22a 1-19-22b |
ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं महाप्रभं चक्रममित्रतापनम्। विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम्।। | 1-19-23a 1-19-23b 1-19-23c 1-19-23d |
तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः। मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवा- न्महाप्रभं परनगरावदारणम्।। | 1-19-24a 1-19-24b 1-19-24c 1-19-24d |
तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनःपुनर्न्यपतत वेगवत्तदा। विदारयद्दितिदनुजान्सहस्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे।। | 1-19-25a 1-19-25b 1-19-25c 1-19-25d |
दहत्क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिह- त्प्रसह्य तानसुरगणान्न्यकृन्तत। प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत्।। | 1-19-26a 1-19-26b 1-19-26c 1-19-26d |
तथाऽसुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा। महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्यह।। | 1-19-27a 1-19-27b 1-19-27c 1-19-27d |
अथाम्बराद्भयजननाः प्रपेदिरे सपादपा बहुविधमेघरूपिणः। महाद्रयः परिगलिताग्रसानवः परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः।। | 1-19-28a 1-19-28b 1-19-28c 1-19-28d |
ततो मही प्रविचलिता सकानना महाद्रिपाताभिहता समन्ततः। परस्परं भृशमभिगर्जतां मुहू रणाजिरे भृशमभिसंप्रवर्तिते।। | 1-19-29a 1-19-29b 1-19-29c 1-19-29d |
नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै- र्महेषुभिर्गगनपथं समावृणोत्। विदारयन्गिरिशिखराणि पत्रिभि- र्महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा।। | 1-19-30a 1-19-30b 1-19-30c 1-19-30d |
ततो महीं लवणजलं च सागरं महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः। वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशाम्य ते।। | 1-19-31a 1-19-31b 1-19-31c 1-19-31d |
ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः। विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वश- स्ततो गताः सलिलधरा यथागतम्।। | 1-19-32a 1-19-32b 1-19-32c 1-19-32d |
ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरे सुराः पुरां मुदमभिगम्य पुष्कलाम्। ददो च तं निधिममृतस्य रक्षितुं किरीटिने बलभिदथामरैः सह।। | 1-19-33a 1-19-33b 1-19-33c 1-19-33d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः।। 19 ।। |
1-19-1 आवरणमुख्यानि कवचाग्र्याणि।। 1-19-3 संभ्रमे उभयेषाममृतादरे सति। सङ्ग्रामे इति पाठान्तरं।। 1-19-26 प्रवेरितं प्रेरितं।। 1-19-27 विगलितमेघाः रिक्तमेघाः।। 1-19-32 सलिलधराः अमृतभृतो देवाः।। 1-19-33 किरीटिने नराय।। एकोनविंशोऽध्यायः।। 19 ।।
आदिपर्व-018 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-020 |