महाभारतम्-01-आदिपर्व-120
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पृथाया बाल्यचरित्रकथनम्।। 1 ।।
तस्या दुर्वाससो मन्त्रप्राप्तिः।। 2 ।।
मन्त्रप्रभावजिज्ञासयाऽऽहूतात्सूर्यात्कुन्त्यां कर्णस्योत्पत्तिः।। 3 ।।
लोकभयात्कुन्त्या यमुनायां विसृष्टस्य राधाभर्त्रा स्वीकारो वसुषेणेति नामकरमं च।। 4 ।।
संग्रहेण कर्णचरित्रकथनम्।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-120-1x |
शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताऽभवत्। तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि।। | 1-120-1a 1-120-1b |
पितृष्वस्रीयाय स तामनपत्याय भारत। अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यं स सत्यवाक्।। | 1-120-2a 1-120-2b |
अग्रजामथ तां कन्यां शूरोऽनुग्रहकाङ्क्षिणे। प्रददौ कुन्तिभोजाय सखा सख्ये महात्मने।। | 1-120-3a 1-120-3b |
नियुक्ता सा पितुर्गेहे ब्राह्मणातिथिपूजने। उग्रं पर्यचरत्तत्र ब्राह्मणं संशितब्रतम्।। | 1-120-4a 1-120-4b |
निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः। तमुग्रं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत्।। | 1-120-5a 1-120-5b |
`दध्याज्यकादिभिर्नित्यं व्यञ्जनैः प्रत्यहं शुभा। सहस्रसङ्ख्यैर्योगीन्द्रमुपचारदनुत्तमा।। | 1-120-6a 1-120-6b |
दुर्वासा वत्सरस्यान्ते ददौ मन्त्रमनुत्तमम्'। यशस्विन्यै पृथायै तदापद्धर्मान्ववेक्षया। अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीच्चैव तां मुनिः।। | 1-120-7a 1-120-7b 1-120-7c |
यं यं देवं त्वमेतेन मन्त्रेणावाहयिष्यसि। तस्य तस्य प्रभावेण तव पुत्रो भविष्यति।। | 1-120-8a 1-120-8b |
तथोक्ता सा तु विप्रेण कुन्ती कौतूहलान्विता। कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी।। | 1-120-9a 1-120-9b |
ततो घनान्तरं कृत्वा स्वमार्गं तपनस्तदा। उपतस्थे स तां कन्यां पृथां पृथुललोचनाम्।। | 1-120-10a 1-120-10b |
सा ददर्श तमायान्तं भास्करं लोकभावनम्। विस्मिता चानवद्याङ्गी दृष्ट्वा तन्महदद्भुतम्।। | 1-120-11a 1-120-11b |
`साब्रवीद्भगवन्कस्त्वमाविर्भूतो ममाग्रतः। | 1-120-12a |
आदित्य उवाच। | 1-120-12x |
आहूतोपस्थितं भद्रे ऋषिमन्त्रेण चोदितम्। विद्धि मां पुत्रलाभाय देवमर्कं शुचिस्मिते।। | 1-120-12b 1-120-12c |
पुत्रस्ते निर्मितः सुभ्रु शृणु महादृक्छुभानने। आदित्ये कुण्डले बिभ्रत्कवचं चैव मामकम्।। | 1-120-13a 1-120-13b |
शस्त्रास्त्राणामभेद्यश्च भविष्यति शुचिस्मिते। नास्य किंचिददेयं च ब्राह्मणेभ्यो भविष्यति।। | 1-120-14a 1-120-14b |
चोद्यमानो मया चापि न क्षमं चिन्तयिष्यति। दास्यत्येव हि विप्रेभ्यो मानी चैव भविष्यति।। | 1-120-15a 1-120-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-120-16x |
एवमुक्ता ततः कुन्ती गोपतिं प्रत्युवाच ह। कन्या पितृसा चाहं पुरुषार्थो न चैव मे।।' | 1-120-16a 1-120-16b |
कश्चिन्मे ब्राह्मणः प्रादाद्वरं विद्यां च शत्रुहन्। तद्विजिज्ञासयाऽऽह्वानं कृतवत्यस्मि ते विभो।। | 1-120-17a 1-120-17b |
एतस्मिन्नपराधे त्वां शिरसाऽहं प्रसादये। योषितो हि सदा रक्ष्यास्त्वपराधेऽपि नित्यशः।। | 1-120-18a 1-120-18b |
सूर्य उवाच। | 1-120-19x |
वेदाहं सर्वमेवैतद्यद्दुर्वासा वरं ददौ। संत्यज्य भयमेवेह क्रियतां सङ्गमो मम।। | 1-120-19a 1-120-19b |
अमोघं दर्शनं मह्यमाहूतश्चास्मि ते शुभे। वृथाऽऽह्वानेऽपि ते भीरु दोषः स्यान्नात्र संशयः।। | 1-120-20a 1-120-20b |
`यद्येवं मन्यसे भीरु किमाह्वयसि भास्करम्। यदि मामवजानासि ऋषिः स न भविष्यति।। | 1-120-21a 1-120-21b |
मन्त्रदानेन यस्मात्त्वमवलेपेन दर्पिता। कुलं च तेऽद्य धक्ष्यामि क्रोधदीप्तेन चक्षुषा'।। | 1-120-22a 1-120-22b |
वैशंपायन उवाच। | 1-120-23x |
एवमुक्ता बहुविधं सान्त्वपूर्वं विवस्वता। सा तु नैच्छद्वरारोहा कन्याहमिति भारत।। | 1-120-23a 1-120-23b |
बन्धुपक्षभयाद्भीता लज्जया च यशस्विनी। तामर्कः पुनरेवेदब्रवीद्भरतर्षभ।।? | 1-120-24a 1-120-24b |
मत्प्रसादान्न ते राज्ञि भविता दोष इत्युत।। | 1-120-25a |
`कुन्त्युवाच। | 1-120-26x |
प्रसीद भगवन्मह्यमवलेपो हि नास्ति मे। त्वयैव परिहार्यं स्यात्कन्याभावस्य दूषणम्।। | 1-120-26a 1-120-26b |
आदित्य उवाच। | 1-120-27x |
व्यपयातु भयं तेऽद्य कुमारं प्रसमीक्षसे। मया त्वं चाप्यनुज्ञाता पुनः कन्या भविष्यसि।। | 1-120-27a 1-120-27b |
वैशंपायन उवाच। | 1-120-28x |
एवमुक्ता ततः कुन्ती संप्रहृष्टतनूरुहा। सङ्गताऽभूत्तदा सुभ्रूरादित्येन महात्मना।। | 1-120-28a 1-120-28b |
प्रकाशकर्मा तपनः कन्यागर्भं ददौ पुनः।' तत्र वीरः समभवत्सर्वशस्त्रभृतां वरः।। | 1-120-29a 1-120-29b |
आमुक्तकवचः श्रीमान्देवगर्भः श्रियान्वितः। सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोद्द्योतिताननः।। | 1-120-30a 1-120-30b |
अजायत सुतः कर्णः सर्वलोकेषु विश्रुतः। प्रादाच्च तस्यै कन्यात्वं पुनः स परमद्युतिः।। | 1-120-31a 1-120-31b |
दत्त्वा च तपतां श्रेष्ठो दिवमाचक्रमे ततः। दृष्ट्वा कुमारं जातं सा वार्ष्णेयी दीनमानसा।। | 1-120-32a 1-120-32b |
एकाग्रं चिन्तयामास किं कृत्वा सुकृतं भवेत्। गूहमानापचारं सा बन्धुपक्षभयात्तदा।। | 1-120-33a 1-120-33b |
मञ्जूषां रत्नसंपूर्णां कृत्वा बालसमाश्रिताम्। उत्ससर्ज कुमारं तं जले कुन्ती महाबलम्।। | 1-120-34a 1-120-34b |
तमुत्सृष्टं जले गर्भं राधाभर्ता महायशाः। पुत्रत्वे कल्पयामास सभार्यः सूतनन्दनः।। | 1-120-35a 1-120-35b |
नामधेयं च चक्राते तस्य बालस्य तावुभौ। वसुना सह जातोऽयं वसुषेणो भवत्विति।। | 1-120-36a 1-120-36b |
स वर्धमानो बलवान्सर्वास्त्रेषूद्यतोऽभवत्। आपृष्ठतापादादित्यमुपातिष्ठत वीर्यवान्।। | 1-120-37a 1-120-37b |
तस्मिन्काले तु जपतस्तस्य वीरस्य धीमतः। नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत्किंचिद्वसु महीतले।। | 1-120-38a 1-120-38b |
`ततः काले तु कस्मिंश्चित्स्वप्नान्ते कर्णमब्रवीत्। आदित्यो ब्राह्मणो भूत्वा शृणु वीर वचो मम।। | 1-120-39a 1-120-39b |
प्रभातायां रजन्यां त्वामागमिष्यति वासवः। न तस्य भिक्षा दातव्या विप्ररूपी भविष्यति।। | 1-120-40a 1-120-40b |
निश्चयोऽस्यापहर्तुं ते कवचं कुण्डले तथा। अतस्त्वां बोधयाम्येष स्मर्तासि वचनं मम।। | 1-120-41a 1-120-41b |
कर्ण उवाच। | 1-120-42x |
शक्रो मां विप्ररूपेण यदि वै याचते द्विज। कथं तस्मै न दास्यामि यथा चास्म्यवबोधितः।। | 1-120-42a 1-120-42b |
विप्राः पूज्यास्तु देवानां सततं प्रियमिच्छताम्। तं देवदेवं जानन्वै न शक्तोऽस्म्यवमन्त्रणे।। | 1-120-43a 1-120-43b |
सूर्य उवाच। | 1-120-44x |
यद्येवं शृणु मे वीर वरं ते सोऽपि दास्यति। शक्तिं त्वमपि याचेथाः सर्वशत्रुविबाधिनीम्।। | 1-120-44a 1-120-44b |
वैशंपायन उवाच। | 1-120-45x |
एवमुक्त्वा द्विजः स्वप्ने तत्रैवान्तरधीयत। कर्णः प्रबुद्धस्तं स्वप्नं चिन्तयानोऽभवत्तदा।। | 1-120-45a 1-120-45b |
तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा पुत्रार्थं भूतभावनः। कुण्डले प्रार्थयामास कवचं च महाद्युतिः।। | 1-120-46a 1-120-46b |
उत्कृत्याविमनाः स्वाङ्गात्कवचं रुधिरस्रवम्। कर्णौ पार्श्वे च द्वे छित्त्वा प्रायच्छत्स कृताञ्जलिः।। | 1-120-47a 1-120-47b |
प्रतिगृह्य तु देवेशस्तुष्टस्तेनास्य कर्मणा। अहो साहसमित्याह मनसा वासवो हसन्।। | 1-120-48a 1-120-48b |
देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्। न तं पश्यामि यो ह्येतत्कर्म कर्ता भविष्यति।। | 1-120-49a 1-120-49b |
प्रीतोऽस्मि कर्मणा तेन वरं ब्रूहि यदिच्छसि। | 1-120-50a |
कर्ण उवाच। | 1-120-50x |
इच्छामि भगवद्दत्तां शक्तिं शत्रुनिबर्हणीम्।। | 1-120-50b |
वैशंपायन उवाच। | 1-120-51x |
शक्तिं तस्मै ददौ शक्रो विस्मयाद्वाक्यमब्रवीत्। देवदानवयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।। | 1-120-51a 1-120-51b |
यस्मै क्षेप्स्यसि रुष्टः सन्सोऽनया न भविष्यति। हत्वैकं समरे शत्रुं ततो मामागमिष्यति। इत्युक्त्वान्तर्दधे शक्रो वरं दत्त्वा तु तस्य वै।। | 1-120-52a 1-120-52b 1-120-52c |
प्राङ्नाम तस्य कथितं वसुषेण इति क्षितौ। कर्णो वैकर्तनश्चैव कर्मणा तेन सोऽभवत्।। | 1-120-53a 1-120-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 120 ।। |
1-120-2 अग्र्यं प्रथमम्। अग्रे जन्मतः पूर्वं प्रतिज्ञाय मया प्रथममपत्यं तुभ्यं देयमिति प्रतिश्रुत्य।। 1-120-7 अभिचारो वश्याकर्षणादिदृष्टफलं तद्युक्तम्।। 1-120-36 वसुना कवचकुण्डलादिद्रव्येण बद्ध इति वसुषेणः।। 1-120-37 आपृष्ठतापात् मध्याह्नात्परत इत्यर्थः।। 1-120-53 सहजकवचकर्तनात् कर्णः विशेषतः कर्तनेन वैकर्तनः। स्वार्थे तद्धितः।। विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 120 ।।
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