महाभारतम्-01-आदिपर्व-243
← आदिपर्व-242 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-243 वेदव्यासः |
आदिपर्व-244 → |
कृष्णरथमास्थाय सुभद्रयासह अर्जुनस्य खाण्डवप्रस्थं गन्तुं यत्नः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-243-1x |
वृष्म्यन्धकपुरात्तस्मादपयातुं धनञ्जयः। विनिश्चित्य तया सार्धं सुभद्रामिदमब्रवीत्।। | 1-243-1a 1-243-1b |
द्विजानां गुणमुख्यानां यथार्हं प्रतिपादय। भोज्यैर्भक्ष्यैश्च कामैश्च स्वपुरीं प्रतियास्यताम्।। | 1-243-2a 1-243-2b |
आत्मनश्च समुद्दिश्य महाव्रतसमापनम्। गच्छ भद्रे स्वयं तूर्णं महाराजनिवेशनम्।। | 1-243-3a 1-243-3b |
तेजोबलजवोपेतैः शुक्लैर्हयवरोत्तमैः। वाजिभिः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः।। | 1-243-4a 1-243-4b |
युक्तं रथवरं तूर्णमिहानय सुसत्कृतम्। व्रतार्थमिति भाषित्वा सखीभिः सुभगे सह।। | 1-243-5a 1-243-5b |
क्षिप्रमादाय पर्येहि सह सर्वायुधेन च। अनुकर्षान्तपताकाश्च तूणीरांश्च धनूंषि च।। | 1-243-6a 1-243-6b |
सर्वान्रथवरे स्थाप्य सोत्सेधाश्च महागदाः।। | 1-243-7a |
वैशंपायन उवाच। | 1-243-8x |
अर्जुनेनैवमुक्ता सा सुभद्रा भद्रभाषिणी। जगाम नृपतेर्वेश्म सखीभिः सहिता तदा।। | 1-243-8a 1-243-8b |
व्रतार्थमिति तत्रस्थान्रक्षिणो वाक्यमब्रवीत्। रथेनानेन यास्यामि महाव्रतसमापनम्।। | 1-243-9a 1-243-9b |
शैब्यसुग्रीवयुक्तेन सायुधेनैव शार्ङ्गिणः। रथेन रमणीयेन प्रयास्यामि व्रतार्थिनी।। | 1-243-10a 1-243-10b |
सुभध्रयैवमुक्ते तु जनाः प्राञ्जलयोऽभवन्। योजयित्वा रथवरं कल्याणैरभिभाष्य ताम्।। | 1-243-11a 1-243-11b |
यथोक्तं सर्वमारोप्य आयुधानि च भामिनी। क्षिप्रमादाय कल्याणी सुभद्राऽर्जुनमब्रवीत्।। | 1-243-12a 1-243-12b |
रथोऽयं रथिनां श्रेष्ठ आनीतस्तव शासनात्। स त्वं याहि यथाकामं कुरून्कौरवनन्दन।। | 1-243-13a 1-243-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-243-14x |
निवेद्य तु रथं भर्तुः सुभद्रा भद्रसंमता। ब्राह्मणानां तदा हृष्टा ददौ सा विविधं वसु।। | 1-243-14a 1-243-14b |
स्नेहवन्ति च भोज्यानि प्रददावीप्सितानि च। यथाकामं यथाश्रद्धं वस्त्राणि विविधानि च।। | 1-243-15a 1-243-15b |
तर्पिता विविधैर्भोज्यैस्तान्यवाप्य वसूनि च। ब्राह्मणाः स्वगृहं जग्मुः प्रयुज्य परमाशिषः।। | 1-243-16a 1-243-16b |
सुभद्रया तु विज्ञप्तः पूर्वमेव धनञ्जयः। अभीशुग्रहणे पार्थ न मेऽस्ति सदृशो भुवि।। | 1-243-17a 1-243-17b |
तस्मात्सा पूर्वमारुह्य रश्मीञ्जग्राह माधवी। सोदरा वासुदेवस्य कृतस्वस्त्ययना हयान्।। | 1-243-18a 1-243-18b |
व्यत्ययित्वा तु तल्लिङ्गं यतिवेषं धनञ्जयः। आमुच्य कवचं वीरः समुच्छ्रितमहद्धनुः।। | 1-243-19a 1-243-19b |
आरुरोह रथश्रेष्ठं शुक्लवासा धनञ्जयः। महेन्द्रदत्तं मुकुटं तथैवाभरणानि च।। | 1-243-20a 1-243-20b |
अलङ्कृत्य तु कौन्तेयः प्रयातुमुपचक्रमे। ततः कन्यापुरे घोषस्तुमुलः समपद्यत।। | 1-243-21a 1-243-21b |
दृष्ट्वा नववरं पार्थं बाणखड्गधनुर्धरम्। अभीशुहस्तां सुश्रोणीमर्जुनेन रथे स्थिताम्।। | 1-243-22a 1-243-22b |
ऊचुः कन्यास्तदा यान्तीं वासुदेवसहोदराम्। सर्वकामसमृद्धा त्वं सुभद्रे भद्रभाषिणि।। | 1-243-23a 1-243-23b |
वासुदेवप्रियं लब्ध्वा भर्तारं वीरमर्जुनम्। सर्वसीमन्तिनीनां त्वां श्रेष्ठां कृष्णसहोदरीम्।। | 1-243-24a 1-243-24b |
मन्यामहे महाभागे सुभद्रे भद्रभाषिणि। यस्मात्सर्वमनुष्याणां श्रेष्ठो भर्ता तवार्जुनः।। | 1-243-25a 1-243-25b |
उपपन्नस्त्वया वीरः सर्वलोकमहारथः। हे प्रयाहि गृहान्भद्रे सुहृद्भिः संगमोऽस्तु ते।। | 1-243-26a 1-243-26b |
वैशंपायन उवाच। | 1-243-27x |
एवमुक्ता प्रहृष्टाभिः सखीभिः प्रतिनन्दिता। भद्रा भद्रजवोपेतानश्वान्पुनरचोदयत्।। | 1-243-27a 1-243-27b |
पार्श्वे चामरहस्ता सा सखी तस्याङ्गनाऽभवत्। ततः कन्यापुरद्वारात्सघोषादभिनिःसृतम्।। | 1-243-28a 1-243-28b |
ददृशुस्तं रथश्रेष्ठं जना जीमूतनिस्वनम्। सुभद्रासङ्गृहीतस्य रथस्य महतः स्वनम्।। | 1-243-29a 1-243-29b |
मेघस्वनमिवाकाशे शुश्रुवुः पुरवासिनः। सुभद्रया तु संपन्ने तिष्ठन्रथवरेऽर्जुनः।। | 1-243-30a 1-243-30b |
प्रबभौ च तयोपेतः कैलास इव गङ्गया। पार्थः सुभद्रासहितो विरराज महारथः।। | 1-243-31a 1-243-31b |
विराजते यथा शक्रो राजञ्शच्या समन्वितः। सुभद्रां प्रेक्ष्य पार्थेन ह्रियमाणां यशस्विनीम्।। | 1-243-32a 1-243-32b |
चक्रुः किलकिलाशब्दानासाद्य बहवो जनाः। दाशार्हाणां कुलस्य श्रीः सुभद्रा मद्रभाषिणी।। | 1-243-33a 1-243-33b |
अभिकामा सकामेन पार्थेन सह गच्छति। अथापरे तु संक्रुद्धा गृह्णीत घ्नत माचिरम्।। | 1-243-34a 1-243-34b |
इति संवार्य शस्त्राणि ववर्षुरभितो दिशम्। इति संभाषमाणानां स नादः सुमहानभूत्।। | 1-243-35a 1-243-35b |
स तेन जनघोषेण वीरो गज इवार्दितः। ववर्ष शरवर्षाणि न तु कंचन रोषयत्।। | 1-243-36a 1-243-36b |
मुमोच निशितान्बाणान्दीप्यमानान्स्वतेजसा। प्रासादवरसङ्घेषु हर्म्येषु भवनेषु च।। | 1-243-37a 1-243-37b |
क्षोभयित्वा पुरश्रेष्ठं गरुत्मानिव सागरम्। प्रेक्षन्रैवकतद्वारं निर्ययौ भरतर्षभः।। | 1-243-38a 1-243-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि सुभद्राहरणपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 243 ।। |
आदिपर्व-242 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-244 |