महाभारतम्-01-आदिपर्व-137
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पाण्डोः श्राद्धदानम्।। 1 ।।
कुमाराणां क्रीडावर्णनम्।। 2 ।।
क्रीडायां भीमेन दुर्योधनादीनां पराभवः।। 3 ।।
दुर्योधनेन प्रमाणकोट्यां पातनं, सर्पैर्दंशनं, विषमिश्रभक्ष्यदानम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-137-1x |
ततः क्षत्ता च भीष्मश्च व्यासो राजा च बन्धुभिः। ददुः श्राद्धं तदा पाण्डोः स्वधामृतमयं तदा।। | 1-137-1a 1-137-1b |
`पुरोहितसहायास्ते यथान्यायमकुर्वत।' कुरूंश्च विप्रमुख्यांश्च भोजयित्वा सहस्रशः। रत्नौघान्द्विजमुख्येभ्यो दत्त्वा ग्रामवरांस्तथा।। | 1-137-2a 1-137-2b 1-137-2c |
कृतशौचांस्ततस्तांस्तु पाण्डवान्भरतर्षभान्। आदाय विविशुः सर्वे पुरं वारणसाह्वयम्।। | 1-137-3a 1-137-3b |
सततं स्मानुशोचन्तस्तमेव भरतर्षभम्। पौरजानपदाः सर्वे मृतं स्वमिव बान्धवम्।। | 1-137-4a 1-137-4b |
श्राद्धावसाने तु तदा दृष्ट्वा तं दुःखितं जनम्। संमूढां दुःखशोकार्तां व्यासो मातरमब्रवीत्।। | 1-137-5a 1-137-5b |
अतिक्रान्तसुखाः कालाः पर्युपस्थितदारुणाः। श्वःश्वः पापिष्ठदिवसाः पृथिवी गतयौवना।। | 1-137-6a 1-137-6b |
बहुमायासमाकीर्णो नानादोषसमाकुलः। लुप्तधर्मक्रियाचारो घोरः कालो भविष्यति।। | 1-137-7a 1-137-7b |
कुरूणामनयाच्चापि पृथिवी न भविष्यति। गच्छ त्वं योगमास्थाय युक्ता वस तपोवने।। | 1-137-8a 1-137-8b |
माद्राक्षीस्त्वं कुलस्यास्य घोरं संक्षयमात्मनः। तथेति समनुज्ञाय सा प्रविश्याब्रवीत्स्नुषाम्।। | 1-137-9a 1-137-9b |
अम्बिक तव पौत्रस्य दुर्नयात्किल भारताः। सानुबन्धा विनङ्क्ष्यन्ति पौराश्चैवेति नः श्रुतम्।। | 1-137-10a 1-137-10b |
तत्कौसल्यामिमामार्तां पुत्रशोकाभिपीडिताम्। वनमादाय भद्रं ते गच्छावो यदि मन्यसे।। | 1-137-11a 1-137-11b |
तथेत्युक्ता त्वम्बिकया भीष्ममामन्त्र्य सुव्रता। वनं ययौ सत्यवती स्नुषाभ्यां सह भारत।। | 1-137-12a 1-137-12b |
ताः सुघोरं तपस्तप्त्वा देव्यो भरतसत्तम।। देहं त्यक्त्वा महाराज गतिमिष्टां ययुस्तदा।। | 1-137-13a 1-137-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-137-14x |
अथाप्तवन्तो वेदोक्तान्संस्कारान्पाण्डवास्तदा। संव्यवर्धन्त भोगांस्ते भुञ्जानाः पितृवेश्मनि।। | 1-137-14a 1-137-14b |
धार्तराष्ट्रैश्च सहिताः क्रीडन्तो मुदिताः सुखम्। बालक्रीडासु सर्वासु विशिष्टास्तेजसाऽभवन्।। | 1-137-15a 1-137-15b |
जवे लक्ष्याभिहरणे भोज्ये पांसुविकर्षणे। धार्तराष्ट्रान्भीमसेनः सर्वान्स परिमर्दति।। | 1-137-16a 1-137-16b |
हर्षात्प्रक्रीडमानांस्तान् गृह्य राजन्निलीयते। शिरःसु विनिगृह्यैतान्योजयामास पाण्डवैः।। | 1-137-17a 1-137-17b |
शतमेकोत्तरं तेषां कुमाराणां महौजसाम्। एक एव निगृह्णाति नातिकृच्छ्राद्वृकोदरः।। | 1-137-18a 1-137-18b |
कचेषु च निगृह्यैनान्विनिहत्य बलाद्बली। चकर्ष क्रोशतो भूमौ घृष्टजानुशिरोंसकान्।। | 1-137-19a 1-137-19b |
दश बालाञ्जले क्रीडन्भुजाभ्यां परिगृह्य सः। आस्ते स्म सलिले मग्नो मृतकल्पान्विमुञ्चति।। | 1-137-20a 1-137-20b |
फलानि वृक्षमारुह्य विचिन्वन्ति च ये तदा। तदा पादप्रहारेण भीमः कम्पयते द्रुमान्।। | 1-137-21a 1-137-21b |
प्रहारवेगाभिहता द्रुमा व्याघूर्णितास्ततः। सफलाः प्रपतन्ति स्म द्रुमात्स्रस्ताः कुमारकाः।। | 1-137-22a 1-137-22b |
`केचिद्भग्नशिरोरस्काः केचिद्भग्नकटीमुखाः। निपेतुर्भ्रातरः सर्वे भीमसेनभुजार्दिताः।।' | 1-137-23a 1-137-23b |
न ते नियुद्धे न जवे न योग्यासु कदाचन। कुमारा उत्तरं चक्रुः स्पर्धमाना वृकोदरम्।। | 1-137-24a 1-137-24b |
एवं स धार्तराष्ट्रांश्च स्पर्धमानो वृकोदरः। अप्रियेऽतिष्ठदत्यन्तं बाल्यान्न द्रोहचेतसा।। | 1-137-25a 1-137-25b |
ततो बलमतिख्यातं धार्तराष्ट्रः प्रतापवान्। भीमसेनस्य तज्ज्ञात्वा दुष्टभावमदर्शयत्।। | 1-137-26a 1-137-26b |
तस्य धर्मादपेतस्य पापानि परिपश्यतः। मोहादैश्वर्यलोभाच्च पापा मतिरजायत।। | 1-137-27a 1-137-27b |
अयं बलवतां श्रेष्ठः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः। मध्यमः कुन्तिपुत्राणां निकृत्या सन्निगृह्यतां।। | 1-137-28a 1-137-28b |
प्राणवान्विक्रमी चैव शौर्येण महताऽन्वितः। स्पर्धते चापि सहितानस्मानेको वृकोदरः।। | 1-137-29a 1-137-29b |
तं तु सुप्तं पुरोद्याने गङ्गायां प्रक्षिपामहे। अथ तस्मादवरजं श्रेष्ठं चैव युधिष्ठिरम्।। | 1-137-30a 1-137-30b |
प्रसह्य बन्धने बद्ध्वा प्रशासिष्ये वसुन्धराम्। एवं स निश्चयं पापः कृत्वा दुर्योधनस्तदा। नित्यमेवान्तरप्रेक्षी भीमस्यासीन्महात्मनः।। | 1-137-31a 1-137-31b 1-137-31c |
ततो जलविहारार्थं कारयामास भारत। चैलकम्बलवेश्मानि विचित्राणि महान्ति च।। | 1-137-32a 1-137-32b |
सर्वकामैः सुपूर्णानि पताकोच्छ्रायवन्ति च। तत्र संजनयामास नानागाराण्यनेकशः।। | 1-137-33a 1-137-33b |
उदकक्रीडनं नाम कारयामास भारत। प्रमाणकोट्यां तं देशं स्थलं किंचिदुपेत्यह।। | 1-137-34a 1-137-34b |
`क्रीडावसाने ते सर्वे शुचिवस्त्राः स्वलङ्कृताः। सर्वकामसमृद्धं तदन्नं बुभुजिरे शनैः।। | 1-137-35a 1-137-35b |
दिवसान्ते परिश्रान्ता विहृत्य च कुरूद्वहाः। विहारावसथेष्वेव वीरा वासमरोचयन्।। | 1-137-36a 1-137-36b |
खिन्नस्तु बलवान्भीमो व्यायामाभ्यधिकस्तदा। वाहयित्वा कुमारांस्ताञ्जलक्रीडागतान्विभुः।। | 1-137-37a 1-137-37b |
प्रमाणकोट्यां वासार्थं सुष्वापारुह्य तत्स्थलम्। शीतं वासं समासाद्य शान्तो मदविमोहितः।। | 1-137-38a 1-137-38b |
निश्चेष्टः पाण्डवो राजन्सुष्वाप मृतवत्क्षितौ। ततो बद्ध्वा लतापाशैर्भीमं दुर्योधनः शनैः।। | 1-137-39a 1-137-39b |
प्रमाणकोट्यां संसुप्तं गङ्गायां प्राक्षिपज्जले। ततः प्रबुद्धः कौन्तेयः सर्वान्संछिद्य बन्धनान्।। | 1-137-40a 1-137-40b |
उदतिष्ठद्बलाद्भूयो भीमः प्रहरतां वरः। स विमुक्तो महातेजा नाज्ञासीत्तेन तत्कृतम्।। | 1-137-41a 1-137-41b |
पुनर्निद्रावशं प्राप्तस्तत्रैव प्रास्वपद्बली। अर्धरात्र्यां व्यतीतायामुत्तस्थुः कुरुपाण्जवाः। दुर्योधनस्तु कौन्तेयं दृष्ट्वा निर्वेदमभ्यगात्।। | 1-137-42a 1-137-42b 1-137-42c |
सुप्तं चापि पुनः सर्पैस्तीक्ष्णदंष्ट्रैर्महाविषैः। कुपितैर्दंशयामास सर्वेष्वेवाङ्गसन्धिषु।। | 1-137-43a 1-137-43b |
दंष्ट्राश्च दंष्ट्रिणां मर्मस्वपि तेन निपातिताः। त्वचं न चास्य बिभिदुः सारत्वात्पृथुपक्षसः।। | 1-137-44a 1-137-44b |
प्रबुद्धो भीसेनस्तान्सर्वान्सर्पानपोथयत्। सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जघ्निवान्।। | 1-137-45a 1-137-45b |
तथान्यदिवसे राजन्हन्तुकामोऽत्यमर्षणः। वलनेन सहामन्त्र्य सौबलस्य मते स्थितः।। | 1-137-46a 1-137-46b |
भोजने भीमसेनस्य ततः प्राक्षेपयद्विषम्। कालकूटं विषं तीक्ष्णं संभृतं रोमहर्षणम्।। | 1-137-47a 1-137-47b |
तच्चापि भुक्त्वाऽजरदॉयदविकारो वृकोदरः। विकारं नाभ्यजनयत्सुतीक्ष्णमपि तद्विषम्।। | 1-137-48a 1-137-48b |
भीमसंहननो भीमस्त्समादजरयद्विषम्। ततोऽन्यदिवसे राजन्हन्तुकामो वृकोदरम्।। | 1-137-49a 1-137-49b |
सौबलेन सहायेन धार्तराष्ट्रोऽभ्यचिन्तयत्। चिन्तयन्नालभन्निद्रां दिवारात्रमतन्द्रितः।। | 1-137-50a 1-137-50b |
एवं दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। अनेकैरप्युपायैस्ताञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान्।। | 1-137-51a 1-137-51b |
वैश्या पुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया। पाण्डवा ह्यपि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नरिन्दमाः। उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः।।' | 1-137-52a 1-137-52b 1-137-52c |
।। इति श्रीमन्महाभाऱते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 137 ।। 1-137-6 श्वःश्वः पूर्वपूर्वदिनापेक्षया उत्तरमुत्तरं पापिष्ठण्। गतयौवना सम्यक्फलसून्या।। 1-137-8 योगं चित्तवृत्तिनिरोधं प्रयाणोद्योगंवा। युक्ता समाहिता।। 1-137-24 योग्यासु क्रियास्विति शेषः। उत्तरमुत्कर्षम्।। 1-137-28 निकृत्या कपटेन।। 1-137-29 प्राणवान् बलवान्।। 1-137-31 प्रसह्य बलात्कारेण।। 1-137-34 प्रमाणकोट्यां गङ्गायां प्रदेशविशेषे। स्थलं किंचिदर्धं जलेऽर्धं स्थले च क्रीडागारम्।। 1-137-46 वलनेन तन्नामकेन सहचरेण।। सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 137 ।।
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