महाभारतम्-01-आदिपर्व-152
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युधिष्ठिरः साम्राज्येऽभिषेक्तव्य इति पौरवार्तां श्रुत्वा व्यथितस्य दुर्योधनस्य पित्रा संवादः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-152-1x |
प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनञ्जयम्। दुर्योधनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मनाः।। | 1-152-1a 1-152-1b |
ततो वैकर्तनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। अनेकारभ्युपायैस्ते जिघांसन्ति स्म पाण्डवान्।। | 1-152-2a 1-152-2b |
पाण्डवा अपि तत्सर्वं प्रतिचक्रुर्यथाबलम्। उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः।। | 1-152-3a 1-152-3b |
गुणैः समुदितान्दृष्ट्वा पौराः पाण्डुसुतांस्तदा। कथयाञ्चक्रिरे तेषां गुणान्संसत्सु भारत।। | 1-152-4a 1-152-4b |
राज्यप्राप्तिं च संप्राप्तं ज्येष्ठं पाण्डुसुतं तदा। कथयन्ति स्म संभूय चत्वरेषु सभासु च।। | 1-152-5a 1-152-5b |
प्रज्ञाश्चक्षुरचक्षुष्ट्वाद्धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। राज्यं न प्राप्तवान्पूर्वं स कथं नृपतिर्भवेत्।। | 1-152-6a 1-152-6b |
तथा शान्तनवो भीष्मः सत्यसन्धो महाव्रतः। प्रत्याख्याय पुरा राज्यं न स जातु ग्रहीष्यति।। | 1-152-7a 1-152-7b |
ते वयं पाण्डवज्येष्ठं तरुणं वृद्धशीलिनम्। अभिषिञ्चाम साध्वद्य सत्यकारुण्यवेदिनम्।। | 1-152-8a 1-152-8b |
स हि भीष्मं शान्तनवं धृतराष्ट्रं च धर्मवित्। सपुत्रं विविधैर्भोगैर्योजयिष्यति पूजयन्।। | 1-152-9a 1-152-9b |
वैशंपायन उवाच। | 1-152-10x |
तेषां दुर्योधनः श्रुत्वा तानि वाक्यानि जल्पताम्। युधिष्ठिरानुरक्तानां पर्यतप्यत दुर्मतिः।। | 1-152-10a 1-152-10b |
स तप्यमानो दुष्टात्मा तेषां वाचो न चक्षमे। ईर्ष्यया चापि संतप्तो धृतराष्ट्रमुपागमत्।। | 1-152-11a 1-152-11b |
ततो विरहितं दृष्ट्वा पितरं प्रतिपूज्य सः। पौरानुरागसंतप्तः पश्चादिदमभाषत।। | 1-152-12a 1-152-12b |
श्रुता मे जल्पतां तात पौराणामशिवा गिरः। त्वामनादृत्य भीष्मं च पतिमिच्छन्ति पाण्डवम्।। | 1-152-13a 1-152-13b |
मतमेतच्च भीष्मस्य न स राज्यं बुभुक्षति। अस्माकं तु परां पीडां चिकीर्षन्ति पुरे जनाः।। | 1-152-14a 1-152-14b |
पितृतः प्राप्तवान्राज्यं पाण्डुरात्मगुणैः पुरा। त्वमन्धगुणसंयोगात्प्राप्तं राज्यं न लब्धवान्।। | 1-152-15a 1-152-15b |
स एष पाण्डोर्दायाद्यं यदि प्राप्नोति पाण्डवः। तस्य पुत्रो ध्रुवं प्राप्तस्तस्य तस्यापि चापरः।। | 1-152-16a 1-152-16b |
ते वयं राजवंशेन हीनाः सह सुतैरपि। अवज्ञाता भविष्यामो लोकस्य जगतीपते।। | 1-152-17a 1-152-17b |
सततं निरयं प्राप्ताः परपिण्डोपजीविनः। न भवेम यथा राजंस्तथा नीतिर्विधीयताम्।। | 1-152-18a 1-152-18b |
यदि त्वं हि पुरा राजन्निदं राज्यमवाप्तवान्। ध्रुवं प्राप्स्याम च वयं राज्यमप्यवशे जने।। | 1-152-19a 1-152-19b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-152-20x |
धृतराष्ट्रस्तु पुत्रस्य श्रुत्वा वचनमीदृशम्। मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत्।। | 1-152-20a 1-152-20b |
धर्मनित्यस्तथा पाण्डुः सुप्रीतो मयि कौरवः। सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मदीयेषु विशेषतः।। | 1-152-21a 1-152-21b |
नात्र किंचन जानाति भोजनादि चिकीर्षितम्। निवेदयति तत्सर्वं मयि धर्मभृतां वरः।। | 1-152-22a 1-152-22b |
तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरः सदा। गुणावाँल्लोकविख्यातो नगरे च प्रतिष्ठितः।। | 1-152-23a 1-152-23b |
स कथं शक्यतेऽस्माभिरपाक्रष्टुं नरर्षभः। राज्यमेष हि नः प्राप्तः ससहयो विशेषतः।। | 1-152-24a 1-152-24b |
भृता हि पाण्डुनाऽमात्या बलं च सततं मतम्। धृताः पुत्राश्च पौत्राश्च तेषामपि विशेषतः।। | 1-152-25a 1-152-25b |
ते तथा संस्तुतास्तात विषये पाण्डुना नराः। कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्युः सबान्धवान्।। | 1-152-26a 1-152-26b |
नैते विषयमिच्छेयुर्धर्मत्यागे विशेषतः। ते वयं कौरवेन्द्राणामेतेषां च महात्मनाम्।। | 1-152-27a 1-152-27b |
कथं न वाच्यतां तात गच्छेम जगतस्तथा।। | 1-152-28a |
दुर्योधन उवाच। | 1-152-29x |
मध्यस्थः सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थितः। यतः पुतस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशयः।। | 1-152-29a 1-152-29b |
कृपः शारद्वतश्चैव यत एव वयं ततः। बागिनेयं ततो द्रौणिं न त्यक्ष्यति कथंचन।। | 1-152-30a 1-152-30b |
क्षत्ता तु बन्धुरस्माकं प्रच्छन्नस्तु ततः परैः। न चैकः स समर्थोऽस्मान्पाण्डवार्थे प्रबाधितुम्।। | 1-152-31a 1-152-31b |
सुविस्रब्धान्पाण्डुसुतान्सह मात्रा विवासय। वारणावतमद्यैव नात्र दोषो भविष्यति।। | 1-152-32a 1-152-32b |
विनिद्राकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्। शोपकपावकमुद्धूतं कर्मणानेन नाशय।।' | 1-152-33a 1-152-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
संभवपर्वणि द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 152 ।।
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