महाभारतम्-01-आदिपर्व-055
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आस्तीककृता जनमेजययज्ञप्रशंसा।। 1 ।।
आस्तीक उवाच। | 1-55-1x |
सोमस्य यज्ञो वरुणस्य यज्ञः प्रजापतेर्यज्ञ आसीत्प्रयागे। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-1a 1-55-1b 1-55-1c 1-55-1d |
शक्रस्य यज्ञः शतसङ्ख्य उक्त- स्तथापरं तुल्यसङ्ख्यं शतं वै। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-2a 1-55-2b 1-55-2c 1-55-2d |
यमस्य यज्ञो हरिमेधसश्च यथा यज्ञो रन्तिदेवस्य राज्ञः। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-3a 1-55-3b 1-55-3c 1-55-3d |
गयस्य यज्ञः शशबिन्दोश्च राज्ञो यज्ञसल्तथा वैश्रवणस्य राज्ञः। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-4a 1-55-4b 1-55-4c 1-55-4d |
नृगस्य यज्ञस्त्वजमीढस्य चासी- द्यथा यज्ञो दाशरथेश्च राज्ञः। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-5a 1-55-5b 1-55-5c 1-55-5d |
यज्ञः श्रुतो दिवि देवस्य सूनो- र्युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-6a 1-55-6b 1-55-6c 1-55-6d |
कृष्णस्य यज्ञः सत्यवत्याः सुतस्य स्वयं च कर्म प्रचकार यत्र। तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः।। | 1-55-7a 1-55-7b 1-55-7c 1-55-7d |
इमे च ते सूर्यसमानवर्चसः समासते वृत्रहणः क्रतुं यथा। नैषां ज्ञातुं विद्यते ज्ञानमद्य दत्तं येभ्यो न प्रणश्येत्कदाचित्।। | 1-55-8a 1-55-8b 1-55-8c 1-55-8d |
ऋत्विक्समो नास्ति लोकेषु चैव द्वैपायनेनेति विनिश्चितं मे। एतस्य शिष्या हि क्षितिं संचरन्ति सर्वर्त्विजः कर्मसु स्वेषु दक्षाः।। | 1-55-9a 1-55-9b 1-55-9c 1-55-9d |
विभावसुश्चित्रभानुर्महात्मा हिरण्यरेता हुतभुक्कृष्णवर्त्मा। प्रदक्षिमावर्तशिखः प्रदीप्तो हव्यं तवेदं हुतभुग्वष्टि देवः।। | 1-55-10a 1-55-10b 1-55-10c 1-55-10d |
नैह त्वदन्यो विद्यते जीवलोके समो नृपः पालयिता प्रजानाम्। धृत्या च ते प्रतीमनाः सदाहं त्वं वा वरुणो धर्मराजो यमो वा।। | 1-55-11a 1-55-11b 1-55-11c 1-55-11d |
शक्रः साक्षाद्वज्रपाणिर्यथेह त्राता लोकेऽस्मिंस्त्वं तथेह प्रजानाम्। मतस्त्वं नः पुरुषेन्द्रेह लोके न च त्वदन्यो भूपतिरस्ति जज्ञे।। | 1-55-12a 1-55-12b 1-55-12c 1-55-12d |
खट्वाङ्गनाभगदिलीपकल्प ययातिमान्धातृसमप्रभाव। आदित्यतेजःप्रतिमानतेजा भीष्मो यथा राजसि सुव्रतस्त्वम्।। | 1-55-13a 1-55-13b 1-55-13c 1-55-13d |
वाल्मीकिवत्ते निभृतं स्ववीर्यं वसिष्ठवत्ते नियतश्च कोपः। प्रभुत्वमिन्द्रत्वसमं मतं मे द्युतिश्च नारायणवद्विभाति।। | 1-55-14a 1-55-14b 1-55-14c 1-55-14d |
यमो यथा धर्मविनिश्चयज्ञः कृष्णो यथा सर्वगुणोपपन्नः। श्रियां निवासोऽसि यथा वसूनां निधानभूतोऽसि तथा क्रतूनाम्।। | 1-55-15a 1-55-15b 1-55-15c 1-55-15d |
दम्भोद्भवेनासि समो बलेन रामो यथा शस्त्रविदस्त्रविच्च। और्वत्रिताभ्यामसि तुल्यतेजा दुष्प्रेक्षणीयोऽसि भगीरथेन।। | 1-55-16a 1-55-16b 1-55-16c 1-55-16d |
सौतिरुवाच। | 1-55-17x |
एवं स्तुताः सर्व एव प्रसन्ना राजा सदस्या ऋत्विजो हव्यवाहः। तेषां दृष्ट्वा भावितानीङ्गितानि प्रोवाच राजा जनमेजयोऽथ।। | 1-55-17a 1-55-17b 1-55-17c 1-55-17d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 55 ।। |
1-55-6 देवस्य धर्मराजस्य।। 1-55-8 ज्ञानशब्दः कर्मव्युत्पन्नो ज्ञेयवचनः अद्य संप्रति ज्ञातुं ज्ञेयं न विद्यते सर्वस्य ज्ञातत्वादित्यर्थः।। 1-55-10 अग्निं स्तौति विभावसुरिति। वष्टि कामयते।। 1-55-12 न च त्वदन्यस्त्राता भूपतिरस्ति इदानीं न च जज्ञे प्रागपि।। 1-55-14 निभृतं गुप्तं। नियतो निगृहीतः।। 1-55-15 वसवोऽष्टौ तत्संबन्धिनीनां श्रियाम्।। 1-55-16 रामो भार्गवः और्वत्रितावृषी।। 1-55-17 भावितानि मनसि संकल्पितानि। भारतस्त्विङ्गितानीति पाठे भारतो राजा भरतवंशजत्वात्।। पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 55 ।।
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