महाभारतम्-01-आदिपर्व-215
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युधिष्ठिरादीनां क्रमेण द्रौपद्याः पाणिग्रहणम्।। 1 ।।
द्रुपद उवाच। | 1-215-1x |
अश्रुत्वैवं वचनं ते महर्षे मया पूर्वं यतितं संविधातुम्। न वै शक्यं विहितस्यापयानं तदेवेदमुपपन्नं विधानम्।। | 1-215-1a 1-215-1b 1-215-1c 1-215-1d |
दिष्टस्य ग्रन्थिरनिवर्तनीयः स्वकर्मणा विहितं तेन किंचित्। कृतं निमित्तमिह नैकहेतो- स्तदेवेदमुपन्नं विधानम्।। | 1-215-2a 1-215-2b 1-215-2c 1-215-2d |
यथैव कृष्णोक्तवती पुरस्ता- न्नैकान्पतीन्मे भगवान्ददातु। स चाप्येवं वरमित्यब्रवीत्तां देवो हि वेत्ता परमं यदत्र।। | 1-215-3a 1-215-3b 1-215-3c 1-215-3d |
यदि चैवं विहितः शङ्करेण धर्मोऽधर्मो वा नात्र ममापराधः। गृह्णन्त्विमे विधितत्पाणिमस्या यथोपजोषं विहितैषां हि कृष्णा।। | 1-215-4a 1-215-4b 1-215-4c 1-215-4d |
व्यास उवाच। | 1-215-5x |
नायं विधिर्मानुषाणां विवाहे देवा ह्येते द्रौपदी चापि लक्ष्मीः। प्राक्कर्मणः सुकृतात्पाण्डवानां पञ्चानां भार्या देवदेवप्रसादात्।। | 1-215-5a 1-215-5b 1-215-5c 1-215-5d |
तेषामेवायं विहितः स्याद्विवाहो यथा ह्येष द्रौपदीपाण्डवानाम्। अन्येषां नृणां योषितां च न धर्मः स्यान्मानवोक्तो नरेन्द्र।। | 1-215-6a 1-215-6b 1-215-6c 1-215-6d |
वैशंपायन उवाच। | 1-215-7x |
तत आजग्मतुस्तत्र तौ व्यासद्रुपदावुभौ। कुन्ती सपुत्रा यत्रास्ते धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः। ततो द्वैपायनः कृष्णो युधिष्ठिरमथागमत्।।' | 1-215-7a 1-215-7b 1-215-7c |
ततोऽब्रवीद्भगवान्धर्मराज- मद्यैव पुण्येऽहनि पाण्डवेय। पुण्ये पुष्ये योगमुपैति चन्द्रमाः पाणिं कृष्णायास्त्वं गृहाणाद्य पूर्वं।। | 1-215-8a 1-215-8b 1-215-8c 1-215-8d |
`एवमुक्त्वा धर्मराजं भीमादीनप्यभाषत।। | 1-215-9a |
क्रमेण पुरुषव्याघ्राः पाणिं गृह्णन्तु पाणिभिः। एवमेव मया सर्वं दृष्टमेतत्पुराऽनघाः।। | 1-215-10a 1-215-10b |
वैशंपायन उवाच। | 1-215-11x |
ततो राजा यज्ञसेनः सपुत्रो जन्यार्थणुक्तं बहु तत्तदग्र्यम्। 'समर्थयामास महानुभावो हृष्टः सपुत्रः सहबन्धुवर्गः।' समानयामास सुतां च कृष्णा- माप्लाव्य रत्नैर्बहुभिर्विभूष्य।। | 1-215-11a 1-215-11b 1-215-11c 1-215-11d 1-215-11e 1-215-11f |
ततस्तु सर्वे सुहृदो नृपस्य समाजग्मुः सहिता मन्त्रिणश्च। द्रष्टुं विवाहं परमप्रतीता द्विजाश्च पौराश्च यथाप्रधानाः।। | 1-215-12a 1-215-12b 1-215-12c 1-215-12d |
ततोऽस्य वेश्माग्र्यजनोपशोभितं विस्तीर्णपद्मोत्पलभूषिताजिरम्। बलौघरत्नौघविचित्रमाबभौ नभो यथा निर्मलतारकान्वितम्।। | 1-215-13a 1-215-13b 1-215-13c 1-215-13d |
ततस्तु ते कौरवराजपुत्रा विभूषिताः कुण्डलिनो युवानः। महार्हवस्त्राम्बरचन्दनोक्षिताः कृताभिषेकाः कृतमङ्गलक्रियाः।। | 1-215-14a 1-215-14b 1-215-14c 1-215-14d |
पुरोहितेनाग्निसमानवर्चसा सहैव धौम्येन यताविधि प्रभो। क्रमेण सर्वे विविशुस्ततः सदो महर्षभा गोष्ठमिवाभिनन्दिनः।। | 1-215-15a 1-215-15b 1-215-15c 1-215-15d |
ततः समाधाय स वेदपरागो जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम्। युधिष्ठिरं चाप्युपनीय मन्त्रवि- न्नियोजयामास सहैव कृष्णया।। | 1-215-16a 1-215-16b 1-215-16c 1-215-16d |
प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणी समानयामास स वेदपरागः। `विप्रांश्च संतर्प्य युधिष्ठिरो धनै- र्गोभिश्च रत्नैर्विविधैश्च पूर्वम्।। | 1-215-17a 1-215-17b 1-215-17c 1-215-17d |
तदा स राजा द्रुपदस्य पुत्रिका- पाणिं प्रजग्राह हुताशनाग्रतः। धौम्येन मन्त्रैर्विधिवद्भुतेऽग्नौ सहाग्निकल्पैर्ऋषिभिः समेत्य।। | 1-215-18a 1-215-18b 1-215-18c 1-215-18d |
ततोऽन्तरिक्षात्कुसुमानि पेतु- र्ववौ च वायुः सुमनोज्ञगन्धः। ततोऽभ्यनुज्ञाप्य समाजशोभितं युधिष्ठिरं राजपुरोहितस्तदा।। | 1-215-19a 1-215-19b 1-215-19c 1-215-19d |
विप्रांश्च सर्वान्सुहृदश्च राज्ञः समेत्य राजानमदीनसत्वम्। जगाद भूयोऽपि महानुभावो वचोऽर्थयुक्तं मनुजेश्वरं तम्।। | 1-215-20a 1-215-20b 1-215-20c 1-215-20d |
गृह्णन्त्वथान्ये नरदेवकन्या- पाणिं यथावन्नरदेवपुत्राः। तमभ्यनन्दद्द्रुपदस्तथा द्विजं तथा कुरुष्वेति तमादिदेश।। | 1-215-21a 1-215-21b 1-215-21c 1-215-21d |
पुरोहितस्यानुमतेन राज्ञ- स्ते राजपुत्रा मुदिता बभूवुः। क्रमेण चान्ये च नराधिपात्मजा वरस्त्रियास्ते जगृहुः करं तदा।।' | 1-215-22a 1-215-22b 1-215-22c 1-215-22d |
अहन्यहन्युत्तमरूपधारिणो महारथाः कौरववंशवर्धनाः।। | 1-215-23a 1-215-23b |
इदं च तत्राद्भुतरूपमुत्तमं जगाद देवर्षिरतीतमानुषम्। महानुभावा किल सा सुमध्यमा बभूव कन्यैव गते गतेऽहनि।। | 1-215-24a 1-215-24b 1-215-24c 1-215-24d |
`पतिश्वशुरता ज्येष्ठे पतिदेवरताऽनुजे। मध्यमेषु च पाञ्चाल्यास्त्रितयं त्रितयं त्रिषु।।' | 1-215-25a 1-215-25b |
कृते विवाहे द्रुपदो धनं ददौ महारथेभ्यो बहुरूपमुत्तमम्। शतं रथानां वरहेममालिनां चतुर्युजां हेमखलीनमालिनाम्।। | 1-215-26a 1-215-26b 1-215-26c 1-215-26d |
शतं गजानामपि पद्मिनां तथा शतं गिरिणामिव हेमशृङ्गिणाम्। तथैव दासीशतमग्र्ययौवनं महार्हवेषाभरणाम्बरस्रजम्।। | 1-215-27a 1-215-27b 1-215-27c 1-215-27d |
पृथक्पृथग्दिव्यदृशां पुनर्ददौ तदा धनं सौमकिरग्निसाक्षिकम्। तथैव वस्त्राणि विभूषणानि प्रभावयुक्तानि महानुभावः।। | 1-215-28a 1-215-28b 1-215-28c 1-215-28d |
कृते विवाहे च ततस्तु पाण्डवाः प्रभूतरत्नामुपलभ्य तां श्रियम्। विजह्रुरिन्द्रप्रतिमा महाबलाः पुरे तु पाञ्चालनृपस्य तस्य ह।। | 1-215-29a 1-215-29b 1-215-29c 1-215-29d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 215 ।। |
1-215-26 चतुर्युजामश्वचतुष्टययुजाम्।।
पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 215 ।।
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