महाभारतम्-01-आदिपर्व-090
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मृगयार्थं दुष्यन्तस्यारण्यगमनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-90-1x |
संभवं भरतस्याहं चरितं च महामतेः। शकुन्तलायाश्चोत्पत्तिं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।। | 1-90-1a 1-90-1b |
दुष्यन्तेन च वीरेण यथा प्राप्ता शकुन्तला। तं वै पुरुषसिंहस्य भगवन्विस्तरं त्वहम्।। | 1-90-2a 1-90-2b |
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वज्ञ सर्वं मतिमतां वर। | 1-90-3a |
वैशंपायन उवाच। | 1-90-3x |
स कदाचिन्महाबाहुः प्रभूतबलवाहनः।। | 1-90-3b |
वनं जगाम गहनं हयनागशतैर्वृतः। बलेन चतुरङ्गेण वृतः परमवल्गुना।। | 1-90-4a 1-90-4b |
खड्गशक्तिधरैर्वीरैर्गदामुसलपाणिभिः। प्रासतोमरहस्तैश्च ययौ योधशतैर्वृतः।। | 1-90-5a 1-90-5b |
सिंहनादैश्च योधानां शङ्खदुनदुभिनिःस्वनैः। रथनेमिस्वनैश्चैव सनागवरबृंहितैः।। | 1-90-6a 1-90-6b |
नानायुधधरैश्चापि नानावेषधरैस्तथा। ह्रेषितस्वनमिश्रैश्च क्ष्वेडितास्फोटितस्वनैः।। | 1-90-7a 1-90-7b |
आसीत्किलकिलाशब्दस्तस्मिन्गच्छति पार्थिवे। प्रासादवरशृङ्गस्थाः परया नृपशोभया।। | 1-90-8a 1-90-8b |
ददृशुस्तं स्त्रियस्तत्र शूरमात्मयशस्करम्। शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम्।। | 1-90-9a 1-90-9b |
पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र वज्रपाणिं स्म मेनिरे। अयं स पुरुषव्याघ्रो रणे वसुपराक्रमः।। | 1-90-10a 1-90-10b |
यस्य बाहुबलं प्राप्य न भवन्त्यसुहृद्गणाः। इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ताः स्त्रियः प्रेम्णा नराधिपं।। | 1-90-11a 1-90-11b |
तुष्टुवुः पुष्पवृष्टीश्च ससृजुस्तस्य मूर्धनि। तत्रतत्र च विप्रेन्द्रैः स्तूयमानः समन्ततः।। | 1-90-12a 1-90-12b |
निर्ययौ परमप्रीत्या वनं मृगजिघांसया। तं देवराजप्रतिमं मत्तवारणधूर्गतम्।। | 1-90-13a 1-90-13b |
द्विजक्षत्रियविट्शूद्रा निर्यान्तमनुजग्मिरे। ददृशुर्वर्धमानास्ते आशीर्भिश्च जयेन च।। | 1-90-14a 1-90-14b |
सुदूरमनुजग्मुस्तं पौरजानपदास्तथा। न्यवर्तन्त ततः पश्चादनुज्ञाता नृपेण ह।। | 1-90-15a 1-90-15b |
सुपर्णप्रतिमेनाथ रथेन वसुधाधिपः। महीमापूरयामास घोषेण त्रिदिवं तथा।। | 1-90-16a 1-90-16b |
स गच्छन्ददृशे धीमान्नन्दनप्रतिमं वनम्। बिल्वार्कखदिराकीर्णं कपित्थधवसंकुलम्।। | 1-90-17a 1-90-17b |
विषमं पर्वतस्रस्तै रश्मभिश्च समावृतम्। निर्जलं निर्मनुष्यं च बहुयोजनमायतम्।। | 1-90-18a 1-90-18b |
मृगसिंहैर्वृतं घोरैरन्यैश्चापि वनेचरैः। तद्वनं मनुजव्याघ्रः सभृत्यबलवाहनः।। | 1-90-19a 1-90-19b |
लोडयामास दुष्यन्तः सूदयन्विविधान्मृगान्। बाणगोचरसंप्राप्तांस्तत्र व्याघ्रगणान्बहून्।। | 1-90-20a 1-90-20b |
पातयामास दुष्यन्तो निर्बिभेद च सायकैः। दूरस्थान्सायकैः कांश्चिदभिनत्स नराधिपः।। | 1-90-21a 1-90-21b |
अभ्याशमागतांश्चान्यान्खड्गेन निरकृन्तत। कांश्चिदेणान्समाजघ्ने शक्त्या शक्तिमतां वरः।। | 1-90-22a 1-90-22b |
गदामण्डलतत्त्वज्ञश्चचारामितविक्रमः। तोमरैरसिभिश्चापि गदामुसलकम्पनैः।। | 1-90-23a 1-90-23b |
चचार स विनिघ्नन्वै वन्यांस्तत्र मृगद्विजान्। राज्ञा चाद्भुतवीर्येण योधैश्च समरप्रियैः।। | 1-90-24a 1-90-24b |
लोड्यमानं महारण्यं तत्यजुः स्म मृगाधिपाः। तत्र विद्रुतयूथानि हतयूथपतीनि च।। | 1-90-25a 1-90-25b |
मृगयूथान्यथौत्सुक्याच्छब्दं चक्रुस्ततस्ततः। शुष्काश्चापि नदीर्गत्वा जलनैराश्यकर्शिताः।। | 1-90-26a 1-90-26b |
व्यायामक्लान्तहृदयाः पतन्ति स्म विचेतसः। क्षुत्पिपासापरीताश्च श्रान्ताश्च पतिता भुवि।। | 1-90-27a 1-90-27b |
केचित्तत्र नरव्याघ्रैरभक्ष्यन्त बुभुक्षितैः। केचिदग्निमथोत्पाद्य संसाध्य च वनेचराः।। | 1-90-28a 1-90-28b |
भक्षयन्ति स्म मांसानि प्रकुट्य विधिवत्तदा। तत्र केचिद्गजा मत्ता बलिनः शस्त्रविक्षताः।। | 1-90-29a 1-90-29b |
संकोच्याग्रकरान्भीताः प्राद्रवन्ति स्म वेगिताः। शकृन्मूत्रं सृजन्तश्च क्षरन्तः शोणितं बहु।। | 1-90-30a 1-90-30b |
वन्या गजवरास्तत्र ममृदुर्मनुजान्बहून्। तद्वनं बलमेघेन शरधारेण संवृतम्। व्यरोचत मृगाकीर्णं राज्ञा हतमृगाधिपम्।। | 1-90-31a 1-90-31b 1-90-31c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि नवतितमोऽध्यायः।। 90 ।। |
1-90-9 परवारणवारणं शत्रगजानां निवारकम्।। 1-90-13 धर्गतं स्कन्धारूढम्।। 1-90-28 संसाध्य पाकादिना संस्कृत्य।। 1-90-29 प्रकुट्य चूर्णीकृत्य। गजा वनगजाः।। नवतितमोऽध्यायः।। 90 ।।
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