महाभारतम्-01-आदिपर्व-046
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जरत्कारोः स्वपितृसंवादानन्तरं दारान्वेषणम्।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-46-1x |
एतच्छ्रुत्वा जरत्कारुर्भृशं शोकपरायणः। उवाच तान्पितॄन्दुःखाद्बाष्पसंदिग्धया गिरा।। | 1-46-1a 1-46-1b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-46-2x |
मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः। तद्ब्रूत यन्मया कार्यं भवतां प्रियकाम्यया।। | 1-46-2a 1-46-2b |
अहमेव जरत्कारुः किल्बिषी भवतां सुतः। ते दण्डं धारयत मे दुष्कृतेरकृतात्मनः।। | 1-46-3a 1-46-3b |
पितर ऊचुः। | 1-46-4x |
पुत्र दिष्ट्याऽसि संप्राप्त इमं देशं यदृच्छया। किमर्थं च त्वया ब्रह्मन्न कृतो दारसङ्ग्रहः।। | 1-46-4a 1-46-4b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-46-5x |
ममायं पितरो नित्यं हृद्यर्थः परिवर्तते। ऊर्ध्वरेताः शरीरं वै प्रापयेयममुत्र वै।। | 1-46-5a 1-46-5b |
न दारान्वै करिष्येऽहमिति मे भावितं मनः। एवं दृष्ट्वा तु भवतः शकुन्तानिव लम्बतः।। | 1-46-6a 1-46-6b |
मया निवर्तिता बुद्धिर्ब्रह्मचर्यात्पितामहाः। करिष्ये वः प्रियं कामं निवेक्ष्येऽहमसंशयम्।। | 1-46-7a 1-46-7b |
सनाम्नीं यद्यहं कन्यामुपलप्स्ये कदाचन। भविष्यति च या काचिद्भैक्ष्यवत्स्वयमुद्यता।। | 1-46-8a 1-46-8b |
प्रतिग्रहीता तामस्मि न भरेयं च यामहम्। एवंविधमहं कुर्यां निवेशं प्राप्नुयां यदि। अन्यथा न करिष्येऽहं सत्यमेतत्पितामहाः।। | 1-46-9a 1-46-9b 1-46-9c |
तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै। शाश्वताश्चाव्ययाश्चैव तिष्ठन्तु पितरो मम।। | 1-46-10a 1-46-10b |
सौतिरुवाच। | 1-46-11x |
एवमुक्त्वा तु स पितॄंश्चचार पृथिवी मुनिः। न च स्म लभते भार्यां वृद्धोऽयमिति शानक।। | 1-46-11a 1-46-11b |
यदा निर्वेदमापन्नः पितृभिश्चोदिस्तथा। तदाऽरण्यं स गत्वोच्चैश्चुक्रोश भृशदुःखितः।। | 1-46-12a 1-46-12b |
सत्वरण्यगतः प्राज्ञः पितॄणा हितकाम्यया। उवाच कन्यां याचामि तिस्रो वाचः शनैरिमाः।। | 1-46-13a 1-46-13b |
यानि भूतानि सन्तीह स्थावराणि चराणि च। अन्तर्हितानि वा यानि तानि शृण्वन्तु मे वचः।। | 1-46-14a 1-46-14b |
उग्रे तपसि वर्तन्तं पितरश्चोदयन्ति माम्। निविशस्वेति दुःखार्ताः सन्तानस्य चिकीर्षया।। | 1-46-15a 1-46-15b |
निवेशायाखिलां भूमिं कन्याभैक्ष्यं चरामि भोः। दरिद्रो दुःखशीलश्च पितृभिः सन्नियोजितः।। | 1-46-16a 1-46-16b |
यस्य कन्याऽस्ति भूतस्य ये मयेह प्रकीर्तिताः। ते मे कन्यां प्रयच्छन्तु चरतः सर्वतोदिशम्।। | 1-46-17a 1-46-17b |
मम कन्या सनाम्नी या भैक्ष्यवच्चोदिता भवेत्। भरेयं चैव यां नाहं तां मे कन्यां प्रयच्छत।। | 1-46-18a 1-46-18b |
ततस्ते पन्नगा ये वै जरत्कारौ समाहिताः। तामादाय प्रवृत्तिं ते वासुकेः प्रत्यवेदयन्।। | 1-46-19a 1-46-19b |
तेषां श्रुत्वा स नागेन्द्रस्तां कन्यां समलङ्कृताम्। प्रगृह्यारण्यमगमत्समीपं तस्य पन्नगः।। | 1-46-20a 1-46-20b |
तत्र तां भैक्ष्यवत्कन्यां प्रादात्तस्मै महात्मने। नागेन्द्रो वासुकिर्ब्रह्मन्न स तां प्रत्यगृह्णत।। | 1-46-21a 1-46-21b |
असनामेति वै मत्वा भरणे चाविचारिते। मोक्षभावे स्थितश्चापि मन्दीभूतः परिग्रहे।। | 1-46-22a 1-46-22b |
ततो नाम स कन्यायाः पप्रच्छ भृगुनन्दन। वासुकिं भरणं चास्या न कुर्यामित्युवाच ह।। | 1-46-23a 1-46-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46 ।। |
1-46-7 निवेक्ष्ये निवेशं विवाहं करिष्ये।। 1-46-9 न भरेयं धारणपोषणे न कुर्याम्।। 1-46-19 जरत्कारौ जरत्कारोरन्वेषणे। समाहिताः यत्ताः।। षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46 ।।
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