महाभारतम्-01-आदिपर्व-211
← आदिपर्व-210 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-211 वेदव्यासः |
आदिपर्व-212 → |
एकस्याः बहुभार्यात्वे शङ्कमानान्द्रुपदादीन्प्रति व्यासेन स्वस्वाभिप्रायकथनानुज्ञा।। 1 ।।
द्रुपदादिभिः स्वस्वमते कथिते व्यासेनास्य विवाहस्य धर्म्यत्वकथनम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-211-1x |
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे पाञ्चाल्यश्च महायशाः। प्रत्युथाय महात्मानं कृष्णं सर्वेऽभ्यवादयन्।। | 1-211-1a 1-211-1b |
प्रतिनन्द्य स तां पूजां पृष्ट्वा कुशलमन्ततः। आसने काञ्चने शुद्धे निषसाद महामनाः।। | 1-211-2a 1-211-2b |
अनुज्ञातास्तु ते सर्वे कृष्णेनामिततेजसा। आसनेषु महार्हेषु निषेदुर्द्विपदां वराः।। | 1-211-3a 1-211-3b |
ततो मुहूर्तान्मधुरां वाणीमुच्चार्य पार्षतः। पप्रच्छ तं महात्मानं द्रौपद्यर्थं विशांपते।। | 1-211-4a 1-211-4b |
कथमेका बहूनां स्यान्न च स्याद्धर्मसंकरः। एतन्मे भगवान्सर्वं प्रब्रवीतु यथातथम्।। | 1-211-5a 1-211-5b |
व्यास उवाच। | 1-211-6x |
अस्मिन्धर्मे विप्रलब्धे लोकवेदविरोधके। यस्य यस्य मतं यद्यच्छ्रोतुमिच्छामि तस्य तत्।। | 1-211-6a 1-211-6b |
द्रुपद उवाच। | 1-211-7x |
अधर्मोऽयं मम मतो विरुद्धो लोकवेदयोः। न ह्येका विद्यते पत्नी बहूनां द्विजसत्तम।। | 1-211-7a 1-211-7b |
न चाप्याचरितः पूर्वैरयं धर्मो महात्मभिः। न चाप्यधर्मो विद्वद्भिश्चरितव्यः कथंचन।। | 1-211-8a 1-211-8b |
ततोऽहं न करोम्येनं व्यवसायं क्रियां प्रति। धर्मः सदैव संदिग्धः प्रतिभाति हि मे त्वयम्।। | 1-211-9a 1-211-9b |
धृष्टद्युम्न उवाच। | 1-211-10x |
यवीयसः कथं भार्यां ज्येष्ठो भ्राता द्विजर्षभ। ब्रह्मन्समभिवर्तेत सद्वृत्तः संस्तपोधन।। | 1-211-10a 1-211-10b |
न तु धर्मस्य सूक्ष्मत्वाद्गतिं विद्मः कथंचन। अधर्मो धर्म इति वा व्यवसायो न शक्यते।। | 1-211-11a 1-211-11b |
कर्तुमस्मद्विधैर्ब्रह्मंस्ततोऽयं न व्यवस्यते। पञ्चानां महिषी कृष्णा भवत्विति कथंचन।। | 1-211-12a 1-211-12b |
युधिष्ठिर उवाच। | 1-211-13x |
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः। वर्तते हि मनो मेऽत्र नैषोऽधर्मः कथंचन।। | 1-211-13a 1-211-13b |
श्रूयते हि पुराणेऽपि जटिला नाम गौतमी। ऋषीनध्यासितवती सप्त धर्मभृतां वरा।। | 1-211-14a 1-211-14b |
तथैव मुनिजा वार्क्षी तपोभिर्भावितात्मनः। संगताभूद्दश भ्रातॄनकेन्म्नः प्रचेतसः।। | 1-211-15a 1-211-15b |
गुरोर्हि वचनं प्राहुर्धर्म्यं धर्मज्ञसत्तम। गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः।। | 1-211-16a 1-211-16b |
सा चाप्युक्तवती वाचं भैक्षवद्भुज्यतामिति। तस्मादेतदहं मन्ये परं धर्मं द्विजोत्तम।। | 1-211-17a 1-211-17b |
कुन्त्युवाच। | 1-211-18x |
एतमेतद्यथा प्राह धर्मचारी युधिष्ठिरः। भुज्यतां भ्रातृभिः सार्धमित्यर्जुनमचोदयम्। अनृतान्मे भयं तीव्रं मुच्येऽहमनृतात्कथम्।। | 1-211-18a 1-211-18b 1-211-18c |
व्यास उवाच। | 1-211-19x |
अनृतान्मोक्ष्यसे भद्रे धर्मश्चैव सनातनः। ननु वक्ष्यामि सर्वेषां पाञ्चाल शृमु मे स्वयम्।। | 1-211-19a 1-211-19b |
यथाऽयं विहितो धर्मो यतश्चायं सनातनः। यथा च प्राह कौन्तेयस्तथा धर्मो न संशयः।। | 1-211-20a 1-211-20b |
वैशंपायन उवाच। | 1-211-21x |
तत उत्थाय भगवान्व्यासो द्वैपायनः प्रभुः। करे गृहीत्वा राजानं राजवेश्म समाविशत्।। | 1-211-21a 1-211-21b |
पाण्डवाश्चापि कुन्ती च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः। विविशुस्तेऽपि तत्रैव प्रतीक्षन्ते स्म तावुभौ।। | 1-211-22a 1-211-22b |
ततो द्वैपायनस्त्समै नरेन्द्राय महात्मने। आचख्यौ तद्यथा धर्मो बहूनामेकपत्निता।। | 1-211-23a 1-211-23b |
`यथा च ते ददुश्चैव राजपुत्र्याः पुरा वरम्। धर्माद्यास्तपसा तुष्टाः पञ्चपत्नीत्वमीश्वराः।।' | 1-211-24a 1-211-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 211 ।। |
आदिपर्व-210 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-212 |