महाभारतम्-01-आदिपर्व-165
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पाण्डवान्प्रति प्रेषितया हिडिम्बया विलम्बिते हिडिम्बस्य तत्रागमनम्।। 1 ।।
भीमहिडिम्बयोर्युद्धम्।। 2 ।।
कुन्त्यादीनां प्रबोधः।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-165-1x |
तां विदित्वा चिरगतां हिडिम्बो राक्षसेश्वरः। अवतीर्य द्रुमात्तस्मादाजगामाशु पाण्डवान्।। | 1-165-1a 1-165-1b |
लोहिताक्षो महाबाहुरूर्ध्वकेशो महाननः। मेघसङ्घातवर्ष्मा च तीक्ष्णदंष्ट्रो भयानकः।। | 1-165-2a 1-165-2b |
तलं तलेन संहत्य बाहू विक्षिप्य चासकृत्। उद्वृत्तनेत्रः संक्रुद्धो दन्तान्दन्तेषु निष्कुषन्।। | 1-165-3a 1-165-3b |
कोऽद्य मे भोक्तुकामस्य विघ्नं चरति दुर्मतिः। न बिभेति हिडिम्बी च प्रेषिता किमनागता।। | 1-165-4a 1-165-4b |
वैशंपायन उवाच। | 1-165-5x |
तमापतन्तं दृष्ट्वै तथा विकृतदर्शनम्। हिडिम्बोवाच वित्रस्ता भीमसेनमिदं वचः।। | 1-165-5a 1-165-5b |
आपतत्येष दुष्टात्मा संक्रुद्धः पुरुषादकः। साऽहं त्वां भ्रातृभिः सार्धं यद्ब्रवीमि तथा कुरु।। | 1-165-6a 1-165-6b |
अहं कामगमा वीर रक्षोबलसमन्विता। आरुहेमां मम श्रोणिं नेष्यामि त्वां विहायसा।। | 1-165-7a 1-165-7b |
प्रबोधयैतान्संसुप्तान्मातरं च परन्तप। सर्वानेव गमिष्याभि गृहीत्वा वो विहायसा।। | 1-165-8a 1-165-8b |
भीम उवाच। | 1-165-9x |
मा भैस्त्वं पृथुसुश्रोणि नैष कश्चिन्मयि स्थिते। अहमेनं हनिष्यामि पश्यन्त्यास्ते सुमध्यमे।। | 1-165-9a 1-165-9b |
नायं प्रतिबलो भीरु राक्षसापसदो मम। सोढुं युधि परिस्पन्दमथवा सर्वराक्षसाः।। | 1-165-10a 1-165-10b |
पश्य बाहू सुवृत्तौ मे हस्तिहस्तनिभाविमौ। ऊरू परिघसङ्काशौ संहतं चाप्युरो महत्।। | 1-165-11a 1-165-11b |
विक्रमं मे यथेन्द्रस्य साऽद्य द्रक्ष्यसि शोभने। माऽवमंस्थाः पृथुश्रोणि मत्वा मामिह मानुषम्।। | 1-165-12a 1-165-12b |
हिडिम्बोवाच। | 1-165-13x |
नावमन्ये नरव्याघ्र त्वामहं देवरूपिणम्। दृष्टप्रभावस्तु मया मानुषेष्वेव राक्षसः।। | 1-165-13a 1-165-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-165-14x |
तथा संजल्पतस्तस्य भीमसेनस्य भारत। वाचः शुश्राव ताः क्रुद्धो राक्षसः पुरुषादकः।। | 1-165-14a 1-165-14b |
अवेक्षमाणस्तस्याश्च हिडिम्बो मानुषं वपुः। स्रग्दामपूरितशिखां समग्रेन्दुनिभाननाम्।। | 1-165-15a 1-165-15b |
सुभ्रूनासाक्षिकेशान्तां सुकुमारनखत्वचम्। सर्वाभरणसंयुक्तां सुसूक्ष्माम्बरधारिणीम्।। | 1-165-16a 1-165-16b |
तां तथा मानुषं रूपं बिभ्रतीं सुमनोहरम्। पुंस्कामां शङ्कमानश्च चुक्रोध पुरुषादकः।। | 1-165-17a 1-165-17b |
संक्रुद्धो राक्षसस्तस्या भगिन्याः कुरुसत्तम। उत्फाल्य विपुले नेत्रे ततस्तामिदमब्रवीत्।। | 1-165-18a 1-165-18b |
को हि मे भोक्तुकामस्य विघ्नं चरति दुर्मतिः। न बिभेषि हिडिम्बे किं मत्कोपाद्विप्रमोहिता।। | 1-165-19a 1-165-19b |
धिक्त्वामसति पुंस्कामे मम विप्रियकारिणि। पूर्वेषां राक्षसेन्द्राणां सर्वेषामयशस्करि।। | 1-165-20a 1-165-20b |
यानिमानाश्रिताऽकार्षीर्विप्रियं समुहन्मम। एष तानद्य वै सर्वान्हनिष्यामि त्वया सह।। | 1-165-21a 1-165-21b |
वैशंपायन उवाच। | 1-165-22x |
एवमुक्त्वा हिडिम्बां स हिडिम्बो लोहितेक्षणः। वधायाभिपपातैनान्दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन्।। | 1-165-22a 1-165-22b |
गर्जन्तमेवं विजने भीमसेनोऽभिवीक्ष्य तम्। रक्षन्प्रबोधं भ्रातॄणां मातुश्च परवीरहा।। | 1-165-23a 1-165-23b |
तमापतान्तं संप्रेक्ष्य भीमः प्रहरतां वरः। भर्त्सयामास तेजस्वी तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 1-165-24a 1-165-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-165-25x |
भीमसेनस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं प्रहसन्निव। भगिनीं प्रति सङ्क्रुद्धमिदं वचनमब्रवीत्।। | 1-165-25a 1-165-25b |
किं ते हिडिम्ब एतैर्वा सुखसुप्तैः प्रबोधितैः। मामासादय दुर्बुद्धे तरसा त्वं नराशन।। | 1-165-26a 1-165-26b |
मय्येव प्रहरैहि त्वं न स्त्रियं हन्तुमर्हसि। विशेषतोऽनपकृते परेणापकृते सति।। | 1-165-27a 1-165-27b |
न हीयं स्ववशा बाला कामयत्यद्य मामिह। चोदितैषा ह्यनङ्गेन शरीरान्तरचारिणा।। | 1-165-28a 1-165-28b |
भगिनी तव दुर्वृत्त रक्षसां वै यशोहर। त्वन्नियोगेन चैवेयं रूपं मम समीक्ष्य च।। | 1-165-29a 1-165-29b |
कामयत्यद्य मां भीरुस्तव नैषापराध्यति। अनङ्गेन कृते दोषे नेमां गर्हितुमर्हसि।। | 1-165-30a 1-165-30b |
मयि तिष्ठति दुष्टात्मन्न स्त्रियं हन्तुमर्हसि। संगच्छस्व मया सार्धमेकेनैको नराशन।। | 1-165-31a 1-165-31b |
अहमेको गमिष्यामि त्वामद्य यमसादनम्। अद्य मद्बलनिष्पिष्टं शिरो राक्षस दीर्यताम्। कुञ्जरस्येव पादेन विनिष्पिष्टं बलीयसाः।। | 1-165-32a 1-165-32b 1-165-32c |
अद्य गात्राणि ते कङ्काः श्येना गोमायवस्तथा। कर्षन्तु भुवि संहृष्टा निहतस्य मया मृधे।। | 1-165-33a 1-165-33b |
क्षणेनाद्य करिष्येऽहमिदं वनमराक्षसम्। पुरा यद्दूषितं नित्यं त्वया भक्षयता नरान्।। | 1-165-34a 1-165-34b |
अद्य त्वां भगिनी रक्षः कृष्यमाणं मयाऽसकृत्। द्रक्ष्यत्यद्रिप्रतीकाशं सिंहेनेव महाद्विपम्।। | 1-165-35a 1-165-35b |
निराबाधास्त्वयि हते मया राक्षसपांसन। वनमेतच्चरिष्यन्ति पुरुषा वनचारिणः।। | 1-165-36a 1-165-36b |
हिडिम्ब उवाच। | 1-165-37x |
गर्जितेन वृथा किं ते कत्थितेन च मानुष। कृत्वैतत्कर्मणा सर्वं कत्थेया मा चिरं कृथाः।। | 1-165-37a 1-165-37b |
बलिनं मन्यसे यच्चाप्यात्मानं सपराक्रमम्। ज्ञास्यस्यद्य समागम्य मयात्मानं बलाधिकम्।। | 1-165-38a 1-165-38b |
न तावदेतान्हिंसिष्ये स्वपन्त्वेते यथासुखम्। एष त्वामेव दुर्बुद्धे निहन्म्यद्याप्रियंवदम्।। | 1-165-39a 1-165-39b |
पीत्वा तवासृग्गात्रेभ्यस्ततः पश्चादिमानपि। हनिष्यामि ततः पश्चादिमां विप्रियकारिणीम्।। | 1-165-40a 1-165-40b |
वैशंपायन उवाच। | 1-165-41x |
एवमुक्त्वा ततो बाहुं प्रगृह्य पुरुषादकः। अभ्यद्रवत संक्रुद्धो भीमसेनमरिन्दमम्।। | 1-165-41a 1-165-41b |
तस्याभिद्रवतस्तूर्णं भीमो भीमपराक्रमः। वेगेन प्रहितं बाहुं निजग्राह हसन्निव।। | 1-165-42a 1-165-42b |
निगृह्य तं बलाद्भीमो विस्फुरन्तं चकर्ष ह। तस्माद्देशाद्धनूंष्यष्टौ सिंहः क्षुद्रमृगं यथा।। | 1-165-43a 1-165-43b |
ततः स राक्षसः क्रुद्धः पाण्डवेन बलार्दितः। भीमसेनं समालिङ्ग्य व्यनदद्भैरवं रवम्।। | 1-165-44a 1-165-44b |
पुनर्भीमो बलादेनं विचकर्ष महाबलः। मा शब्दः सुखसुप्तानां भ्रातॄणां मे भवेदिति।। | 1-165-45a 1-165-45b |
`हस्ते गृहीत्वा तद्रक्षो दूरमन्यत्र नीतवान्। पृच्छे गृहीत्वा तुण्डेन गरुडः पन्नगं यथा।।' | 1-165-46a 1-165-46b |
अन्योन्यं तौ समासाद्य विचकर्षतुरोजसा। हिडिम्बो भीमसेनश्च विक्रमं चक्रतुः परम्।। | 1-165-47a 1-165-47b |
बभञ्जतुस्तदा वृक्षाँल्लताश्चाकर्षतुस्तदा। मत्ताविव चं संरब्धौ वारणौ षष्टिहायनौ।। | 1-165-48a 1-165-48b |
`पादपानुद्धरन्तौ तावूरुवेगेन वेगितौ। स्फोटयन्तौ लताजालान्यूरुभ्यां गृह्य सर्वशः।। | 1-165-49a 1-165-49b |
वित्रासयन्तौ तौ शब्दैः सर्वतो मृगपक्षिणः। बलेन बलिनौ मत्तावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ।। | 1-165-50a 1-165-50b |
भीमराक्षसयोर्युद्धं तदाऽवर्तत दारुणम्। पुरा देवासुरे युद्धे वृत्रवासवयोरिव।। | 1-165-51a 1-165-51b |
भङूक्त्वा वृक्षान्महाशाखांस्ताडयामासतुः क्रुधा। सालतालतमालाम्रवटार्जुनविभीतकान्।। | 1-165-52a 1-165-52b |
न्यग्रोधप्लक्षखर्जूरपनसानश्मकण्टकान्। एतानन्यान्महावृक्षानुत्खाय तरसाऽखिलान्।। | 1-165-53a 1-165-53b |
उत्क्षिप्यान्योन्यरोषेण ताडयामासतू रणे। यदाऽभवद्वनं सर्वं निर्वृक्षं वृक्षसङ्कुलम्।। | 1-165-54a 1-165-54b |
तदा शिलाश्च कुञ्जांश्च वृक्षान्कण्टकिनस्तथा। ततस्तौ गिरिशृङ्गाणि पर्वतांश्चाभ्रलेलिहान्।। | 1-165-55a 1-165-55b |
शैलांश्च गण्डपाषाणानुत्खायादाय वैरिणौ। चिक्षेपतुरुपर्याजावन्योन्यं विजयेषिणौ।। | 1-165-56a 1-165-56b |
तद्वनं परितः पञ्चयोजनं निर्महीरुहम्। निर्लतागुल्मपाषाणं निर्मृगं चक्रतुर्भृशम्।। | 1-165-57a 1-165-57b |
तयोर्युद्धेन राजेन्द्र तद्वनं भीमरक्षसोः। मुहूर्तेनाभवत्कूमर्पृष्ठवच्छ्लक्ष्णमव्ययम्।। | 1-165-58a 1-165-58b |
ऊरुबाहुपरिक्लेशात्कर्षन्तावितरेतरम्। उत्कर्षन्तौ विकर्षन्तौ प्रकर्षन्तौ परस्परम्।। | 1-165-59a 1-165-59b |
तौ स्वनेन विना राजन्गर्जन्तौ च परस्परम्। पाषाणसंघट्टनिभैः प्रहारैरभिजघ्नतुः।। | 1-165-60a 1-165-60b |
अन्योन्यं च समालिङ्ग्य विकर्षन्तौ परस्परम्। बाहुयुद्धमभूद्धोरं बलिवासवयोरिव। युद्धसंरम्भनिर्गच्छत्फूत्काररवनिस्वनम्।।' | 1-165-61a 1-165-61b 1-165-61c |
तयोः शब्देन महता विबुद्धास्ते नरर्षभाः। सह मात्रा च ददृशुर्हिडिम्बामग्रतःस्थिताम्।। | 1-165-62a 1-165-62b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 165 ।। |
1-165-2 मेघसंघातवर्ष्मा अतिकृष्णशरीरः।। 1-165-32 गमिष्यामि गमयिष्यामि।। 1-165-54 निर्वृक्षं अकण्टकवृक्षरहितम्।। पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 165 ।।
आदिपर्व-164 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-166 |