महाभारतम्-01-आदिपर्व-196
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पितॄणां निदेशेन और्वस्य समुद्रे क्रोधत्यागः।। 1 ।।
और्व उवाच। | 1-196-1x |
उक्तवानस्मि यां क्रोधात्प्रतिज्ञां पितरस्तदा। सर्वलोकविनाशाय न सा मे वितथा भवेत्।। | 1-196-1a 1-196-1b |
वृथारोषप्रतिज्ञो वै नाहं जीवितुमुत्सहे। अनिस्तीर्णो हि मां रोषो दहेदग्निरिवारणिम्।। | 1-196-2a 1-196-2b |
यो हि कारणतः क्रोधं संजातं क्षन्तुमर्हति। नालं स मनुजः सम्यक् त्रिवर्गं परिरक्षितुम्।। | 1-196-3a 1-196-3b |
अशिष्टानां नियन्ता हि शिष्टानां परिरक्षिता। स्थाने रोषः प्रयुक्तः स्यान्नृपैः सर्वजिगीषुभिः।। | 1-196-4a 1-196-4b |
अश्रौषमहमूरुस्थो गर्भशय्यागतस्तदा। आरावं मातृवर्गस्य भृगूणां क्षत्रियैर्वधे।। | 1-196-5a 1-196-5b |
सामरैर्हि यदा लोके भृगूणां क्षत्रियाधमैः। आगर्भोत्सादनं क्षान्तं तदा मां मन्युराविशत्।। | 1-196-6a 1-196-6b |
प्रकीर्णकेशाः किल मे मातरः पितरस्तथा। भयात्सर्वेषु लोकेषु नाधिजग्मुः परायणम्।। | 1-196-7a 1-196-7b |
तान्भृगूणां यदा दारान्कश्चिन्नाभ्युपपद्यत। माता तदा दधारेयमूरुणैकेन मां शुभा।। | 1-196-8a 1-196-8b |
प्रतिषेद्धा हि पापस्य यदा लोकेषु विद्यते। तदा सर्वेषु लोकेषु पापकृन्नोपपद्यते।। | 1-196-9a 1-196-9b |
यदा तु प्रतिषेद्धारं पापो न लभते क्वचित्। तिष्ठन्ति बहवो लोकास्तदा पापेषु कर्मसु।। | 1-196-10a 1-196-10b |
जानन्नपि च यः पापं शक्तिमान्न नियच्छति। ईशः सन्सोऽपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते।। | 1-196-11a 1-196-11b |
राजभिश्चेश्वरैश्चैव यदि वै पितरो मम। शक्तैर्न शकितास्त्रातुमिष्टं मत्वेह जीवितम्।। | 1-196-12a 1-196-12b |
अत एषामहं क्रुद्धो लोकानामीश्वरो ह्यहम्। भवतां च वचो नालमहं समभिवर्तितुम्।। | 1-196-13a 1-196-13b |
ममापि चेद्भवेदेवमीश्वरस्य सतो महत्। उपेक्षमाणस्य पुनर्लोकानां किल्बिषाद्भयम्।। | 1-196-14a 1-196-14b |
यश्चायं मन्युजो मेऽग्निर्लोकानादातुमिच्छति। दहेदेष च मामेव निगृहीतः स्वतेजसा।। | 1-196-15a 1-196-15b |
भवतां च विजानामि सर्वलोकहितेप्सुताम्। तस्माद्विधद्ध्वं यच्छ्रेयो लोकानां मम चेश्वराः।। | 1-196-16a 1-196-16b |
पितर ऊचुः। | 1-196-17x |
य एष मन्युजस्तेऽग्निर्लोकानादातुमिच्छति। अप्सु तं मुञ्च भद्रं ते लोका ह्यप्सु प्रतिष्ठिताः।। | 1-196-17a 1-196-17b |
आपोमयाः सर्वरसाः सर्वमापोमयं जगत्। तस्मादप्सु विमुञ्चेमं क्रोधाग्निं द्विजसत्तम।। | 1-196-18a 1-196-18b |
अयं तिष्ठतु ते विप्र यदीच्छसि महोदधौ। मन्युजोऽग्निर्दहन्नापो लोका ह्यापोमयाः स्मृताः।। | 1-196-19a 1-196-19b |
एवं प्रतिज्ञा सत्येयं तवानघ भविष्यति। न चैवं सामरा लोका गमिष्यन्ति पराभवम्।। | 1-196-20a 1-196-20b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-196-21x |
ततस्तं क्रोधजं तात और्वोऽग्निं वरुणालये। उत्ससर्ज स चैवाप उपयुङ्क्ते महोदधौ।। | 1-196-21a 1-196-21b |
महद्धयशिरो भूत्वा यत्तद्वेदविदो विदुः। तमग्निमुद्हिरद्वक्त्रात्पिबत्यापो महोदधौ।। | 1-196-22a 1-196-22b |
तस्मात्त्वमपि भद्रं ते न लोकान्हन्तुमर्हसि। पराशरं पराँल्लोकाञ्जानञ्ज्ञानवतां वर।। | 1-196-23a 1-196-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 196 ।। |
1-196-2 अनिस्तीर्णोऽकृतकार्यः।। 1-196-8 तद्भृगूणां राजा कश्चिन्नाभ्युपपद्यते इति ङ. पाठः।। 1-196-21 उपयुङ्क्ते भक्षयति।। 1-196-22 हयशिरः वडवामुखम्।। षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 196 ।।
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