महाभारतम्-01-आदिपर्व-258
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जरितार्यादीनां चतुर्णां शार्ङ्गकाणां परस्परं संवादः।। 1 ।।
स्तुत्या प्रसन्नेनाग्निना तेभ्योऽभयदानम्।। 2 ।।
शार्ङ्गकाणां प्रार्थनया अग्निना मार्जाराणां दाहः।। 3 ।।
जरितारिरुवाच। | 1-258-1x |
पुरतः कृच्छ्रकालस्य धीमाञ्जागर्ति पुरुषः। स कृच्छ्रकालं संप्राप्य व्यथां नैवैति कर्हिचित्।। | 1-258-1a 1-258-1b |
यस्तु कृच्छ्रमनुप्राप्तं विचेता नावबुध्यते। सकृच्छ्रकाले व्यथितो न श्रेयो विन्दते महत्।। | 1-258-2a 1-258-2b |
सारिसृक्व उवाच। | 1-258-3x |
धीरस्त्वमसि मेधावी प्राणकृच्छ्रमिदं च नः। प्राज्ञः शूरो बहूनां हि भवत्येको न संशयः।। | 1-258-3a 1-258-3b |
स्तम्बमित्र उवाच। | 1-258-4x |
ज्येष्ठस्तातो भवति वै ज्येष्ठो मुञ्चति कृच्छ्रतः। ज्येष्ठश्चेन्न प्रजानाति नीयान्किं करिष्यति।। | 1-258-4a 1-258-4b |
द्रोण उवाच। | 1-258-5x |
हिरण्यरेतास्त्वरितो जलन्नायाति नः क्षयम्। सप्तजिह्वाननः क्रूरो लिहानो विसर्पति।। | 1-258-5a 1-258-5b |
वैशंपायन उवाच। | 1-258-6x |
एवं संभाष्य तेऽन्योन्यं मन्दपालस्य पुत्रकाः। तुष्टुवुः प्रयता भूत्वा यथाऽग्निं शृणु पार्थिव।। | 1-258-6a 1-258-6b |
जरितारिरुवाच। | 1-258-7x |
आत्माऽसि वायोर्ज्वलन शरीरमसि वीरुधाम्। योनिरापश्च ते शुक्रं योनिस्त्वमसि चाम्भसः।। | 1-258-7a 1-258-7b |
ऊर्ध्वं चाधश्च सर्पन्ति पृष्ठतः पार्श्वतस्तथा। अर्चिषस्ते महावीर्य रश्यमः सवितुर्यथा।। | 1-258-8a 1-258-8b |
सारिसृक्क उवाच। | 1-258-9x |
माता प्रणष्टा पितरं न विद्मः पक्षा जाता नै नो धूमकेतो। न नस्त्राता विद्यते वै त्वदन्य- स्तस्मादस्मांस्त्राहि बालांस्त्वमग्ने।। | 1-258-9a 1-258-9b 1-258-9c 1-258-9d |
यदग्ने ते शिवं रूपं ये च ते सप्त हेतयः। तेन नः परिपाहि त्वमार्तान्नः शरणैषिणः।। | 1-258-10a 1-258-10b |
त्वमेवैकस्तपसे जप्तवेदो नान्यस्तप्ता विद्यते गोषु देव। ऋषीनस्मान्बालकान्पालयस्व परेणास्मान्प्रेहि वै हव्यवाह।। | 1-258-11a 1-258-11b 1-258-11c 1-258-11d |
स्तम्बमित्र उवाच। | 1-258-12x |
सर्वमग्ने त्वमेवैकस्त्वयि सर्वमिदं जगत्। त्वं धारयसि भूतानि भुवनं त्वं बिभर्षि च।। | 1-258-12a 1-258-12b |
त्वमग्निर्हव्यवाहस्त्वं त्वमेव परमं हविः। मनीषिणस्त्वां जानन्ति बहुधा चैकधापि च।। | 1-258-13a 1-258-13b |
सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान्हव्यवाह काले प्राप्ते पचसि पुनः समिद्धः। त्वं सर्वस्य भुवनस्य प्रसूति- स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा।। | 1-258-14a 1-258-14b 1-258-14c 1-258-14d |
द्रोण उवाच। | 1-258-15x |
त्वमन्नं प्राणिभिर्भुक्तमन्तर्भूतो जगत्पते। नित्यप्रवृद्धः पचसि त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 1-258-15a 1-258-15b |
सूर्यो भूत्वा रश्मिभिर्जातवेदो भूमेरम्भो भूमिजातान्रसांश्च। विश्वानादाय पुनरुत्सृज्य काले दृष्ट्वा वृष्ट्या भावयसीह शुक्र।। | 1-258-16a 1-258-16b 1-258-16c 1-258-16d |
त्वत्त एताः पुनः शुक्र वीरुधो हरितच्छदाः। जायन्ते पुष्करिण्यश्च सुभद्रश्च महोदधिः।। | 1-258-17a 1-258-17b |
इदं वै सद्म तिग्मांशो वरुणस्य परायणम्। शिवस्त्राता भवास्माकं माऽस्मानद्य विनाशय।। | 1-258-18a 1-258-18b |
पिङ्गाक्ष लोहितग्रीव कृष्णवर्त्मन्हुताशन। परेण प्रेहि मुञ्चास्मान्सागरस्य गृहानिव।। | 1-258-19a 1-258-19b |
वैशंपायन उवाच। | 1-258-20x |
एवमुक्तो जातवेदा द्रोणेन ब्रह्मवादिना। द्रोणमाह प्रतीतात्मा मन्दपालप्रतिज्ञया।। | 1-258-20a 1-258-20b |
अग्निरुवाच। | 1-258-21x |
ऋषिर्द्रोणस्त्वमसि वै ब्रह्मैतद्व्याहृतं ईप्सितं ते करिष्यामि न च ते | 1-258-21a 1-258-21b |
मन्दपालेन वै यूयं मम पूर्वं निवेदिताः। वर्जयेः पुत्रकान्मह्यं दहन्दावमिति स्म ह।। | 1-258-22a 1-258-22b |
तस्य तद्वचनं द्रोण त्वया यच्चेह भाषितम्। उभयं मे गरीयस्तु ब्रूहि किं करवाणि ते। भृशं प्रीतोऽस्मि भद्रं ते ब्रह्मंस्तोत्रेण सत्तम।। | 1-258-23a 1-258-23b 1-258-23c |
द्रोण उवाच। | 1-258-24x |
इमे मार्जारकाः शुक्र नित्यमुद्वेजयन्ति नः। एतान्कुरुष्व दग्धांस्त्वं हुताशन सबान्धवान्।। | 1-258-24a 1-258-24b |
वैशंपायन उवाच। | 1-258-25x |
तथा तत्कृतवानग्निरभ्यनुज्ञाय शार्ङ्गकान्। ददाह खाण्डवं दावं समिद्धो जनमेजय।। | 1-258-25a 1-258-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 258 ।। |
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