महाभारतम्-01-आदिपर्व-098
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शकुन्तलायाः स्वपाणिग्रहणमनङ्कीकुर्वता दुष्यन्तेन सह विवादः।। १ ।।
एवमुक्ता वरारोहा व्रीडितेव मनस्विनी। विसंज्ञेव च दुःखेन तस्थौ स्थूणेव निश्चला।। | 1-98-1a 1-98-1b |
संरम्भामर्षताम्राक्षी स्फुरमाणोष्ठसंपुटा। कटाक्षैर्निर्दहन्तीव तिर्यग्राजानमैक्षत।। | 1-98-2a 1-98-2b |
आकारं गूहमाना च मन्युना च समीरितम्। तपसा संभृतं तेजो धारयामास वै तदा।। | 1-98-3a 1-98-3b |
सा मुहूर्तमिव ध्यात्वा दुःखामर्षसमन्विता। भर्तारमभिसंप्रेक्ष्य यथान्यायं वचोऽब्रवीत्।। | 1-98-4a 1-98-4b |
जानन्नपि महाराज कस्मादेवं प्रभाषसे। न जानामीति निःशङ्कं यथान्यः प्राकृतस्तथा।। | 1-98-5a 1-98-5b |
तस्य ते हृदयं वेद सत्यस्यैवानृतस्य च। साक्षिणं बत कल्याणमात्मानमवमन्यसे।। | 1-98-6a 1-98-6b |
योऽन्यथा सन्तमात्मानन्यथा प्रतिपद्यते। किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा।। | 1-98-7a 1-98-7b |
एकोऽहमस्मीति च मन्यसे त्वं न हृच्छयं वेत्सि मुनिं पुराणम्। यो वेदिता कर्मणः पापकस्य तस्यान्तिके त्वं वृजिनं करोषि।। | 1-98-8a 1-98-8b 1-98-8c 1-98-8d |
`धर्म एव हि साधूनां सर्वेषां हितकारणम्। नित्यं मिथ्याविहीनानां न च दुःखावहो भवेत्'।। | 1-98-9a 1-98-9b |
मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद्वेत्ति मामिति। विदन्ति चैनं देवाश्च यश्चैवान्तरपूरुषः।। | 1-98-10a 1-98-10b |
आदित्यचन्द्रावनिलोऽनलश्च द्यौर्भूमिरापो हृदयं यमश्च। अहश्च रात्रिश्च उभे च सन्ध्ये धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम्।। | 1-98-11a 1-98-11b 1-98-11c 1-98-11d |
यमो वैवस्वतस्तस्य निर्यातयति दुष्कृतम्। हृदि स्थितः कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञो यस्य तुष्यति।। | 1-98-12a 1-98-12b |
न तुष्यति च यस्यैष पुरुषस्य दुरात्मनः। तं यमः पापकर्माणं निर्भर्त्सयति दुष्कृतम्।। | 1-98-13a 1-98-13b |
योऽवमत्यात्मनात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते। न तस्य देवाः श्रेयांसो यस्यात्मापि न कारणम्।। | 1-98-14a 1-98-14b |
स्वयं प्राप्तेति मामेवं मावमंस्था पतिव्रताम्। अर्चार्हां नार्चयसि मां स्वयं भार्यामुपस्थिताम्।। | 1-98-15a 1-98-15b |
किमर्थं मां प्राकृतवदुपप्रेक्षसि संसदि। नखल्वहमिदं शून्ये रौमि किं न शृणोषि मे।। | 1-98-16a 1-98-16b |
यदि मे याचमानाया वचनं न करिष्यसि। दुष्यन्त शतधा त्वद्य मूर्धा ते विफलिष्यति।। | 1-98-17a 1-98-17b |
जायां पतिः संप्रविश्य यदस्यां जायते पुनः। जायायास्तद्धि जायात्वं पौराणाः कवयो विदुः।। | 1-98-18a 1-98-18b |
यदागमवतः पुंसस्तदपत्यं प्रजायते। तत्तारयति संतत्या पूर्वप्रेतान्पितामहान्।। | 1-98-19a 1-98-19b |
पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते सुतः। तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः पूर्वमेव स्वयंभुवा।। | 1-98-20a 1-98-20b |
`पुत्रेण लोकाञ्जयन्ति पौत्रेणानन्त्यमश्नुते। अथ पौत्रस्य पुत्रेण मोदन्ते प्रपितामहाः।।' | 1-98-21a 1-98-21b |
सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती। सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।। | 1-98-22a 1-98-22b |
अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा। भार्या मूलं त्रिवर्गस्य यः सभार्यः स बन्धुमान्।। | 1-98-23a 1-98-23b |
भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः। भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियावृताः।। | 1-98-24a 1-98-24b |
सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः। पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः।। | 1-98-25a 1-98-25b |
कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्याध्वनि कस्य वै। यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद्दाराः परा गतिः। | 1-98-26a 1-98-26b |
संसरन्तमभिप्रेतं विषमेष्वेकपातिनम्। भार्यैवान्वेति भर्तारं सततं या पतिव्रता।। | 1-98-27a 1-98-27b |
प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते। पूर्वप्रेतं तु भर्तारं पश्चात्साप्यनुगच्छति।। | 1-98-28a 1-98-28b |
एतस्मात्कारणाद्राजन्पाणिग्रहणमिष्यते। यदाप्नोति पतिर्भार्यामिह लोके परत्र च।। | 1-98-29a 1-98-29b |
`पोषणार्थं शरीरस्य पाथेयं स्वर्गतस्य वै।' आत्माऽऽत्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः।। | 1-98-30a 1-98-30b |
तस्माद्भार्यां पतिः पश्येन्मातृवत्पुत्रमातरम्। `अन्तरात्मैव सर्वस्य पुत्रो नामोच्यते सदा।। | 1-98-31a 1-98-31b |
गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च। पितॄणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च।। | 1-98-32a 1-98-32b |
तेषां शीलगुणाचारास्तत्संपर्काच्छुभाशुभात्।' भार्यायां जनितं पुत्रमादर्शे स्वमिवाननम्।। | 1-98-33a 1-98-33b |
जनिता मोदते प्रेक्ष्य स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत्। `पतिव्रतारूपधराः परबीजस्य संग्रहात्।। | 1-98-34a 1-98-34b |
कुलं विनाश्य भर्तॄणां नरकं यान्ति दारुणम्। परेण जनिताः पुत्राः स्वभार्यायां यथेष्टतः।। | 1-98-35a 1-98-35b |
मम पुत्रा इति मतास्ते पुत्रा अपि शत्रवः। द्विषन्ति प्रतिकुर्वन्ति न ते वचनंकारिणः।। | 1-98-36a 1-98-36b |
द्वेष्टि तांश्च पिता चापि स्वबीजे न तथा नृप। न द्वेष्टि पितरं पुत्रो जनितारमथापि वा।। | 1-98-37a 1-98-37b |
न द्वेष्टि जनिता पुत्रं तस्मादात्मा सुतो भवेत्।' दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिस्तुमुलैर्जनः।। | 1-98-38a 1-98-38b |
ह्लादन्ते स्वेषु दारेषु घर्मार्ताः सलिलेष्विव। `विप्रवासकृशा दीना नरा मलिनवाससः।। | 1-98-39a 1-98-39b |
तेऽपि स्वदारांस्तुष्यन्ति दरिद्रा धनलाभवत्।' अप्रियोक्तोपि दाराणां न ब्रूयादप्रियं बुधः।। | 1-98-40a 1-98-40b |
रतिं प्रीतिं च धर्मं च तदायत्तमवेक्ष्य च। `आत्मनोऽर्धमिति श्रौतं सा रक्षति धनं प्रजाः।। | 1-98-41a 1-98-41b |
शरीरं लोकयात्रां वै धर्मं स्वर्गमृषीन्पितॄन्।' आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्या रामाः सनातनाः।। | 1-98-42a 1-98-42b |
ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजा-। `देवानामपि का शक्तिः कर्तुं संभवमात्मनः।। | 1-98-43a 1-98-43b |
पण्डितस्यापि लोकेषु स्त्रीषु सृष्टिः प्रतिष्ठिता। ऋषिभ्यो ह्यृषयः केचिच्चण्डालीष्वपि जज्ञिरे'।। | 1-98-44a 1-98-44b |
परिसृत्य यथा सूनुर्धरणीरेणुकुण्ठितः। पितुरालिङ्गतेऽङ्गानि किमस्त्यभ्यधिकं ततः।। | 1-98-45a 1-98-45b |
स त्वं सूनुमनुप्राप्तं साभिलाषं मनस्विनम्। प्रेक्षमाणं कटाक्षेण किमर्थमवमन्यसे।। | 1-98-46a 1-98-46b |
अण्डानि बिभ्रति स्वानि न त्यजन्ति पिपीलिकाः। किं पुनस्त्वं न मन्येथाः सर्वथा पुत्रमीदृशम्।। | 1-98-47a 1-98-47b |
न भरेथाः कथं नु त्वं मयि जातं स्वमात्मजम्। `ममाण्डानीति वर्ध्ते कोकिलाण्डानि वायसाः।। | 1-98-48a 1-98-48b |
किं पुनस्त्वं न मन्येथाः सर्वज्ञः पुत्रमीदृशम्। मलयाच्चन्दनं जातमतिशीतं वदन्ति वै।। | 1-98-49a 1-98-49b |
शिशोरालिङ्गनं तस्माच्चन्दनादधिकं भवेत्।' न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथाविधः।। | 1-98-50a 1-98-50b |
शिशुनालिङ्ग्यमानस्य स्पर्शः सूनोर्यथा सुखः। पुत्रस्पर्शात्प्रियतरः स्पर्शो लोके न विद्यते।। | 1-98-51a 1-98-51b |
स्पृशतु त्वां समालिङ्ग्य पुत्रोऽयं प्रियदर्शनः। ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्।। | 1-98-52a 1-98-52b |
मुरुर्गरीयसां श्रेष्ठः पुत्रः स्पर्शवतां वरः।। त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजातोऽयमरिन्दमः।। | 1-98-53a 1-98-53b |
`अद्यायं मन्नियोगात्तु तवाह्वानं प्रतीक्षते। कुमारो राजशार्दूल तव शोकप्रणाशनः।।' | 1-98-54a 1-98-54b |
आहर्ता वाजिमेधस्य शतसङ्ख्यस्य पौरवः। `राजसूयादिकानन्यान्क्रतूनमितदक्षिणान्।। | 1-98-55a 1-98-55b |
इति गौरन्तरिक्षे मां सूतके ह्यवदत्पुरा। हन्त स्वमङ्कमारोप्य स्नेहाद्ग्रामान्तरं गताः।। | 1-98-56a 1-98-56b |
मूर्ध्नि पुत्रानुपाघ्राय प्रतिनन्दन्ति मानवाः। वेदेष्वपि वदन्तीमं मन्त्रग्रामं द्विजातयः।। | 1-98-57a 1-98-57b |
जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं ध्रुवम्। अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादधिजायसे।। | 1-98-58a 1-98-58b |
आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम्। उपजिघ्रन्ति पितरो मन्त्रेणानेन मूर्धनि।। | 1-98-59a 1-98-59b |
पोषणं त्वदधीनं मे सन्तानमपि चाक्षयम्। तस्मात्त्वं जीव मे पुत्र स सुखी शरदां शतम्।। | 1-98-60a 1-98-60b |
एको भूत्वा द्विधा भूत इति वादः प्रवर्तते। त्वदङ्गेभ्यः प्रसूतोऽयं पुरुषात्पुरुषः परः।। | 1-98-61a 1-98-61b |
सरसीवामलेऽऽत्मानं द्वितीयं पश्य ते सुतम्। `सरसीवामले सोमं प्रेक्षात्मानं त्वमात्मनि'।। | 1-98-62a 1-98-62b |
यथाचाहवनीयोऽग्निर्वर्हपत्यात्प्रणीयते। एवं त्वत्तः प्रणीतोऽयं त्वमेकः सन्द्विधा कृतः।। | 1-98-63a 1-98-63b |
मृगापकृष्टेन हि वै मृगयां परिधावता। अहमासादिता राजन्कुमारी पितुराश्रमे।। | 1-98-64a 1-98-64b |
उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका। विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः।। | 1-98-65a 1-98-65b |
तासां वै मेनका नाम ब्रह्मयोनिर्वराप्सराः। दिवः संप्राप्य जगतीं विश्वामित्रादजीजनत्।। | 1-98-66a 1-98-66b |
`श्रीमानृषिर्धर्मपरो वैश्वानर इवापरः। ब्रह्मयोनिः कुशो नाम विश्वामित्रपितामहः।। | 1-98-67a 1-98-67b |
कुशस्य पुत्रो बलवान्कुशनाभश्च धार्मिकः। गाधिस्तस्य सुतो राजन्विश्वामित्रस्तु गाधिजः।। | 1-98-68a 1-98-68b |
एवंविधो मम पिता मेनका जननी वरा।' सा मां हिमवतः पृष्ठे सुषुवे मेनकाऽप्सराः।। | 1-98-69a 1-98-69b |
परित्यज्य च मां याता परात्मजमिवासती। `पक्षिणः पुम्यवन्तस्ते सहिता धर्मतस्तदा।। | 1-98-70a 1-98-70b |
पक्षैस्तैरभिगुप्ता च तस्मादस्मि शकुन्तला। ततोऽहमृषिणा दृष्टा काश्यपेन महात्मना।। | 1-98-71a 1-98-71b |
जलार्थमग्निहोत्रस्य गतं दृष्ट्वा तु पक्षिणः। न्यासभूतामिव मुनेः प्रददुर्मां दयावतः।। | 1-98-72a 1-98-72b |
कण्वस्त्वालोक्य मां प्रीतो हसन्तीति हविर्भुजः। स माऽरणिमिवादाय स्वमाश्रममुपागमत्।। | 1-98-73a 1-98-73b |
सा वै संभाविता राजन्ननुक्रोशान्महर्षिणा। तेनैव स्वसुतेवाहं राजन्वै वरवर्णिनी।। | 1-98-74a 1-98-74b |
विश्वामित्रसुता चाहं वर्धिता मुनिना नृप। यौवने वर्तमानां च दृष्टवानसि मां नृप।। | 1-98-75a 1-98-75b |
आश्रमे पर्णशालायां कुमारीं विजने तदा। धात्रा प्रचोदितां शून्ये पित्रा विरहितां मिथः।। | 1-98-76a 1-98-76b |
वाग्भिस्त्वं सूनृताभिर्मामपत्यार्थमचूचुदः। अकार्षीस्त्वाश्रमे वासं धर्मकामार्थनिश्चितम्।। | 1-98-77a 1-98-77b |
गान्धर्वेण विवाहेन विधिना पाणिमग्रहीः। साऽहं कुलं च शीलं च सत्यवादित्वमात्मनः।। | 1-98-78a 1-98-78b |
स्वधर्मं च पुरस्कृत्य त्वामद्य शरणं गता। तस्मान्नर्हसि संश्रुत्य तथेति वितथं वचः।। | 1-98-79a 1-98-79b |
स्वधर्मं पृष्ठतः कृत्वा परित्यक्तुमुपस्थिताम्। त्वन्नाथां लोकनाथस्त्वं नार्हसि त्वमनागसम्'।। | 1-98-80a 1-98-80b |
किं नु कर्माशुभं पूर्वं कृतवत्यस्मि पार्थिव। यदहं बान्धवैस्त्यक्ता बाल्ये संप्रति वै त्वया।। | 1-98-81a 1-98-81b |
कामं त्वया परित्यक्ता गमिष्याम्यहमाश्रमम्। इमं बालं तु संत्युक्तं नार्हस्यात्मजमात्मना।। | 1-98-82a 1-98-82b |
दुष्यन्त उवाच। | 1-98-83x |
न पुत्रमभिजानामि त्वयि जातं शकुन्तले। असत्वचना नार्यः कस्ते श्रद्धास्यते वचः।। | 1-98-83a 1-98-83b |
`अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लज्जसे। विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम्'।। | 1-98-84a 1-98-84b |
क्व महर्षिस्तपस्युग्रः क्वाप्सराः सा च मेनका। क्व च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी।। | 1-98-85a 1-98-85b |
अतिकायश्च पुत्रस्ते बालोऽतिबलवानयम्। कथमल्पेन कालेन सालस्कन्ध इवोद्गतः।। | 1-98-86a 1-98-86b |
सुनिकृष्टा च योनिस्ते पुंश्चली प्रतिभासि मे। यदृच्छया कामरागाज्जाता मेनकया ह्यसि।। | 1-98-87a 1-98-87b |
सर्वमेव परोक्षं मे यत्त्वं वदसि तापसि। `सर्वा वामाः स्त्रियो लोके सर्वाः कामपरायणाः।। | 1-98-88a 1-98-88b |
सर्वाः स्त्रियः परवशाः सर्वाः क्रोधसमाकुलाः। असत्योक्ताः स्त्रियः सर्वा न कण्वं वक्तुमर्हसि'।। | 1-98-89a 1-98-89b |
मेनका निरनुक्रोशा वर्धकी जननी तव। यया हिमवतः पादे निर्माल्यवदुपेक्षिता।। | 1-98-90a 1-98-90b |
स चापि निरनुक्रोशः क्षत्रयोनिः पिता तव। विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लुब्धः कामपरायणः।। | 1-98-91a 1-98-91b |
सुषाव सुरनारी मां विश्वामित्राद्यथेष्टतः। अहो जानामि ते जन्म कुत्सितं कुलटे जनैः।। | 1-98-92a 1-98-92b |
मेनकाऽप्सरसां श्रेष्ठा महर्षिश्चापि ते पिता। तयोरपत्यं कस्मात्त्वं पुंश्चलीवाभिभाषसे।। | 1-98-93a 1-98-93b |
जातिश्चापि निकृष्टो ते कुलीनेति विजल्पसे। जनयित्वा त्वमुत्सृष्टा कोकिलेन परैर्भृता।। | 1-98-94a 1-98-94b |
अरिष्टैरिव दुर्बद्धिः कण्वो वर्धयिता पिता। अश्रद्धेयमिदं वाक्यं यत्त्वं जल्पसि तापसि।। | 1-98-95a 1-98-95b |
ब्रुवन्ती राजसान्निध्ये गम्यतां यत्र चेच्छसि। `सुवर्णमणिमुक्तानि वस्त्राण्याभरणानि च।। | 1-98-96a 1-98-96b |
यदिहेच्छसि भोगार्थं तापसि प्रतिगृह्यताम्। नाहं त्वां द्रष्टुमिच्छामि यथेष्टं गम्यतामितः'।। | 1-98-97a 1-98-97b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
आदिपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-099 |