महाभारतम्-01-आदिपर्व-045
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जरत्कारोः स्वपितॄणां दर्शनं तद्भाषणं च।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-45-1x |
एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपाः। चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनिः।। | 1-45-1a 1-45-1b |
चरन्दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः। तीर्थेष्वाप्लवनं कुर्वन्पुण्येषु विचचार ह।। | 1-45-2a 1-45-2b |
वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्नहरहर्मुनिः। सं ददर्श पितॄन्गर्ते लम्बमानानधोमुखान्।। | 1-45-3a 1-45-3b |
एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान्। तं तन्तुं च शनैराखुमाददानं बिलेशयम्।। | 1-45-4a 1-45-4b |
निराहारान्कृशान्दीनान्गर्ते स्वत्राणमिच्छतः। उपसृत्य स तान्दीनान्दीनरूपोऽभ्यभाषत।। | 1-45-5a 1-45-5b |
के भवन्तोऽवलम्बन्ते वीरमस्तम्बमाश्रिताः। दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना।। | 1-45-6a 1-45-6b |
वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम्। तद्भप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनैः शितैः।। | 1-45-7a 1-45-7b |
छेत्स्यतेऽल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव। ततस्तु पतितारोऽत्र गर्ते व्यक्तमधोमुखाः।। | 1-45-8a 1-45-8b |
अत्र मे दुःखमुत्पन्नं दृष्ट्वा युष्मानधोमुखान्। कृच्छ्रामापदमापन्नान्प्रियं किं करवाणि वः।। | 1-45-9a 1-45-9b |
तपसोऽस्य चतुर्थेन तृतीयेनाथ वा पुनः। अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत मा चिरम्।। | 1-45-10a 1-45-10b |
अथवापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम। भवन्तः सर्व एवेह काममेवं विधीयताम्।। | 1-45-11a 1-45-11b |
पितर ऊचुः। | 1-45-12x |
कुतो भवान्ब्रह्मचारी यो नस्त्रातुमिहेच्छसि। न तु विप्राग्र्य तपसा शक्यमेतद्व्यपोहितुम्।। | 1-45-12a 1-45-12b |
अस्ति नस्तात तपसः फलं प्रवदतां वर। संतानप्रक्षयाद्ब्रह्मन्पतामो निरयेऽशुचौ।। | 1-45-13a 1-45-13b |
सन्तानं हि परो धर्मं एवमाह पितामहः। लम्बतामिह नस्तात न ज्ञानं प्रतिभाति वै।। | 1-45-14a 1-45-14b |
येन त्वां नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम्। वृद्धो भवान्महाभागोयोनः शोच्यान्सुदुःखितान।। | 1-45-15a 1-45-15b |
शोचते चैव कारुण्याच्छृणु ये वै वयं द्विज। यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः।। | 1-45-16a 1-45-16b |
लोकात्पुम्यादिह भ्रष्टाः सन्तानप्रक्षयान्मुने। प्रणष्टं नस्तपस्तीव्रं न हि नस्तन्तुरस्ति वै।। | 1-45-17a 1-45-17b |
अस्तित्वेकोऽद्य नस्तन्तुः सोऽपि नास्ति यथा तथा। मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एकं समास्थितः।। | 1-45-18a 1-45-18b |
जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः। नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपाः।। | 1-45-19a 1-45-19b |
तेन स्म तपसो लोभात्कृच्छ्रमापादिता वयम्। न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वाऽस्ति कश्चन।। | 1-45-20a 1-45-20b |
तस्माल्लम्बामहे गर्ते नष्टसंज्ञा ह्यनाथवत्। स वक्तव्यस्त्वया दृष्टो ह्यस्माकं नाथवत्तया।। | 1-45-21a 1-45-21b |
पितरस्तेऽवलम्बन्ते गर्ते दीना अधोमुखाः। साधु दारान्कुरुष्वेति प्रजायस्वेति चाभि भोः।। | 1-45-22a 1-45-22b |
कुलतन्तुर्हि नः शिष्टः स एकैकस्तपोधन। यं तु पश्यसि नो ब्रह्मन्वीरणस्तम्बमाश्रयम्।। | 1-45-23a 1-45-23b |
एषोऽस्माकं कुलस्तम्ब आस्ते स्वकुलवर्धनः। यानि पश्यसि वै ब्रह्मन्मूलानीहास्य वीरुधः।। | 1-45-24a 1-45-24b |
एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिताः। यत्त्वेतत्पश्यसि ब्रह्मन्मूलमस्यार्धभक्षितम्।। | 1-45-25a 1-45-25b |
यत्र लम्बामहे गर्ते सोऽप्येकस्तप आस्थितः। यमाखुं पश्यसि ब्रह्मन्काल एष महाबलः।। | 1-45-26a 1-45-26b |
स तं तपोरतं मन्दं शनैः क्षपयते तुदन्। जरत्कारुं तपोलुब्धं मन्दात्मानमचेतसम्।। | 1-45-27a 1-45-27b |
न हि नस्तत्तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम। छिन्नमूलान्परिभ्रष्टान्कालोपहतचेतसः।। | 1-45-28a 1-45-28b |
अधः प्रविष्टान्पश्यास्मान्यथा दुष्कृतिनस्तथा। अस्मासु पतितेष्वत्र सह सर्वैः सबान्धवैः।। | 1-45-29a 1-45-29b |
छिन्नः कालेन सोऽप्यत्र गन्ता वै नरकं ततः। तपो वाऽप्यथ चा यज्ञो यच्चान्यत्पावनं महत्।। | 1-45-30a 1-45-30b |
तत्सर्वं न समं तात संतत्येति सतां मतम्। स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्तं जरत्कारुं तपोधन।। | 1-45-31a 1-45-31b |
यथा दृष्टमिदं चात्र त्वयाऽऽख्येयमशेषतः। यथा दारान्प्रकुर्यात्स पुत्रानुत्पादयेद्यथा।। | 1-45-32a 1-45-32b |
वा ब्रह्मंस्त्वया वाच्यः सोऽस्माकं नाथवत्तया। बान्धवानां हितस्येह यथा चात्मकुलं तथा।। | 1-45-33a 1-45-33b |
कस्त्वं बन्धुमिवास्माकमनुशोचसि सत्तम। श्रोतुमिच्छाम सर्वेषां को भवानिह तिष्ठति।। | 1-45-34a 1-45-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।। |
1-45-5 स्वत्राणं स्वरक्षाम्।। 1-45-8 पतितारः पतिष्यथा।। 1-45-12 एतत् अस्मदीयं कृच्छ्रं व्यपोहितुं अपनेतुम्।। पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।।
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