महाभारतम्-01-आदिपर्व-162
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पौरैः प्रातर्जतुगृहसमीपमागत्य पुरोचनसहितानां पाण्डवानां दाहं निश्चित्य धृतराष्ट्राय दूतमुखेन पाण्डवृत्तान्तनिवेदनम्।। 1 ।।
तच्छ्रवणेन ज्ञातिभिः सह धृतराष्ट्रेण कुन्त्यादीनां उदकदानम्।। 2 ।।
भीष्मविदुरयोः संवादः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-162-1x |
अथ रात्र्यां व्यतीतायामशेषो नागरो जनः। तत्राजगाम त्वरितो दिदृक्षुः पाण्डुनन्दनान्।। | 1-162-1a 1-162-1b |
निर्वापयन्तो ज्वलनं ते जना ददृशुस्ततः। जातुषं तद्गृहं दग्धममात्यं च पुरोचनम्।। | 1-162-2a 1-162-2b |
नूनं दुर्योधनेनेदं विहितं पापकर्मणा। पाण्डवानां विनाशायेत्येवं ते चुक्रुशुर्जनाः।। | 1-162-3a 1-162-3b |
विदिते धृतराष्ट्रस्य धार्तराष्ट्रो न संशयः। दग्धवान्पाण्डुदायादान्न ह्येतत्प्रतिषिद्धवान्।। | 1-162-4a 1-162-4b |
नूनं शान्तनवोऽपीह न धर्मनुवर्तते। द्रोणश्च विदुरश्चैव कृपश्चान्ये च कौरवाः।। | 1-162-5a 1-162-5b |
`नावेक्षन्ते ह तं धर्मं धर्मात्मानोऽप्यहो विधेः। श्रुतवन्तोऽपि विद्वांसो धनवद्वशगा अहो।। | 1-162-6a 1-162-6b |
साधूननाथान्धर्मिष्ठात्सत्यव्रतपरायणान्। नावेक्षन्ते महान्तोऽपि दैवं तेषां परायणम्।। | 1-162-7a 1-162-7b |
ते वयं धृतराष्ट्राय प्रेषयामो दुरात्मने। संवृत्तस्ते परः कामः पाण्डवान्दग्धवानसि।। | 1-162-8a 1-162-8b |
ततो व्यपोहमानास्ते पाण्डवार्थे हुताशनम्। निषादीं ददृशुर्दग्धां पञ्चपुत्रामनागसम्।। | 1-162-9a 1-162-9b |
इतः पश्यत कुन्तीयं दग्धा शेते तपस्विनी। पुत्रैः सहैव वार्ष्णेयी हन्तेत्याहुः स्म नागराः।। | 1-162-10a 1-162-10b |
खनकेन तु तेनैव वेश्म शोधयता बिलम्। पांसुभिः पिहितं तच्च पुरुषैस्तैर्न लक्षितम्।। | 1-162-11a 1-162-11b |
ततस्ते प्रेषयामासुर्धृतराष्ट्राय नागराः। पाण्डवानग्निना दग्धानमात्यं च पुरोचनम्।। | 1-162-12a 1-162-12b |
श्रुत्वा तु धृतराष्ट्रस्तद्राजा सुमहदप्रियम्। विनाशं पाण्डुपुत्राणां विललाप सुदुःखितः।। | 1-162-13a 1-162-13b |
अन्तर्हृष्टमनाश्चासौ बहिर्दुःखसमन्वितः। अन्तःशीतो बहिश्चोष्णो ग्रीष्मेऽगाधह्वदोयथा।। | 1-162-14a 1-162-14b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-162-15x |
अद्य पाण्डुर्मृतो राजा मम भ्राता महायशाः। तेषु वीरेषु दग्धेषु मात्रा सह विशेषतः।। | 1-162-15a 1-162-15b |
गच्छन्तु पुरुषाः शीघ्रं नगरं वारणावतम्। सत्कारयन्तु तान्वीरान्कुन्तीं राजसुतां च ताम्।। | 1-162-16a 1-162-16b |
ये च तत्र मृतास्तेषां सुहृदः सन्ति तानपि। कारयन्तु च कुल्यानि शुभ्राणि च बृहन्ति च।। | 1-162-17a 1-162-17b |
मम दग्धा महात्मानः कुलवंशविवर्धनाः।। | 1-162-18a |
एवं गते मया शक्यं यद्यत्कारयितुं हितम्। पाण्डवानां च कुन्त्याश्च तत्सर्वं क्रियतां धनैः।। | 1-162-19a 1-162-19b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-162-20x |
समेताश्च ततः सर्वे भीष्मेण सह कौरवाः। धृतराष्ट्रः सपुत्रश्च गङ्गामभिमुखा ययुः।। | 1-162-20a 1-162-20b |
एकवस्त्रा निरानन्दा निराभरणवेष्टनः। उदकं कर्तुकामा वै पाण्डवानां महात्मनाम्।।' | 1-162-21a 1-162-21b |
एवं गत्वा ततश्चक्रे ज्ञातिभिः परिवारितः। उदकं पाण्डुपुत्राणां धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।। | 1-162-22a 1-162-22b |
रुरुदुः सहिताः सर्वे भृशं शोकपरायणाः। हा युधिष्ठिर कौरव्य हा भीम इति चापरे।। | 1-162-23a 1-162-23b |
हा फल्गुनेति चाप्यन्ये हा यमाविति चापरे। कुन्तीमार्ताश्च शोचन्त उदकं चक्रिरे जनाः।। | 1-162-24a 1-162-24b |
अन्ये पौरजनाश्चैवमन्वशोचन्त पाण्डवान्। विदुरस्त्वल्पशश्चक्रे शोकं वेद परं हि सः।। | 1-162-25a 1-162-25b |
विदुरो धृतराष्ट्रस्य जानन्सर्वं मनोगतम्। तेनायं विधिना सृष्टः कुटिलः कपटाशयः।। | 1-162-26a 1-162-26b |
इत्येवं चिन्तयन्राजन्विदुरो विदुषां वरः। लोकानां दर्शयन्दुःखं दुःखितैः सह बान्धवैः।। | 1-162-27a 1-162-27b |
मनसाऽचिन्तयत्पार्थान्कियद्दूरं गता इति। सहिताः पाण्डवाः पुत्रा इति चिन्तापरोऽभवत्।। | 1-162-28a 1-162-28b |
ततः प्रव्यथितो भीष्मः पाण्डुराजसुतान्मृतान्। सह मात्रेति तच्छ्रुत्वा विललाप रुरोद च।। | 1-162-29a 1-162-29b |
भीष्म उवाच। | 1-162-30x |
हा युधिष्ठिर हा भीम हा धनञ्जय हा यमौ। हा पृथे सह पुत्रैस्त्वमेकरात्रेण स्वर्गता।। | 1-162-30a 1-162-30b |
मात्रा सह कुमारास्ते सर्वे तत्रैव संस्थिताः। न हि तौ नोत्सहेयातां भीमसेनधनञ्जयौ।। | 1-162-31a 1-162-31b |
तरसा वेगितात्मानौ निर्भेत्तुमपि मन्दरम्। परासुत्वं न पश्यामि पृथायाः सह पाण्डवैः।। | 1-162-32a 1-162-32b |
सर्वथा विकृतं तत्तु यदि ते निधनं गताः। धर्मराजः स निर्दिष्टो ननु विप्रैर्युधिष्ठिरः।। | 1-162-33a 1-162-33b |
पृथिव्यां च रथिश्रेष्ठो भविता स धनञ्जयः। सत्यव्रतो धर्मदत्तः सत्यवाक्छुभलक्षणः।। | 1-162-34a 1-162-34b |
कथं कालवशं प्राप्तः पाण्डवेयो युधिष्ठिरः। आत्मानमुपमां कृत्वा परेषां वर्तते तु यः।। | 1-162-35a 1-162-35b |
मात्रा सहैव कौरव्यः कथं कालवशं गतः। पालितः सुचिरं कालं फलकाले यथा द्रुमः।। | 1-162-36a 1-162-36b |
भग्नः स्याद्वायुवेगेन तथा राजा युधिष्ठिरः। यौवराज्येऽभिषिक्तेन पितुर्येनाहृतं यशः।। | 1-162-37a 1-162-37b |
आत्मनश्च पितुश्चैव सत्यधर्मप्रवृत्तिभिः। यच्च सा वनवासेन तन्माता दुःखभागिनी।। | 1-162-38a 1-162-38b |
कालेन सह संमग्नो धिक्कृतान्तमनर्थकम्। यच्च सा वनवासेन तन्माता दुःखभागिनी।। | 1-162-39a 1-162-39b |
पुत्रगृध्नुतया कुन्ती न भर्तारं मृतात्वनु। अल्पकालं कुले जाता भर्तुः प्रीतिमवाप या।। | 1-162-40a 1-162-40b |
दग्धाऽद्य सह पुत्रैः सा असंपूर्णमनोरा। मृतो भीम इति श्रुत्वा मनो न श्रद्दधाति मे।। | 1-162-41a 1-162-41b |
एतच्च चिन्तयानस्य व्यथितं बहुधा मनः। अवधूय च मे देहं हृदयेन विदीर्यते।। | 1-162-42a 1-162-42b |
पीनस्कन्धश्चारुबाहुर्मेरुकूटसमो युवा। मृतो भीम इति श्रुत्वा मनो न श्रद्दधाति मे।। | 1-162-43a 1-162-43b |
अतित्यागी च योधी च क्षिप्रहस्तो दृढायुधः। प्रपत्तिमाँल्लब्धलक्षो रथयानविशारदः।। | 1-162-44a 1-162-44b |
दूरपाती त्वसंभ्रान्तो महावीर्यो महास्त्रवान्। अदीनात्मा नरश्रेष्ठः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम्।। | 1-162-45a 1-162-45b |
येन प्राच्याश्च सौवीरा दाक्षिणात्याश्च निर्जिताः। ख्यापितं येन शूरेण त्रिषु लोकेषु पौरुषम्।। | 1-162-46a 1-162-46b |
यस्मिञ्जाते विशोकाऽभूत्कुन्ती पाण्डुश्च वीर्यवान्। पुरन्दरसमो जिष्णुः कथं कालवशं गतः।। | 1-162-47a 1-162-47b |
कथं तावृषभष्कन्धौ सिंहविक्रान्तगामिनौ। मर्त्यधर्ममनुप्राप्तौ यमावरिनिवर्हणौ।। | 1-162-48a 1-162-48b |
वत्सा गताः क्व मां वृद्धं विहाय भृशमातुरम्। हा स्नुषे मम वार्ष्णेयि निधाय हृदि मे शुचम्।। | 1-162-49a 1-162-49b |
वारणावतयात्रायां के स्युर्वै शकुनाः पथि। एवमल्पायुषो लोके भविष्यन्ति पृथासुताः।। | 1-162-50a 1-162-50b |
संशप्ता इति कैर्यूयं वत्सान्दर्शय मे पृथे। ममैव नाथा मन्नाथा मम नेत्राणि पाण्डवाः।। | 1-162-51a 1-162-51b |
हा पाण्डवा मे हे वत्सा हा सिंहशिशवो मम। मातङ्गा हा ममोत्तुङ्गा हा ममानन्दवर्धनाः।। | 1-162-52a 1-162-52b |
मम हीनस्य युष्माभिः सर्वलोकास्तमोवृताः। कदा द्रष्टाऽस्मि कौन्तेयांस्तरुणादित्यवर्चसः।। | 1-162-53a 1-162-53b |
अदृष्ट्वा वो महाबाहून्पुत्रवन्मम नन्दनाः। क्व गतिर्मे क्व गच्छामि कुतो द्रक्ष्यामि मे शिशून्।। | 1-162-54a 1-162-54b |
हा युधिष्ठिर हा भीम हा हा फल्गुन हा यमौ। मा गच्छत निवर्तध्वं मयि कोपं विमुञ्चत।। | 1-162-55a 1-162-55b |
वैशंपायन उवाच। | 1-162-56x |
श्रुत्वा तत्क्रन्दितं तस्य तिलोदं च प्रसिञ्चतः। देशं कालं समाज्ञाय विदुरः प्रत्यभाषत।। | 1-162-56a 1-162-56b |
मा शोचीस्त्वं नरव्याघ्र जहि शोकं महाधृते। न तेषां विद्यते मृत्युः प्राप्तकालं कृतं मया।। | 1-162-57a 1-162-57b |
एतच्च तेभ्य उदकं विप्रसिञ्च न भारत। क्षत्तेदमब्रवीद्भीष्मं कौरवाणामशृण्वताम्।। | 1-162-58a 1-162-58b |
क्षत्तारमुपसंगम्य बाष्पोत्पीडकलस्वरः। मन्दंमन्दमुवाचेदं विदुरं संगमे नृप।। | 1-162-59a 1-162-59b |
भीष्म उवाच। | 1-162-60x |
कथं ते तात जीवन्ति पाण्डोः पुत्रा महाबलाः। कथमस्मत्कृते पक्षः पाण्डोर्न हि निपातितः।। | 1-162-60a 1-162-60b |
कथं मत्प्रमुखाः सर्वे प्रमुक्ता महतो भयात्। जननी गरुडेनेव कुरवस्ते समुद्धृताः।। | 1-162-61a 1-162-61b |
वैशंपायन उवाच। | 1-162-62x |
एवमुक्तस्तु कौरव्य कौरवाणामशृण्वताम्। आचचक्षे स धर्मात्मा भीष्मायाद्भुतकर्मणे।। | 1-162-62a 1-162-62b |
विदुर उवाच। | 1-162-63x |
धृतराष्ट्रस्य शकुने राज्ञो दुर्योधनस्य च। विनाशे पाण्डुपुत्राणां कृतो मतिविनिश्चयः।। | 1-162-63a 1-162-63b |
तत्राहमपि च ज्ञात्वा तस्य पापस्य निश्चयम्। तं जिघांसुरहं चापि तेषामनुमते स्थितः।। | 1-162-64a 1-162-64b |
ततो जतुगृहं गत्वा दहनेऽस्मिन्नियोजिते। पृथायाश्च सपुत्राया धार्तराष्ट्रस्य शासनात्।। | 1-162-65a 1-162-65b |
ततः खनकमाहूय सुरङ्गं वै बिलं तदा। सुगूढं कारयित्वा ते कुन्त्या पाण्डुसुतास्तदा।। | 1-162-66a 1-162-66b |
निष्क्रामिता मया पूर्वं मा स्म शोके मनः कृथाः। ततस्तु नावमारोप्य सहपुत्रां पृथामहम्।। | 1-162-67a 1-162-67b |
दत्त्वाऽभयं सपुत्रायै कुन्त्यै गृहमदाहयम्। तस्मात्ते मा स्म भूद्दुःखं मुक्ताः पापात्तु पाण्डवाः।। | 1-162-68a 1-162-68b |
निर्गताः पाण्डवा राजन्मात्रा सह परन्तपाः। अग्निहादान्महाघोरान्मया तस्मादुपायतः।। | 1-162-69a 1-162-69b |
मा स्म शोकमिमं कार्षीर्जीवन्त्येव च पाण्डवाः। प्रच्छन्ना विचिरिष्यन्ति यावत्कालस्य पर्ययः।। | 1-162-70a 1-162-70b |
तस्मिन्युधिष्ठिरं काले द्रक्ष्यन्ति भुवि मानवाः। विमलं कृष्णपक्षान्ते जगच्चन्द्रमिवोदितम्।। | 1-162-71a 1-162-71b |
न तस्य नाशं पश्यामि यस्य भ्राता धनञ्जयः। भीमसेनश्च दुर्धर्षौ माद्रीपुत्रौ च तौ यमौ।। | 1-162-72a 1-162-72b |
वैशंपायन उवाच। | 1-162-73x |
ततः संहृष्टसर्वाङ्गो भीष्मो विदुरमब्रवीत्। दिष्ट्यादिष्ट्येति संहृष्टः पूजयानो महामतिम्।। | 1-162-73a 1-162-73b |
भीष्म उवाच। | 1-162-74x |
युक्तं चैवानुरूपं च कृतं तात शुभं त्वया। वयं विमोक्षिता दुःखात्पाण्डुपक्षो न नाशितः।। | 1-162-74a 1-162-74b |
वैशंपायन उवाच। | 1-162-75x |
एवमुक्त्वा विवेशाथ पुरं जनशताकुलम्। कुरुभिः सहितो राजन्नागरैश्च पितामहः।। | 1-162-75a 1-162-75b |
अथाम्बिकेयः सामात्यः सकर्णः सहसौबलः। सात्मजः पार्थनाशस्य स्मरंस्तथ्यं जर्ष च।। | 1-162-76a 1-162-76b |
भीष्मश्च राजन्दुर्धर्षो विदुरश्च महामतिः। जहृषाते स्मरन्तौ तौ जातुषाग्नेर्विमोचनम्।। | 1-162-77a 1-162-77b |
सत्यशीलगुणाचारै रागैर्जानपदोद्भवैः। द्रोणादयश्च धर्मैस्तु तेषां तान्मोचितान्विदुः।। | 1-162-78a 1-162-78b |
शौर्यलावण्यमाहात्म्यै रूपैः प्राणबलैरपि। स्वस्थान्पार्थानमन्यन्त पौरजानपदास्तथा।। | 1-162-79a 1-162-79b |
अन्ये जनाः प्राकृताश्च स्त्रियश्च बहुलास्तदा। शङ्कमाना वदन्ति स्म दग्धा जीवन्ति वा न वा।। | 1-162-80a 1-162-80b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 162 ।। |
1-162-17 कुल्यानि अस्थीनि कारयन्तु संस्कारयन्तु। कुल्यानि चैत्यानीत्यन्ये।। 1-162-25 विदुरस्त्वन्यथा चक्र इति घ. पाठः।। द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 162 ।।
आदिपर्व-161 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-163 |