महाभारतम्-01-आदिपर्व-160
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रात्रौ कुन्त्या अन्नादिना ब्राह्मणपूजनम्।। 1 ।।
भीमेन जतुगृहस्यादीपनम्।। 2 ।।
तस्य कुन्तीं भ्रातॄंश्चादाय सुरङ्गाद्वारा बहिंर्निर्गमनम्।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-160-1x |
तांस्तु दृष्ट्वा सुमनसः परिसंवत्सरोषितान्। विश्वस्तानिव संलक्ष्य हर्षं चक्रे पुरोचनः।। | 1-160-1a 1-160-1b |
`स तु संचिन्तयामास प्रहृष्टेनान्तरात्मना। प्राप्तकालमिदं मन्ये पाण्डवानां विनाशने।। | 1-160-2a 1-160-2b |
तमस्यान्तर्गतं भावं विज्ञाय कुरुपुङ्गवः। चिन्तयामास मतिमान्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।।' | 1-160-3a 1-160-3b |
पुरोचने तथा हृष्टे कौन्तेयोऽथ युधिष्ठिरः। भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमौ प्रोवाच धर्मवित्।। | 1-160-4a 1-160-4b |
अस्मानयं सुविश्वस्तान्वेत्ति पापः पुरोचनः। वञ्चितोऽयं नृशंसात्मा कालं मन्ये पलायने।। | 1-160-5a 1-160-5b |
आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम्। षट्प्राणिनो निधायेह द्रवामोऽनभिलक्षिताः।। | 1-160-6a 1-160-6b |
वैशंपायन उवाच। | 1-160-7x |
अथ दानापदेशेन कुन्ती ब्राह्मणभोजनम्। चक्रे निशि महाराज आजग्मुस्तत्र योषितः।। | 1-160-7a 1-160-7b |
ता विहृत्य यथाकामं भुक्त्वा पीत्वा च भारत। जग्मुर्निशिं गृहानेव समनुज्ञाप्य माधवीम्।। | 1-160-8a 1-160-8b |
`पुरोचनप्रणिहिता पृथां या सेवते सदा। निषादी दुष्टहृदया नित्यमन्तरचारिणी।। | 1-160-9a 1-160-9b |
निषादी पञ्चपुत्रा सा तस्मिन्भोज्ये यदृच्छया। पुराभ्यासकृतस्नेहा सखी कुन्त्याः सुतैः सह।। | 1-160-10a 1-160-10b |
आनीय मधुमूलानि फलानि विविधानि च। अन्नार्थिनी समभ्यागात्सपुत्रा कालचोदिता। सुपापा पञ्चपुत्रा च सा पृथायाः सखी मता।।' | 1-160-11a 1-160-11b 1-160-11c |
सा पीत्वा मदिरां मत्ता सपुत्रा मदविह्वला। सह सर्वैः सुतै राजंस्तस्मिन्नेव निवेशने।। | 1-160-12a 1-160-12b |
सुष्वाप विगतज्ञाना मृतकल्पा नराधिप। अथ प्रवाते तुमुले निशि सुप्ते जने तदा।। | 1-160-13a 1-160-13b |
तदुपादीपयद्भीमः शेते यत्र पुरोचनः। ततो जतुगृहद्वारं दीपयामास पाण्डवः।। | 1-160-14a 1-160-14b |
समन्ततो ददौ पश्चादग्निं तत्र निवेशने। `पूर्वमेव गृहं शोध्य भीमसेनो महामतिः।। | 1-160-15a 1-160-15b |
पाण्डवैः सहितां कुन्तीं प्रावेशयत तद्बिलम्। दत्त्वाग्निं सहसा भीमो गृहे तत्परितः सुधीः।। | 1-160-16a 1-160-16b |
गृहस्थं द्रविणं गृह्य निर्जगाम बिलेन सः।' ज्ञात्वा तु तद्गृहं सर्वमादीप्तं पाण्डुनन्दनाः।। | 1-160-17a 1-160-17b |
सुरङ्गां विविशुस्तूर्णं मात्रा सार्धमरिन्दमाः। ततः प्रतापः सुमहाञ्छब्दश्चैव विभावसोः।। | 1-160-18a 1-160-18b |
प्रादुरासीत्तदा तेन बुबुधे स जनव्रजः। तदवेक्ष्य गृहं दीप्तमाहुः पौराः कृशाननाः।। | 1-160-19a 1-160-19b |
दुर्योधनप्रयुक्तेन पापेनाकृतबुद्धिना। गृहमात्मविनाशाय कारितं दाहितं च तत्।। | 1-160-20a 1-160-20b |
अहो धिग्धृतराष्ट्रस्य बुद्धिर्नातिसमञ्जसा। यः शुचीन्पाण्डुदायादान्दाहयामास शत्रुवत्।। | 1-160-21a 1-160-21b |
दिष्ट्या त्विदानीं पापात्मादग्ध्वा दग्धः पुरोचनः। अनागसः सुविश्वस्तान्यो ददाह नरोत्तमान्।। | 1-160-22a 1-160-22b |
वैशंपायन उवाच। | 1-160-23x |
एवं ते विलपन्ति स्म वारणावतका जनाः। परिवार्य गृहं तच्च तस्थू रात्रौ समन्ततः।। | 1-160-23a 1-160-23b |
पाण्डवाश्चापि ते सर्वे सह मात्रा सुदुःखिताः। बिलेन तेन निर्गत्य जग्मुर्द्रुतमलक्षिताः।। | 1-160-24a 1-160-24b |
तेन निद्रोपरोधेन साध्वसेन च पाण्डवाः। न शेकुः सहसा गन्तुं सह मात्रा परन्तपाः।। | 1-160-25a 1-160-25b |
भीमसेनस्तु राजेन्द्र भीमवेगपराक्रमः। जगाम भ्रातॄनादाय सर्वान्मातरमेव च।। | 1-160-26a 1-160-26b |
स्कन्धमारोप्य जननीं यमावङ्केन वीर्यवान्। पार्थौ गृहीत्वा पाणिभ्यां भ्रातरौ सुमहाबलः।। | 1-160-27a 1-160-27b |
उरसा पादपान्भञ्जन्महीं पद्भ्यां विदारयन्। स जगामाशु तेजस्वी वातरंहा वृकोदरः।। | 1-160-28a 1-160-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 160 ।। |
1-160-6 जातुषागारमिति ङ. पाठः।। षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 160 ।।
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