महाभारतम्-01-आदिपर्व-071
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स्वपाणिग्रहणार्थं प्रार्थितवत्या देवयान्या कचस्य विवादः।। 1 ।। कचदेवयान्योः परस्परशापदानम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-71-1x |
समावृतव्रतं तं तु विसृष्टं गुरुणा कचम्। प्रस्थितं त्रिदशावासं देवयान्यब्रवीदिदम्।। | 1-71-1a 1-71-1b |
ऋषेरङ्गिरसः पौत्र वृत्तेनाभिजनेन च। भ्राजसे विद्यया चैव तपसा च दमेन च।। | 1-71-2a 1-71-2b |
ऋषिर्यथाङ्गिरा मान्यः पितुर्मम महायशाः। तथा प्रान्यश्च पूज्यश्च मम भूयो बृहस्पतिः।। | 1-71-3a 1-71-3b |
एवं ज्ञात्वा विजानीहि यद्ब्रवीमि तपोधन। व्रतस्थे नियमोपेते यथा वर्ताम्यहं त्वयि।। | 1-71-4a 1-71-4b |
स समावृतविद्यो मां भक्तां भजितुमर्हसि। गृहाण पाणिं विधिवन्मम मन्त्रपुरस्कृतम्।। कच उवाच। | 1-71-5a 1-71-5b 1-71-6c |
पूज्यो मान्यश्च भगवान्यथा तव पिता मम। तथा त्वमनवद्याङ्गि पूजनीयतरा मम।। | 1-71-6a 1-71-6b |
प्राणेभ्योऽपि प्रियतरा भार्गवस्य महात्मनः। त्वं भत्रे धर्मतः पूज्या गुरुपुत्री सदा मम।। | 1-71-7a 1-71-7b |
यथा मम गुरुर्नित्यं मान्यः शुक्रः पिता तव। देवयानि तथैव त्वं नैवं मां वक्तुमर्हसि।। | 1-71-8a 1-71-8b |
देवयान्युवाच। | 1-71-9x |
गुरुपुत्रस्य पुत्रो वै न त्वं पुत्रश्च मे पितुः। तस्मात्पूज्यश्च मान्यश्च ममापि त्वं द्विजोत्तम।। | 1-71-9a 1-71-9b |
असुरैर्हन्यमाने च कच त्वयि पुनःपुनः। तदाप्रभृति या प्रीतिस्तां त्वमद्य स्मरस्व मे।। | 1-71-10a 1-71-10b |
सौहार्दे चानुरागे च वेत्थ मे भक्तिमुत्तमाम्। न मामर्हसि धर्मज्ञ त्यक्तुं भक्तामनागसम्।। | 1-71-11a 1-71-11b |
कच उवाच। | 1-71-12x |
अनियोज्ये नियोक्तुं मां देवयानि न चार्हसि। प्रसीद सुभ्रु त्वं मह्यं गुरोर्गुरुतरा शुभे।। | 1-71-12a 1-71-12b |
यत्रोषितं विशालाक्षि त्वया चन्द्रनिभानने। तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्य भामिनि।। | 1-71-13a 1-71-13b |
भगिनी धर्मतो मे त्वं मैवं वोचः सुमध्यमे। सुखमस्म्युषितो भद्रे न मन्युर्विद्यते मम।। | 1-71-14a 1-71-14b |
आपृच्छे त्वां गमिष्यामि शिवमाशंस मे पथि। अविरोधेन धर्मस्य स्मर्तव्योऽस्मि कथान्तरे। अप्रमत्तोत्थिता नित्यमाराधय गुरुं मम।। | 1-71-15a 1-71-15b 1-71-15c |
देवयान्युवाच। | 1-71-16x |
यदि मां धर्मकामार्थे प्रत्याख्यास्यसि याचितः। ततः कच न ते विद्या सिद्धिमेषा गमिष्यति।। | 1-71-16a 1-71-16b |
कच उवाच। | 1-71-17x |
गुरुपुत्रीति कृत्वाऽहं प्रत्याचक्षे न दोषतः। गुरुणा चाननुज्ञातः काममेवं शपस्व माम्।। | 1-71-17a 1-71-17b |
आर्षं धर्मं ब्रुवाणोऽहं देवयानि यथा त्वया। शप्तो ह्यनर्हः शापस्य कामतोऽद्य न धर्मतः।। | 1-71-18a 1-71-18b |
तस्माद्भवत्या यः कामो न तथा स भविष्यति। ऋषिपुत्रो न ते कश्चिज्जातु पाणिं ग्रहीष्यति।। | 1-71-19a 1-71-19b |
फलिष्यति न ते विद्या यत्त्वं मामात्थ तत्तथा। अध्यापयिष्यामि तु यं तस्य विद्या फलिष्यति।। | 1-71-20a 1-71-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-71-21x |
एवमुक्त्वा द्विजश्रेष्ठो देवयानीं कचस्तदा। त्रिदशेशालयं शीघ्रं जगाम द्विजसत्तमः।। | 1-71-21a 1-71-21b |
तमागतमभिप्रेक्ष्य देवा इन्द्रपुरोगमाः। बृहस्पतिं सभाज्येदं कचं वचनमब्रुवन्।। | 1-71-22a 1-71-22b |
देवा ऊचुः। | 1-71-23x |
यत्त्वयास्मद्धितं कर्म कृतं वै परमाद्भुतम्। न ते यशः प्रणशिता भागभाक्व भविष्यसि।। | 1-71-23a 1-71-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।। |
1-71-1 समावृतव्रतं समाप्तव्रतम्।। 1-71-9 गुरुः पुत्रो यस्य अङ्गिरसः पुत्रः पौत्रः।। 1-71-15 उत्थिता अनलसा।। 1-71-17 अननुज्ञातस्त्वदुक्तकार्ये।। 1-71-23 प्रणशिता प्रणङ्क्ष्यति।। एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।।
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