महाभारतम्-01-आदिपर्व-053
← आदिपर्व-052 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-053 वेदव्यासः |
आदिपर्व-054 → |
ऋत्विगादिनामकथनम्।। 1 ।। इन्द्रकृतं तक्षकाश्वासनम्।। 2 ।। वासुकेः स्वभगिन्या संवादः।। 3 ।।
शौनक उवाच। | 1-53-1x |
सर्पसत्रे तदा राज्ञः पाण्डवेयस्य धीमतः। जनमेजयस्य के त्वासन्नृत्विजः परमर्षयः।। | 1-53-1a 1-53-1b |
के सदस्या बभूवुश्च सर्पसत्रे सुदारुणे। विषादजननेऽत्यर्थं पन्नगानां महाभय।। | 1-53-2a 1-53-2b |
सर्वं विस्तरशस्तात भवाञ्छंसितुमर्हति। सर्पसत्रविधानज्ञविज्ञेयाः के च सूतज।। | 1-53-3a 1-53-3b |
सौतिरुवाच। | 1-53-4x |
हन्त ते कथयिष्यामि नामानीह मनीषिणाम्। ये ऋत्विजः सदस्याश्च तस्यासन्नृपतेस्तदा।। | 1-53-4a 1-53-4b |
तत्र होता बभूवाथ ब्राह्मणश्चण्डभार्गवः। च्यवनस्यान्वये ख्यातो जातो वेदविदां वरः।। | 1-53-5a 1-53-5b |
उद्गाता ब्राह्मणो वृद्धो विद्वान्कौत्सौऽथ जैमिनिः। ब्र्हमाऽभवच्छार्ङ्गरवोऽथाध्वर्युश्चापि पिङ्गलः।। | 1-53-6a 1-53-6b |
सदस्यश्चाभवद्व्यासः पुत्रशिष्यसहायवान्। उद्दालकः प्रमतकः श्वेतकेतुश्च पिङ्गलः।। | 1-53-7a 1-53-7b |
असितो देवलश्चैव नारदः पर्वतस्तथा। आत्रेयः कुम्डजठरौ द्विजः कालघटस्तथा।। | 1-53-8a 1-53-8b |
वात्स्यः श्रुतश्रवा वृद्धो जपस्वाध्यायशीलवान्। कोहलो देवशर्मा च मौद्गल्यः समसौरभः।। | 1-53-9a 1-53-9b |
एते चान्ये च बहवो ब्राह्मणा वेदपारगाः। सदस्याश्चाभवंस्तत्र सत्रे पारिक्षितस्य ह।। | 1-53-10a 1-53-10b |
जुह्वत्स्वृत्विक्ष्वथ तदा सर्पसत्रे महाक्रतौ। अहयः प्रापतंस्तत्र घोराः प्राणिभयावहाः।। | 1-53-11a 1-53-11b |
वसामेदोवहाः कुल्या नागानां संप्रवर्तिताः। ववौ गन्धश्च तुमुलो दह्यतामनिशं तदा।। | 1-53-12a 1-53-12b |
पततां चैव नागानां धिष्ठितानां तथाम्बरे। अश्रूयतानिशं शब्दः पच्यतां चाग्निना भृशम्।। | 1-53-13a 1-53-13b |
तक्षकस्तु स नागेन्द्रः पुरंदरनिवेशनम्। गतः श्रुत्वैव राजानं दीक्षितं जनमेजयम्।। | 1-53-14a 1-53-14b |
ततः सर्वं यथावृत्तमाख्याय भुजगोत्तमः। अगच्छच्छरणं भीत आगस्कृत्वा पुरंदरम्।। | 1-53-15a 1-53-15b |
तमिन्द्रः प्राह सुप्रीतो न तवास्तीह तक्षक। भयं नागेन्द्र तस्माद्वै सर्पसत्रात्कदाचन।। | 1-53-16a 1-53-16b |
प्रसादितो मया पूर्वं तवार्थाय पितामहः। तस्मात्तव भयं नास्ति व्येतु तेनसो ज्वरः।। | 1-53-17a 1-53-17b |
सौतिरुवाच। | 1-53-18x |
एवमाश्वासितस्तेन ततः स भुजगोत्तमः। उवास भवने तस्मिञ्शक्रस्य मुदितः सुखी।। | 1-53-18a 1-53-18b |
अजस्रं निपतत्स्वग्नौ नागेषु भृशदुःखितः। अल्पशेषपरीवारो वासुकिः पर्यतप्यत।। | 1-53-19a 1-53-19b |
कश्मलं चाविशद्धोरं वासुकिं पन्नगोत्तमम्। स घूर्णमानहृदयो भगिनीमिदमब्रवीत्।। | 1-53-20a 1-53-20b |
दह्यन्तेऽङ्गानि मे भद्रे न दिशः प्रतिभान्ति माम्। सीदामीव च संमोहाद्धूर्णतीव च मे मनः।। | 1-53-21a 1-53-21b |
दृष्टिर्भ्राम्यति मेऽतीव हृदयं दीर्यतीव च। पतिष्याम्यवशोऽद्याहं तस्मिन्दीप्ते विभावसौ।। | 1-53-22a 1-53-22b |
पारिक्षितस्य यज्ञोऽसौ वर्ततेऽस्मज्जिघांसया। व्यक्तं मयाऽभिगन्तव्यं प्रेतराजनिवेशनम्।। | 1-53-23a 1-53-23b |
अयं स कालः संप्राप्तो यदर्थमसि मे स्वसः। जरत्करौ(पुरा)मयादत्तात्रायस्वास्मान्सबान्धवान्।। | 1-53-24a 1-53-24b |
आस्तीकः किल यज्ञं तं वर्तन्तं भुजगोत्तमे। प्रतिषेत्स्यति मां पूर्वं स्वयमाह पितामहः।। | 1-53-25a 1-53-25b |
तद्वत्से ब्रूहि वत्सं स्वं कुमारं वृद्धसंमतम्। ममाद्य त्वं सभृत्यस्य मोक्षार्थं वेदवित्तमम्।। | 1-53-26a 1-53-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 53 ।। |
1-53-2 सदस्या उपद्रष्टारः।। 1-53-3 विधानज्ञेषु विज्ञेयाः श्रेष्ठाः।। 1-53-13 पच्यतां पच्यमानानाम्।। 1-53-15 आगः अपरांध कृत्वा।। त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 53 ।।
आदिपर्व-052 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-054 |