महाभारतम्-01-आदिपर्व-158
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पाण्डवानां वारणावतप्रवेशः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-158-1x |
ततः सर्वाः प्रकृतयो नगराद्वारणावतात्। सर्वमङ्गलसंयुक्ता यथाशास्त्रमतन्द्रिताः।। | 1-158-1a 1-158-1b |
श्रुत्वाऽगतान्पाण्डुपुत्रान्नानायानैः सहस्रशः। अभिजग्मुर्नरश्रेष्ठाञ्श्रुत्वैव परया मुदा।। | 1-158-2a 1-158-2b |
ते समासाद्य कौन्तेयान्वारणावतका जनाः। कृत्वा जयाशिषः सर्वे परिवार्योपतस्थिरे।। | 1-158-3a 1-158-3b |
तैर्वृतः पुरुषव्याघ्रो धर्मराजो युधिष्ठिरः। विबभौ देवसङ्काशो वज्रपाणिरिवामरैः।। | 1-158-4a 1-158-4b |
सत्कृताश्चैव पौरैस्ते पौरान्सत्कृत्य चानघ। अलङ्कृतं जनाकीर्णं विविशुर्वारणावतम्।। | 1-158-5a 1-158-5b |
ते प्रविश्य पुरीं वीरास्तूर्णं जग्मुरथो गृहान्। ब्राह्मणानां महीपाल रतानां स्वेषु कर्मसु।। | 1-158-6a 1-158-6b |
नगराधिकृतानां च गृहाणि रथिनां वराः। उपतस्थुर्नरश्रेष्ठा वैश्यशूद्रगृहाण्यपि।। | 1-158-7a 1-158-7b |
अर्चिताश्च नरैः पौरैः पाण्डवा भरतर्षभ। जग्मुरावसथं पश्चात्पुरोचनपुरःसराः।। | 1-158-8a 1-158-8b |
तेभ्यो भक्ष्याणि पानानि शयनानि शुभानि च। आसनानि च मुख्यानि प्रददौ स पुरोचनः।। | 1-158-9a 1-158-9b |
तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदाः। उपास्यमानाः पुरुषैरूषुः पुरनिवासिभिः।। | 1-158-10a 1-158-10b |
दशरात्रोषितानां तु तत्र तेषां पुरोचनः। निवेदयामास गृहं शिवाख्यमशिवं तदा।। | 1-158-11a 1-158-11b |
तत्र ते पुरुषव्याघ्रा विविशुः सपरिच्छदाः। पुरोचनस्य वचनात्कैलासमिव गुह्यकाः।। | 1-158-12a 1-158-12b |
तच्चागारमभिप्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरः। उवाचाग्नेयमित्येवं भीमसेनं युधिष्ठिरः।। | 1-158-13a 1-158-13b |
जिघ्राणोऽस्य वसागन्धं सर्पिर्जतुविमिश्रितम्। कृतं हि व्यक्तमाग्नेयमिदं वेश्म परन्तप।। | 1-158-14a 1-158-14b |
शणसर्जरसं व्यक्तमानीय गृहकर्मणि। मुञ्जबल्वजवंशादिद्रव्यं सर्वं घृतोक्षितम्।। | 1-158-15a 1-158-15b |
`तृणबल्वजकार्पासवंशदारुकटान्यपि। आग्नेयान्यत्र क्षिप्तानि परितो वेश्मनस्तथा।।' | 1-158-16a 1-158-16b |
शिल्पिभिः सुकृतं ह्याप्तैर्विनीतैर्वेश्मकर्मणि। विश्वस्तं मामयं पापो दग्धुकामः पुरोचनः।। | 1-158-17a 1-158-17b |
तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः। इमां तु तां महाबुद्धिर्विदुरो दृष्टवांस्तथा।। | 1-158-18a 1-158-18b |
आपदं तेन मां पार्थ स संबोधितवान्पुरा। ते वयं बोधितास्तेन नित्यमस्मद्धितैषिणा।। | 1-158-19a 1-158-19b |
पित्रा कनीयसा स्नेहाद्बुद्धिमन्तो शिवं गृहम्। अनार्यैः सुकृतं गूढैर्दुर्योधनवशानुगैः।। | 1-158-20a 1-158-20b |
भीमसेन उवाच। | 1-158-21x |
यदीदं गृहामाग्नेयं विहितं मन्यते भवान्। तत्रैव साधु गच्छामो यत्र पूर्वोषिता वयम्।। | 1-158-21a 1-158-21b |
`दर्शयित्वा पृथग्गन्तुं न कार्यं प्रतिभाति मे। अशुभं वा शुभं वा स्यात्तैर्वसाम सहैव तु।। | 1-158-22a 1-158-22b |
अद्यप्रभृति चास्मासु गतेषु भयविह्वलः। रूढमूलो भवेद्राज्ये धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः।। | 1-158-23a 1-158-23b |
तदीयं तु भवेद्राज्यं तदीयाश्च जना इमे। तस्मात्सहैव वत्स्यामो गलन्यस्तपदा वयम्।। | 1-158-24a 1-158-24b |
अस्माकं कालमासाद्य राज्यमाच्छिद्य शत्रुतः। अर्थं पैतृकमस्माकं सुखं भोक्ष्याम शाश्वतम्।। | 1-158-25a 1-158-25b |
धृतराष्ट्रवचोऽस्माभिः किमर्थमनुपाल्यते। तेभ्यो भित्त्वाऽन्यथागन्तुं दौर्बल्यं ते कुतो नृप।। | 1-158-26a 1-158-26b |
आपत्सु रक्षिताऽस्माकं विदुरोऽस्ति महामतिः। मध्यस्थ एव गाङ्गेयो राज्यभोगपराङ्मुखः।। | 1-158-27a 1-158-27b |
बाह्लीकप्रमुखा वृद्धा मध्यस्था एव सर्वदा। अस्मदीयो भवेद्द्रोणः फल्गुनप्रेमसंयुतः।। | 1-158-28a 1-158-28b |
तस्मात्सहैव वस्तव्यं न गन्तव्यं कथं नृप। अथवास्मासु ते कुर्युः किमशक्ताः पराक्रमैः।। | 1-158-29a 1-158-29b |
क्षुद्राः कपटिनो धूर्ता जाग्रत्सु मनुजेश्वर। किं न कुर्युः पुरा मह्यं किं न दत्तं महाविषम्।। | 1-158-30a 1-158-30b |
आशीविषैर्महाघोरैः सर्पैस्तैः किं न दंशितः। प्रमाणकोट्यां संगृह्य निद्रापरवशे मयि।। | 1-158-31a 1-158-31b |
सर्पैर्दृष्टिविषैर्गोरैर्गङ्गायां शूलसन्ततौ। किं तैर्न पातितो भूप तदा किं मृतवानहम्।। | 1-158-32a 1-158-32b |
आपत्सु तासु घोरासु दुष्प्रयुक्तासु पापिभिः। अस्मानरक्षद्यो देवो जगद्यस्य वशे स्थितम्।। | 1-158-33a 1-158-33b |
चराचरात्मकं सोऽद्य यातः कुत्र नृपोत्तम। यावत्सोढव्यमस्माभिस्तावत्सोढास्मि यत्नतः।। | 1-158-34a 1-158-34b |
यदा न शक्ष्यतेऽस्माभिस्तदा पश्याम नो हितम्। किं द्रष्टव्यमिहास्माभिर्विगृह्य तरसा बलात्।। | 1-158-35a 1-158-35b |
सान्त्ववादेन दानेन भेदेनापि यतामहे। अर्धराज्यस्य संप्राप्त्यै ततो दण्डः प्रशस्यते।। | 1-158-36a 1-158-36b |
तस्मात्सहैव वस्तव्यं तन्मनोर्पितशल्यवत्। दर्शयित्वा पृथक् क्वापि न गन्तव्यं सुभीतवत्।।' | 1-158-37a 1-158-37b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-158-38x |
इह यत्तैर्निराकारैर्वस्तव्यमिति रोचये। अप्रमत्तैर्विचिन्वद्भिर्गतिमिष्टां ध्रुवामितः।। | 1-158-38a 1-158-38b |
यदि विन्देत चाकारमस्माकं स पुरोचनः। क्षिप्रकारी ततो भूत्वा प्रसह्यापि दहेत्ततः।। | 1-158-39a 1-158-39b |
नायं बिभेत्युपक्रोशादधर्माद्वा पुरोचनः। तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः।। | 1-158-40a 1-158-40b |
अपि चायं प्रदग्धेषु भीष्मोऽस्मासु पितामहः। कोपं कुर्यात्किमर्थं वा कौरवान्कोपयीत सः।। | 1-158-41a 1-158-41b |
अथवापीह दग्धेषु भीष्मोऽस्माकं पितामहः। धर्म इत्येव कुप्येरन्ये चान्ये कुरुपुङ्गवाः।। | 1-158-42a 1-158-42b |
`उपपन्नं तु दग्धेषु कुलवंशानुकीर्तिताः। कुप्येरन्यदि धर्मज्ञास्तथान्ये कुरुपुङ्गवाः।।' | 1-158-43a 1-158-43b |
वयं तु यदि दाहस्य बिभ्यतः प्रद्रवेमहि। स्पशैर्नो घातयेत्सर्वान्राज्यलुब्धः सुयोधनः।। | 1-158-44a 1-158-44b |
अपदस्थान्पदे तिष्ठन्नपक्षान्पक्षसंस्थितः। हीनकोशान्महाकोशः प्रयोगैर्घातयेद्ध्रुवम्।। | 1-158-45a 1-158-45b |
तदस्माभिरिमं पापं तं च पापं सुयोधनम्। वञ्चयद्भिर्निवस्तव्यं छन्नं वीर क्वचित्क्वचित्।। | 1-158-46a 1-158-46b |
ते वयं मृगयाशीलाश्चराम वसुधामिमाम्। तथा नो विदिता मार्गा भविष्यन्ति पलायतां।। | 1-158-47a 1-158-47b |
भौमं च बिलमद्यैव करवाम सुसंवृतम्। गूढोद्गतान्न नस्तत्र हुताशः संप्रधक्ष्यति।। | 1-158-48a 1-158-48b |
द्रवतोऽत्र यथा चास्मान्न बुध्येत पुरोचनः। पौरो वापि जनः कश्चित्तथा कार्यमतन्द्रितैः।। | 1-158-49a 1-158-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 158 ।। |
1-158-22 दर्शयित्वा विरोधमिति शेषः।। 1-158-29 न गन्तव्यं हास्तिनपुरमिति शेषः।। 1-158-40 उपक्रोशाद्गर्हातः।। 1-158-41 अयं भीष्म इति संबन्धः।। 1-158-42 दग्धेष्वस्मास्वग्निदेषु कोपोऽधर्म इत्येव कारणं कृत्वा भीष्मोऽन्ये च कुप्येरन्।। 1-158-44 दाहस्य दाहात्। स्पशैश्चारैः।। 1-158-49 अत्र बिले।। अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 158 ।।
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