महाभारतम्-01-आदिपर्व-237
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प्रसादितेन ब्राह्मणेन कृतस्य शापमोचनप्रकारस्य, नारदनिदेशेनैतत्तीर्थागमनस्य च अर्जुनंप्रति वर्गया कथनम्।। 1 ।।
एतत्कथां श्रुतवता अर्जुनेन ग्राहरूपाणाभवशिष्टानां चतसृणामप्यप्सरसां तत्तत्तीर्थेभ्य उद्धरणेन तासां स्वस्वरूपप्राप्तिः।। 2 ।।
पुनर्मणलूरमागत्य तत्र चित्राङ्गदायां जातं बभ्रुवाहननामानं स्वपुत्रं च स्वश्वशुरे समर्प्य अर्जुनस्य गोकर्णक्षेत्रगमनम्।। 3 ।।
वर्गोवाच। | 1-237-1x |
ततो वयं प्रव्यथिताः सर्वा भारतसत्तम। अयाम शरणं विप्रं तं तपोधनमच्युतम्।। | 1-237-1a 1-237-1b |
रूपेण वयसा चैव कन्दर्पेण च दर्पिताः। अयुक्तं कृतवत्यः स्म क्षन्तुमर्हसि नो द्विज।। | 1-237-2a 1-237-2b |
एष एव वधोऽस्माकं स्वयं प्राप्तस्तपोधन। यद्वयं संशितात्मानं प्रलोब्धुं त्वामिहागताः।। | 1-237-3a 1-237-3b |
अवध्यास्तु स्त्रियः सृष्टा मन्यन्ते धर्मचारिणः। तस्माद्धर्मेण वर्ध त्वं नास्मन्हिंसितुमर्हसि।। | 1-237-4a 1-237-4b |
सर्वभूतेषु धर्मज्ञ मैत्रो ब्राह्मण उच्यते। सत्यो भवतु कल्याण एष वादो मनीषिणाम्।। | 1-237-5a 1-237-5b |
शरणं च प्रपन्नानां शिष्टाः कुर्वन्ति पालनम्। शरणं त्वां प्रपन्नाः स्म तस्मात्त्वं क्षन्तुमर्हसि।। | 1-237-6a 1-237-6b |
वैशंपायन उवाच। | 1-237-7x |
एवमुक्तः स धर्मात्मा ब्राह्मणः शुभकर्मकृत्। प्रसादं कृतवान्वीर रविसोमसमप्रभः।। | 1-237-7a 1-237-7b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-237-8x |
शतं शतसहस्रं तु सर्वमक्षय्यवाचकम्। परिमाणं शतं त्वेतन्नेदमक्षय्यवाचकम्।। | 1-237-8a 1-237-8b |
यदा च वो ग्राहभूता गृह्णन्तीः पुरुषाञ्जले। उत्कर्षति जलात्तस्मात्स्थलं पुरुषसत्तमः।। | 1-237-9a 1-237-9b |
तदा यूयं पुनः सर्वाः स्वं रूपं प्रतिपत्स्यथ। अनृतं नोक्तपूर्वं मे हसतापि कदाचन।। | 1-237-10a 1-237-10b |
तानि सर्वाणि तीर्थानि ततः प्रभृति चैव ह। नारीतीर्थानि नाम्नेह ख्यातिं यास्यन्ति सर्वशः। पुण्यानि च भविष्यन्ति पावनानि मनीषिणां।। | 1-237-11a 1-237-11b 1-237-11c |
वर्गोवाच। | 1-237-12x |
ततोऽभिवाद्य तं विप्रं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्। अचिन्तयामोऽपसृत्य तस्माद्देशात्सुदुःखिताः।। | 1-237-12a 1-237-12b |
क्व नु नाम वयं सर्वाः कालेनाल्पेन तं नरम्। समागच्छेम यो नस्तद्रूपमापादयेत्पुनः।। | 1-237-13a 1-237-13b |
ता वयं चिन्तयित्वैव मुहूर्तादिव भारत। दृष्टवत्यो महाभागं देवर्षिमुत नारदम्।। | 1-237-14a 1-237-14b |
संप्रहृष्टाः स्म तं दृष्ट्वा देवर्षिममितद्युतिम्। अभिवाद्य च तं पार्थ स्थिताः स्म व्रीडिताननाः।। | 1-237-15a 1-237-15b |
स नोऽपृच्छद्दुःखमूलमुक्तवत्यो वयं च तम्। श्रउत्वा तत्र यथावृत्तमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-237-16a 1-237-16b |
दक्षिणे सागरानूपे पञ्च तीर्थानि सन्ति वै। पुण्यानि रमणीयानि तानि गच्छत मा चिरं।। | 1-237-17a 1-237-17b |
तत्राशु पुरुषव्याघ्रः पाण्डवेयो धनञ्जयः। मोक्षयिष्यति शुद्धात्मा दुःखादस्मान्न संशयः।। | 1-237-18a 1-237-18b |
`इत्युक्त्वा नारदः सर्वास्तत्रैवान्तरधीयत।' तस्य सर्वा वयं वीर श्रुत्वा वाक्यमितो गताः। तदिदं सत्यमेवाद्य मोक्षिताहं त्वयाऽनघ।। | 1-237-19a 1-237-19b 1-237-19c |
एतास्तु मम ताः सख्यश्चतस्रोऽन्या जले श्रिताः। कुरु कर्म शुभं वीर एताः सर्वा विमोक्षय।। | 1-237-20a 1-237-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-237-21x |
ततस्ताः पाण्डवश्रेष्ठः सर्वा एव विशांपते। `अवगाह्य च तत्तीर्थं गृहीतो ग्राहिभिस्तदा।। | 1-237-21a 1-237-21b |
ग्राहीभिश्चोत्तताराशु तरयामास तत्क्षणात्। सा चाप्सरा बभूवाशु सर्वाभरणभूषिता।। | 1-237-22a 1-237-22b |
एवं क्रमेण ताः सर्वा मोक्षयामास वीर्यवान्।।' | 1-237-23a |
उत्थाय च जलात्तस्मात्प्रतिलभ्य वपुः स्वकम्। तास्तदाऽप्सरसो राजन्नदृश्यन्त यथा पुरा।। | 1-237-24a 1-237-24b |
तीर्थानि शोधयित्वा तु तथानुज्ञाय ताः प्रभुः। चित्राङ्गदां पुनर्द्रष्टुं मणलूरं पुनर्ययौ।। | 1-237-25a 1-237-25b |
तस्यामजनयत्पुत्रं राजानं बभ्रुवाहनम्। तं दृष्ट्वा पाण्डवो राजंश्चित्रवाहनमब्रवीत्।। | 1-237-26a 1-237-26b |
चित्राङ्गदायाः शुल्कं त्वं गृहाण बभ्रुवाहनम्। अनेन च भविष्यामि ऋणान्मुक्तो नराधिप।। | 1-237-27a 1-237-27b |
चित्राङ्गदां पुनर्वाक्यमब्रवीत्पाण्डुनन्दनः। इहैव भव भद्रं ते वर्धेथा बभ्रुवाहनम्।। | 1-237-28a 1-237-28b |
इन्द्रपस्थनिवासं मे त्वं तत्रागत्य रंस्यसि। कुन्ती युधिष्ठिरं भीमं भ्रातरौ मे कनीयसौ।। | 1-237-29a 1-237-29b |
आगत्य तत्र पश्येथा अन्यानपि च बान्धवान्। बान्धवैः सहिताः सर्वैर्नन्दसे त्वमनिन्दिते।। | 1-237-30a 1-237-30b |
धर्मे स्थितः सत्यधृतिः कौन्तेयोऽथ युधिष्ठिरः। जित्वा तु पृथिवीं सर्वां राजसूयं करिष्यति।। | 1-237-31a 1-237-31b |
तत्रागच्छन्ति राजानः पृथिव्यां नृपसंज्ञिताः। बहूनि रत्नान्यादाय आगमिष्यति ते पिता।। | 1-237-32a 1-237-32b |
एकसार्थं प्रयातासि चित्रवाहनसेवया। द्रक्ष्यामि राजसूये त्वां पुत्रं पालय मा शुचः।। | 1-237-33a 1-237-33b |
बभ्रुवाहननाम्ना तु मम प्राणो बहिश्चरः। तस्माद्भरस्व पुत्रं वै पुरुषं वंशवर्धनम्।। | 1-237-34a 1-237-34b |
चित्रावाहनदायादं धर्मात्पौरवनन्दनम्। पाण्डवानां प्रियं पुत्रं तस्मात्पालय सर्वदा।। | 1-237-35a 1-237-35b |
विप्रयोगेण संतापं मा कृथास्त्वमनिन्दिते। चित्राङ्गदामेवमुक्त्वा `सागरानूपमाश्रितः।। | 1-237-36a 1-237-36b |
स्थानं दूरं समाप्लुत्य दत्त्वा बहुधनं तदा। केरलान्समतिक्रम्य' गोकर्णमभितोऽगमत्।। | 1-237-37a 1-237-37b |
आद्यं पशुपतेः स्थानं दर्शनादेव मुक्तिदम्। यत्र पापोऽपि मनुजः प्राप्नोत्यभयदं पदम्।। | 1-237-38a 1-237-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अर्जुनवनवासपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 237 ।। |
1-236-4 वर्ध वर्धस्व।।
सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 237 ।।
आदिपर्व-236 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-238 |