महाभारतम्-01-आदिपर्व-021
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उच्चैःश्रवसो दर्शार्थं कद्रूविनतयोर्गमनम्।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-21-1x |
ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रभातेऽभ्युदिते रवौ। कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यौ ते तपोधन।। | 1-21-1a 1-21-1b |
अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा। `स्मगरस्य परं पारं वेलावनविभूषितम्।' जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात्।। | 1-21-2a 1-21-2b 1-21-2c |
ददृशातेऽथ ते तत्र समुद्रं निधिमम्भसाम्। महान्तमुदकागाधं क्षोभ्यमाणं महास्वनम्।। | 1-21-3a 1-21-3b |
तिमिंगिलझषाकीर्णं मकरैरावृतं तथा। सत्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम्।। | 1-21-4a 1-21-4b |
भीषणैर्विकृतैरन्यैर्घोरैर्जलचरैस्तथा। उग्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम्।। | 1-21-5a 1-21-5b |
आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च। नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम्।। | 1-21-6a 1-21-6b |
पातालज्वलनावासमसुराणां च बान्धवम्। भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम्।। | 1-21-7a 1-21-7b |
शुभं दिव्यममर्त्यानाममृतस्याकरं परम्। अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम्।। | 1-21-8a 1-21-8b |
घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिःस्वनम्। गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम्।। | 1-21-9a 1-21-9b |
वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुच्छ्रितम्। वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वतः।। | 1-21-10a 1-21-10b |
चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्वृत्तोर्मिसमाकुलम्। पाञ्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम्।। | 1-21-11a 1-21-11b |
गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा। वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम्।। | 1-21-12a 1-21-12b |
ब्रह्मर्षिणा व्रतवता वर्षाणां शतमत्रिणा। अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम्।। | 1-21-13a 1-21-13b |
अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः। युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः।। | 1-21-14a 1-21-14b |
वज्रपातनसंत्रस्तमैनाकस्याभयप्रदम्। डिम्बाहवार्दितानां च असुराणां परायणम्।। | 1-21-15a 1-21-15b |
बडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शिवम्। अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम्।। | 1-21-16a 1-21-16b |
महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः। अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम्। आपूर्यमाणमत्यर्थं नृत्यमानमिवोर्मिभिः।। | 1-21-17a 1-21-17b 1-21-17c |
गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः। विस्तीर्णं ददृशतुरम्बरप्रकाशं तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम्।। | 1-21-18a 1-21-18b 1-21-18c 1-21-18d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकविंशतितमोऽध्यायः।। 21 ।। |
1-21-3 क्षोभ्यमाणं मकरादिभिः।। 1-21-7 पातालज्वलनो बडवाग्निः।। 1-21-12 गां पृथ्वीं विन्दता लम्बमानेन।। 1-21-15 डिम्बो भयवतामाक्रन्दस्तद्वति आहवे।। 1-21-18 ते कद्रूविनते।। एकविंशतितमोऽध्यायः।। 21 ।।
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